साहित्य

हे भगवान…*मां भी बूढ़ी होती है*………By-लक्ष्मी कुमावत

Laxmi Kumawat

Lives in Jaipur, Rajasthan
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* मां भी बूढ़ी होती है*
” हे भगवान! मैं क्या दिन भर यही काम करने के लिए हूँ। सबके पास अपने काम है बस मैं ही अकेली फ्री हूं इस घर में “
सुलक्षणा जोर जोर से चिल्ला रही थी। उसकी आवाज सुनकर उसका पति मोहन कमरे के बाहर आया,
” क्या हो गया? तुम ऐसे क्यों चिल्ला रही हो?”

” संभालो अपनी मां को। फिर से सारा सामान बिखेर दिया। जब कोई काम होता ही नहीं है तो करती ही क्यों हैं?”

” सुलक्षणा क्या कह रही हो तुम? माँ बूढ़ी हो गई हैं। उनसे अब इतना काम नहीं होता है। हाथ काँपते हैं तो सामान बिखर जाता है”

” तो ना ही करें काम। हमने कब कहा काम करने के लिए। खामखाँ मेरा काम तो बढ़ जाता है ना”

” ठीक है, तुम चुप हो जाओ। मैं मां को समझाता हूं”

” क्या समझाते हो? एक तो सूरज और सुमित्रा ने वैसे ही दिमाग खराब कर रखा है ऊपर से मां। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता”

” तुम बस शांति बनाए रखो। नहीं तो बीमार पड़ जाओगी। बाकी मैं देखता हूं”

कहकर मोहन माँ के कमरे में चला गया। देखा तो मां कमरे की खिड़की के पास बैठी हुई खिड़की में से बाहर झांक रही थीं और खुश हो रही थीं। कभी ताली बजाती तो कभी उदास हो जातीं। मोहन ने खिड़की के पास जाकर देखा तो कुछ बच्चे बाहर खेल रहे थे। मां शायद उन्हीं को देख देख कर खुश हो रही थीं।

मोहन ने मां के सिर पर हाथ फेरा तो मां ने उसका हाथ पकड़ लिया और अपने पास ही बिठा लिया। दस मिनट तक दोनों मां-बेटे बस ऐसे ही बैठे रहे। फिर मोहन ने पूछा,

“मां खाना खाया?”
मां मोहन की तरफ एकटक देखने लगी। शायद उनकी आंखों में यह सवाल था कि बेटा तूने आज तक तो पूछा नहीं। भला आज कैसे? मोहन मां के इस सवाल को समझ चुका था। मन ही मन ग्लानि करते हुए मोहन ने दोबारा पूछा,

” मां तुमने खाना खाया?”
माँ ने नहीं में सिर हिला दिया। मोहन में सुलक्षणा को आवाज देकर मां के लिए खाना मंगाया। सुलक्षणा एक थाली में मां के लिए खाना डाल कर ले आई। माँ थाली लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाने लगी तो मोहन ने थाली अपने हाथ में ले ली,
” आज मैं अपनी मां को खाना खुद खिलाऊंगा, जैसे मां मुझे बचपन में खिलाती थीं”

मां अभी भी एकटक मोहन को देखे जा रही थीं पर कुछ कहा नहीं। मोहन ने रोटी का ग्रास मां के मुंह में डाला। रोटी खाते खाते मां की आंखों में आंसू आ गए,

” क्या हुआ मां, खाने में मिर्ची तेज है क्या?”

माँ ने नहीं में सिर हिला दिया।

” तो फिर?”

मां ने कुछ नहीं कहा। बस मोहन को गौर से देख रही थी,

” जानता हूं। बहुत इंतजार करवाया है, पर अब नहीं। अब हर रोज थोड़ी देर ही सही, मैं अपनी मां के साथ कुछ वक्त जरूर बिताऊंगा”

मां मुस्कुरा दी। मोहन ने खाना खिलाया और मां को लेटा कर अपने कमरे में आ गया जहां सुलक्षणा पहले से ही बैठी हुई थी।
” मां सो गई?”

” नहीं, बस अभी लेटा कर आया हूं। सो जाएगी। पता है, वह मुझे पहचान नहीं पा रही है, पर फिर भी आज मां के चेहरे पर सुकून था”

” क्यों नहीं होगा? एक मां तो अपने बच्चे के इर्द-गिर्द ही अपनी पूरी दुनिया बसा लेती है। जब वह दुनिया उसे छोड़कर जाती है ना, तो ऐसा लगता है कि सब कुछ छूट गया है। बस जान निकलना बाकी रहती है। और जब वह दुनिया उसके पास लौट कर आती है तो उसके मृत प्राय शरीर के अंदर जैसे किसी ने जान फूंक दी हो। वह वापस जिंदा हो जाती है”

कहते कहते सुलक्षणा की आंखों में आंसू आ गए,

” तुम सूरज को याद कर रही है”

” मां हूं। अब जाकर एहसास हुआ कि मैंने अपनी सास से क्या-क्या छीना था, जब मेरा बेटा मेरी बहु छिनकर ले गई। सच, हमारे कर्म वापस लौटकर आ रहे हैं”

” भगवान के लिए अब तुम रोओ मत। जब समझना चाहिए था तब हम लोग समझे नहीं। आज जब बेटा बहू घर से गए, तब जाकर समझ में आ रहा है कि हम कितने गलत थे। गलती तुम्हारी अकेली की कहाँ थी, मैं तो बेटा होकर भी नहीं समझ पाया। जो अपनी बीमार और बूढ़ी मां को वृद्धाश्रम छोड़ कर आ गया”

मोहन को याद हो आया वह दिन, जब अपनी बूढ़ी मां को वृद्ध आश्रम छोड़ कर आया था। कारण सिर्फ इतना सा था कि मां अब बूढ़ी हो चुकी थीं। पिताजी के जाने के बाद उनसे अब ना पहले जितना काम होता था और ना ही घर की देखभाल।

इसलिए अपने बेटे बहु को वह बोझ लगने लगी थीं। इस कारण घर में आए दिन कलह होती रहती थी। तंग आकर आखिरकार मोहन मां को वृद्धाश्रम छोड़ ही आया। मां ने कितना रोई थी,

” मुझे अकेला छोड़कर मत जा। तेरे अलावा मेरा इस दुनिया में है ही कौन? भगवान के लिए अपनी मां पर तरस खा”
पर मोहन अपनी रोती बिलखती मां को अकेला छोड़ ही गया। बस यह सदमा मां के दिल पर बैठ गया था। अब वृद्धाश्रम से फोन आते थे,

“आपकी मां की तबीयत ठीक नहीं है। आपसे मिलना चाहती हैं”
पर मोहन और सुलक्षणा कोई ना कोई बहाना बनाकर टाल देते। एक दो बार वृद्धाश्रम वालों ने फोन किया कि आपकी मां की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। लेकिन जब मोहन और सुलक्षणा में मिलने की भी जहमत ना उठाई, तो आखिरकार उन लोगों ने फोन करना बंद कर दिया। और इधर मोहन और सुलक्ष्णा ने तो माँ का अस्तित्व ही भुला दिया।

लेकिन समय का पहिया तो चलता ही रहता है, आज आप जवान है तो कल आप भी बूढ़े होंगे ही। आखिर इतने सालों बाद खुद की बेटे बहू ने सिर्फ इसलिए अपनी अलग दुनिया बसा ली कि हमसे बूढ़े लोगों की सेवा नहीं होती। तब जाकर एहसास हुआ कि उन्होंने मां के साथ कितना गलत किया था।

जब दिल नहीं माना तो आखिर एक दिन मां को ढूंढते हुए वृद्धाश्रम पहुंच ही गए। जाकर देखा तो मां अब सिर्फ हड्डियों का पंजर रह गई थी। ना कोई होश था और ना ही कोई जिंदा रहने की ललक। हाथ पैर पहले से भी ज्यादा काँपने लगे थे। किसी से कुछ कहती नहीं, चुपचाप सी रहती है। जैसे तैसे मां को लेकर घर आए।

मां को लाए हुए भी एक महीने से ऊपर हो चुके थे पर अब भी वह मोहन को पहचानती ना थी। बस एक चीज थी, मां सबसे ज्यादा खुश होती थी जब आसपास के छोटे बच्चों को खेलते हुए देखती थी।

अचानक गिलास गिरने की आवाज से मोहन की तंद्रा टूटी। सुलक्षणा और मोहन दोनों उठकर मां के कमरे में गए। देखा तो गिलास गिरा पड़ा है और पानी फैला हुआ है। माँ एक कपडा लेकर पानी साफ करने की कोशिश कर रही थीं,

” रहने दो मां, हम साफ कर लेंगे”

” मेरा मोहन… खेलते हुए ……फिसल जाएगा। बहुत…. मस्ती करता है “

मां बराबर बड़बड़ाएं जा रही थीं। देखकर मोहन की आंखों में आंसू आ गए। सुलोचना की भी निगाहें नीचे हो गईं।
माँ सब कुछ भूल चुकी थीं। बस नहीं भूली थीं तो यह कि वह मां हैं। मां होने का एहसास अभी तक जिन्दा है। सच है, मां बूढ़ी होती है, पर मां होने का एहसास कभी बूढ़ा नहीं होता।

मौलिक व स्वरचित
✍️लक्ष्मी कुमावत
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