
Laxmi Sinha
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जब ईश्वर का वास हृदय में माना गया है तो मंदिर
जैसे उपासना स्थल क्यों बनाए जाते हैं? मंदिरों की
स्थापना के पीछे उद्देश्य था कि पूजा, अर्चना और यज्ञ
आदि द्वारा पवित्र तन्मात्राओं यानी पंचभूतों के सूक्ष्म
रूप की सृष्टि की जाए। किसी साधु हृदय व्यक्ति
हो पूजा का कार्यभार सौंपा जाए। स्थान का मन पर
अदृश्य प्रभाव पड़ता है। चिकित्सालय में व्यक्ति को
हर तरफ रोग और रोगी ही देखते हैं। स्वस्थ व्यक्ति
भी वहां अशक्त महसूस करने लगता है। हमारे शरीर
से प्रतिदिन शुभ या अशुभ अदृश्य सूक्ष्म शक्ति_ राशि
का उत्सर्जन होता रहता है। मंदिर जाने वाला व्यक्ति
काम,क्रोध और आलस्य बाहर छोड़कर ईश्वर के प्रति
भक्तिभाव से जाता है । यह सामूहिक भक्ति या
उपासना शुभ तन्मात्राओं व तरंगों का सृजन करती
है। अतः यहां आगमन दुर्बल मन वाले मनुष्यों में
ऊर्जा का संचार करता है। सज्जनों से ही प्रार्थना
स्थलों की पवित्रता बनी रहती है। यदि मंदिर प्रांगण
में असाधु व्यक्तियों का आवागमन बढ़ जाए तो
स्थान अपनी पवित्रता खोने लगता है। पवित्र श्रावन
मास में शिवलिंग पर दुग्ध, बेलपत्र,फल_फूल आदि
चढ़ाकर पुण्य अर्जित करने की होड़ लगी रहती है।
यदि ईश्वर हैं और वह हमारी प्रार्थना से प्रसन्न होते
हैं तो वह एक बेलपत्र, अंजुली भर दूध या एक पुष्प
से भी प्रसन्न हो जाएंगे। सावन के महीने से इतर भी
ये दृश्य आमतौर पर मंदिरों में आम होते हैं। यदि
यह व्यवस्था सुचारू न हो तो अव्यवस्था
स्वाभाविक है। इसी कारण कई मंदिरों में व्यक्तिगत
रूप से भोग_अर्पण की मनाही है। यदि पूजा स्थल
हमें पवित्र बनाता है तो हमारा भी उत्तरदायित्व
बनता है कि हम उन्हें पवित्र बनाए रखें।वहां भौतिक
कचरा नहीं, अपितु दूषित विचार और दूषित
भावनाओं को ही तिलांजलि देकर आएं । ईश्वर
अस्वच्छता फैलाने वाले मनुष्य द्वारा अर्पित किया
गया कितना ही महंगा भोग क्यों न हो, कितना ही
दुर्लभ पुष्प क्यों न हो, वह स्वीकार ही नहीं करते।
भगवान तो मात्र भाव के भूखे होते हैं,,,,,,,,,,,,,,,,।
समाज में नई दिशा
देने का हमारा संकल्प
नई उषा का आरंभ,,,,
___________________Laxmi sinha