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नर्मदा, कहते हैं भगवान शिव के स्वेद से उत्पन्न हुई यह नदी, इसका कंकण कंकण शंकर है….By-Sarvesh Kumar Tiwari

Sarvesh Kumar Tiwari
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नर्मदा!
कहते हैं भगवान शिव के स्वेद से उत्पन्न हुई यह नदी, इसका कंकण कंकण शंकर है। इसके हर पत्थर में शिव का प्राण है, उसकी प्राणप्रतिष्ठा की कोई आवश्यकता नहीं।
देवताओं को राक्षसों के वध का पश्चाताप करना था, सो महादेव ने नर्मदा को उत्पन्न किया। यह किसी सभ्यता की सहिष्णुता की पराकाष्ठा है कि उसके देव आततायियों के वध का भी प्रायश्चित करें। पर यही हम हैं। हिंसा हमारा मूल स्वभाव नहीं, हमने हिंसा की भी तो शान्ति की स्थापना के लिए की।
शास्त्र कहते हैं, कलिकाल के अंत में गङ्गा धरा से विलुप्त हो जाएंगी, पर नर्मदा का प्रलय में भी नाश नहीं होगा। उन्हें सृष्टि के अंत तक बहते रहने का वर प्राप्त है। तभी वर्ष में एक बार माँ गङ्गा स्वयं नर्मदा में स्नान करने आती हैं।
इन दोनों पवित्र धाराओं के अस्तित्व के इस अंतर पर सोचता हूँ तो एक ही कारण समझ में आता है कि माँ गङ्गा परलोक सुधारती हैं पर माँ नर्मदा इहलोक सुधारती हैं, उनका जीवन सुधारती हैं।
नर्मदा सम्भवतः एकमात्र नदी है जिसकी परिक्रमा की परम्परा रही है। कहते हैं, नर्मदा की पैदल परिक्रमा करने से व्यक्ति लोक से जुड़ता है। संसार के सारे धर्मों के धार्मिक अनुष्ठान व्यक्ति के परलोक को सुधारने के लिए होते हैं, पर नर्मदा यात्रा इहलोक से जुड़ने के लिए होती है। जैसे परम्परा कह रही हो, “पहले संसार को तो जान लो बेटा! उसके बाद स्वर्ग-नरक को जानना।”
मुझे लगता है कि कोई व्यक्ति केवल माँ नर्मदा की परिक्रमा कर ले, तो भारत को पा लेगा। इस राष्ट्र की वह विविधता, वह जीवन दर्शन, वह प्राकृतिक सौंदर्य, वह प्राचीन वैभव जिसके कारण इसे सबसे सुंदर देश होने की प्रतिष्ठा प्राप्त थी, वह सब नर्मदा परिक्रमा करते समय देखा और महसूस किया जा सकता है। गाँव, शहर, पर्वत, वन, झरने और प्रकृति को केंद्र में रख कर चलने वाली जीवनशैली, इसे ठीक से समझ लेना ही भारत को समझ लेना है। अपने जीवन को सुधारने, लौकिक ज्ञान प्राप्त करने, अपनी दृष्टि को विस्तार देने का इससे अच्छा उपाय और क्या होगा भला?
भारत में होने वाली धार्मिक यात्राएं वस्तुतः स्वयं को साधने की यात्राएं रही हैं। अपने लोभ, मोह, मद, अहंकार, घृणा आदि पर विजय पाने की यात्रा! मैंने देखा है सुल्तानगंज से वैजनाथ धाम की पैदल यात्रा करते कांवरियों को, वे किसी को पीड़ा नहीं देते। आगे आते कुत्तों को भी डपट कर नहीं भगाते, किसी से कोई विवाद नहीं करते। न सही जीवन भर, इस यात्रा के बहाने व्यक्ति कुछ दिनों के लिए तो स्वयं को शुद्ध कर ही लेता है। विश्वास कीजिये, स्वयं को दुर्गुणों से मुक्त कर लेना भी मोक्ष है, कुछ दिन के लिए ही सही…
नर्मदा यात्रा पर मन से निकला व्यक्ति भी स्वयं को मुक्त कर लेता है। वह सबको उसके सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में देखता है। उसके लिए हर स्त्री माँ होती है, हर जीव सहयात्री होता है, नदी मातृदेवी होती है, प्रकृति देवतुल्य होती है। वह किसी का अहित नहीं करता, कोई उसका अहित नहीं करता। सोच कर देखिये, जीवन इससे भी अधिक सुंदर हो सकता है क्या? नहीं हो सकता।
माता नर्मदा की धारा के सङ्ग थोड़ी दूर तो चलना बनता है। पर तभी, जब रोम रोम कह रहा हो, नर्मदे हर! नर्मदे हर।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।