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74वें बर्लिन फ़िल्म महोत्सव में मनोज बाजपेयी की फ़िल्म ‘दि फ़ेबल’ का जलवा!

74वें बर्लिन फिल्म महोत्सव में यूं तो सात भारतीय फिल्में शामिल हुईं, लेकिन मनोज बाजपेयी के अभिनय वाली राम रेड्डी निर्देशित फिल्म ‘दि फेबल’ की खास तौर पर चर्चा रही.

बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की पहचान कला फिल्मों के राजनीतिक मंच के तौर पर है. भारतीय फिल्मों का इस महोत्सव से रिश्ता तो रहा है, लेकिन मुख्य प्रतियोगिता में पहुंचने का रिकॉर्ड ना के बराबर है.

हालांकि इस बार मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘दि फेबल’ ने फेस्टिवल के “एनकाउंटर्स” कैटेगरी में ना सिर्फ जगह बनाई, बल्कि इसकी ज्यादातर स्क्रीनिंग हाउसफुल गईं.

अंतरराष्ट्रीय फिल्म मैगजीन और अखबारों ने फिल्म को जमकर सराहा. खासकर राम रेड्डी के निर्देशन और फिल्मांकन को विशेष रूप से प्रशंसा मिली है. डीडब्ल्यू से खास बातचीत में मनोज बाजपेयी ने कहा कि कहीं न कहीं उन्हें भरोसा था कि यही फेस्टिवल उनकी फिल्म की तरफ ध्यान खींचने के लिए बेहतर प्लेटफॉर्म साबित होगा. ऐसा हुआ भी. हालांकि उनकी पिछली फिल्म ‘जोरम’ ने भी तारीफें और अवॉर्ड तो लिए, पर बहुत सारे दर्शकों को लुभाने में कामयाब नहीं रही.

‘दि फेबल’ क्यों है खास फिल्म

30 साल के करियर में मनोज बाजपेयी की यह पहली फिल्म है जिसका बर्लिन में वर्ल्ड प्रीमियर हुआ. उनकी फिल्में दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तो गई हैं लेकिन इस महोत्सव में कोई फिल्म प्रदर्शित नहीं हुई.

मनोज बाजपेयी ने डीडब्ल्यू से कहा, “मुझे लगा था कि इस फिल्म को बर्लिनाले में दिखाने से हम दुनिया को आकर्षित कर पाएंगे और मैं सही साबित हुआ हूं. जो फिल्में कान समारोह में जाती हैं और जो यहां आती हैं, उनकी प्रकृति में फर्क है. आप देखिए, जिस तरह से फिल्म के बारे में पूरी दुनिया के अखबारों और मैगजीनों ने लिखा है, उससे भरपूर प्रोत्साहन मिला है.”

इसके पहले आखिरी बार 1994 में बुद्धदेब दासगुप्ता की बांग्ला फिल्म ‘चराचर’ बर्लिनाले की मुख्य प्रतियोगिता में प्रतिभागी थी.

‘द फेबल’ निर्देशित करने वाले राम रेड्डी की यह दूसरी फिल्म है. उनकी पहली फिल्म ‘तिथि’ भी फिल्म फेस्टिवल के मंच से ही दर्शकों तक पहुंची थी, जिसे बेहद सराहा गया और पुरस्कार भी हासिल हुआ.

‘दि फेबल’ 1989 में हिमालय की गोद में बसे एक परिवार की कहानी है, जिसमें अंदरूनी भावनाओं और बाहरी जिंदगी को जादुई यथार्थवाद (मैजिकल रियलिज्म) के जरिए जोड़ा गया है.

“कहानी से आगे कुछ नहीं देखता”

डीडब्ल्यू को दिए खास इंटरव्यू में मनोज बाजपेयी ने अपने करियर पर विस्तार से बातचीत करते हुए कहा कि उन्हें मेनस्ट्रीम फिल्मों से कोई दिक्कत नहीं, लेकिन उनकी नजर सिर्फ कहानी और अपने चरित्र पर होती है. वह कहते हैं, “जब लोग मुझे कैरेक्टर ऐक्टर कहते हैं, तो मुझे अच्छा नहीं लगता है. ऐसा लगता है कि उनका मतलब है मानो आप सेकेंड क्लास सिटिजन हैं. मैं सिर्फ कहानी-प्रधान फिल्म करता हूं, सिर्फ वही देखता हूं. बाकी चीजों से मुझे कोई मतलब नहीं रहता.”

सन 1994 में गोविंद निहलानी की ‘द्रोहकाल’ से सफर शुरू करने वाले मनोज बाजपेयी ने शेखर कपूर, प्रकाश झा, राम गोपाल वर्मा, हंसल मेहता, महेश भट्ट, अनुराग कश्यप समेत लगभग सभी नामचीन निर्देशकों के साथ काम किया है.

डीडब्ल्यू के एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं, “मैं बिल्कुल मानता हूं कि मैं खुशकिस्मत हूं, इसीलिए इतना सब कर पाया, नहीं होता तो नहीं कर पाता. खुशकिस्मती आपको काम दिलवा सकती है, लेकिन मेहनत तो आपको ही करनी होगी. उससे भी इंकार नहीं किया जा सकता.”

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स्वाति बक्शी