नई दिल्ली: राजधानी नई दिल्ली से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर जिला मुज़फ़्फ़रनगर में 2013 का दँगा दुनियाभर में चर्चित है,जिससे मुज़फ़्फ़रनगर की छवि और सौहार्द को बड़ा नुकसान पहुंच रहा था,भले ही दंगों में 60 हज़ार के लगभग लोग शिविरों में रहने पर मजबूर हुए हों,सरकार ने उनकी अनदेखी करी हो।
5 साल बाद भी दंगों की कसक कभी ना कभी नागरिकों में महसूस होती है और अपने बिछड़े हुए को याद करके भावुक होजाते हैं,तो कई सारे अपने गांव को याद करके रोने लगते हैं।
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में जब लोग अपने घर मकान खेत खलियान छोड़कर जान बचाने के लिये भागे थे उस समय कई गाँवों में मस्जिदें भी वीरान होगई थी,मदरसे में भी ताले पड़ गए थे,जिनकी संख्या दर्जनों में पहुँचती है।
एक सच्ची कहानी जो मुज़फ़्फ़रनगर में दंगों के दौरान देखने को मिली थी वो ये है कि पांच वर्ष पूर्व जब क्षेत्र सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा था, वहीं एक मस्जिद की सुरक्षा करने के लिए हिंदू परिवार ही पहरेदार बन गए थे। मस्जिद की सुरक्षा करने वाला हिंदू परिवार आज भी उस घटना को याद कर सिहर उठते हैं।
भोपा क्षेत्र के गांव नंहेड़ा की आबादी लगभग 3500 है। जाट बाहुल्य गांव में 120 वर्ष पुरानी मस्जिद स्थित है। जिसकी देखरेख रामवीर कश्यप पुत्र जामल करता है। बताया कि ब्रिटिश काल में गांव में मुस्लिम परिवार काफी संख्या में रहते थे।
समय बीतता चला गया और मुस्लिम परिवार एक-एक करके गांव से पलायन करते चले गए। मुस्लिम विहीन हो जाने के बाद मस्जिद वीरान हो गई। 1995 से वह मस्जिद की देखरेख में जुट गए। 2013 में जब सांप्रदायिक दंगा हुआ।
बराबर में स्थित गांव बसेड़ा में एक हिंदू ग्रामीण दंगे का शिकार हो गया था। जिसके बाद रात में बसेड़ा गांव के लोग मस्जिद को तोड़ने के लिए निकल पड़े हैं। इसी आशंका को लेकर नंहेड़ा के हिंदू परिवारों ने रातों का जागकर मस्जिद के चारों ओर पहरा लगाकर सुरक्षा की।