साहित्य

जो पूरे ना हो सके वो ख़ाब….डॉ. विजया सिंह की रचनायें पढ़िये!

Dr.vijayasingh

Alwar, India, Rajasthan

Dr.vijayrani1@gmail.com

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जो पूरे ना हो सके वो ख्वाब
उनका टूट जाना ही अच्छा
जो ना बन सके कभी अपने
उनका रूठ जाना ही अच्छा
यूँ तो सफर कटता नहीं अकेले
मगर बेवफा सनम से
तन्हाई का आलम ही अच्छा
चिरागों की रोशनी से
ख़फ़ा तो नहीं मैं
मगर उनकी बेतुकी शर्तों से
अंधेरा ही अच्छा
संवर ना पाये जो बात
बार-बार बनकर भी
वो बात बिगड़ ही जाये तो अच्छा
लो तोड़ दिया अपने प्रेम बन्धन का धागा हमने
अब तुम दूर गगन में उड़ ही जाओ तो अच्छा
राधे राधे जी.. डॉ. विजया सिंह


Dr.vijayasingh
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हाँ कुछ अजीब सी हूँ मैं क्युकी बिना किसी स्वार्थ करती हूँ प्रेम सारी दुनिया से।।नही रखती कोई भी बात दिल के भीतर जीवन खुली किताब सा है मेरा, पढ़ सकता है एक एक लफ्ज हर कोई ।। जब नाचने का मन होता है तो नाचती हूँ मगन होकर ,गाने का मन होता है तो जोर जोर से गा लेती हूँ बिना सुर ताल के और खिलखिला कर हँस देती हूँ सूरज की किरणों के साथ।। दूसरों का दर्द लगता है मुझे मेरा ही बाँट लेती हूँ सबसे खुश होकर।।और सबके कंधे पर रख देती हूँ अपना हाथ ये कहकर कि मैं हूँ ना तुम क्यूँ चिंता करते हो।।खड़ी हो जाती हूँ सबके साथ बिना ये जाने कि लड़ाई कितनी करनी पड़ेगी औरअंत तक निभाती हूँ साथ सबका ,जबकी जानती हूँ कि कोई मेरे साथ नहीं है।। हाँ कुछ अजीब सी हूँ मैं क्युकी निभाती हूँ साथ उस ऊँचाई पर जाकर भी जहाँ नही देखता किसी को कोई पलट कर…ओढ़ लेती हूँ कर्तव्यों की वो चादर जो दूसरों के हिस्से की थी बिना किसी लोभ-लालच या संकोच के ..कोई मेरे घर आता है तो बीमारी में भी खड़ी हो जाती हूँ मुस्कुराते हुए ये सोचकर कि हर रोज कौन आता है।।स्त्री पुरुष छोटा बड़ा अमीर गरीब नहीं फ़र्क महसूस करती हूँ मैं किसी से दोस्ती करते समय बस दिल और विचारों से ही कर लेती हूँ निस्वार्थ प्रेम सबसे ,देह से ऊपर भी एक प्रेम की परिभाषा है उसी को यथार्थ में जीवन्त करती हूँ मै हाँ कुछ अजीब सी हूँ मैं …रोती नही हूँ कभी ..स्त्री होकर भी हार नहीं मानती कभी जीवन से क्युकी मेरे पिता ने एक बात समझाई थी मुझे तुझमे और तेरे भाई में क्या फ़र्क है दो हाथ पाँव उसके पास है और वही तेरे पास है वो तुझसे बड़ा कैसे हो गया ..बस उसके बाद किसी पुरुष से कभी खुद को कम नहीं आंका.. बस जीवन में आगे बढ़ती गईं ,बढ़ती गई मैं ..हाँ कुछ अजीब सी हूँ मैं ….
राधे राधे जी..डॉ.विजया सिंह

Dr.vijayasingh
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जी करता है चीखूँ आज
जोर -जोर से चिल्लाऊँ मैं
उसकी घटिया करनी
दुनिया को बतलाऊँ मैं
बनकर उसने मेरा अपना
लूटा कैसे समझाऊँ मैं
कहकर भी बहुत कुछ जैसे
कुछ भी ना कह पाऊँ मैं
जाने कितने राज इस दिल के
दिल में दफन कर जाऊँ मैं
हर धड़कन है सहमी सहमी
फिर भी रो ना पाऊँ मैं
अधरों पर मुस्कान सजाकर
गम को रोज छिपाऊँ मैं
बीच भंवर में फँसी नाव सी
हिचकोले से खाऊँ मैं
जी करता है चीखूँ आज
जोर-जोर से चिल्लाऊँ मैं .
राधे राधे जी डॉ. विजया सिंह