https://www.youtube.com/watch?v=W4Le3338jMo&t=2s
भारत का बँटवारा धर्म के आधार पर हुआ था. पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र बना, वहीं भारत के नेताओं ने सेक्युलर रास्ता चुना, लेकिन आज़ादी के 75 वर्ष बाद सेक्युलर शब्द को एक तबक़ा अपशब्द की तरह इस्तेमाल करने लगा है क्योंकि उनके मुताबिक़ भारत एक ‘हिंदू राष्ट्र’ है.
पिछले कुछ समय में सत्ता से जुड़े ज़िम्मेदार लोगों और निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के ऐसे अनेक बयान टीवी चैनलों पर देखने को मिले जिन्हें कुछ साल पहले तक लोग निजी बातचीत में भी कहने से परहेज़ करते थे.
इन सभी बयानों में मुसलमानों के खान-पान, रहन-सहन और धार्मिक गतिविधियों पर टीका-टिप्पणी की गई थी.
इसमें दंगाइयों को कपड़े से पहचानने वाला बयान हो, गोली मारो *** को , हाइवे पर नमाज़ पढ़ने वालों का ज़िक्र हो या राशन पहले अब्बा-जान वाले ले जाते थे … ऐसे बयानों की लंबी लिस्ट है. इस तरह के बयानों की भरमार चुनाव के आसपास अधिक होती है लेकिन इनकी झड़ी पूरी तरह बंद कभी नहीं होती.
भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक दरार आज़ादी से पहले से रही है, लेकिन यह भी सच है कि आज़ादी की लड़ाई दोनों ने साथ मिलकर लड़ी थी.
इस दरार की ही वजह से समय-समय पर दंगों की शक्ल में दोनों समुदायों के बीच टकराव भी होते रहे हैं. ये भी सच है कि पिछले कुछ सालों में कानपुर-मुंबई (1992), मेरठ (1987), राँची (1967), भागलपुर (1989) और अहमदाबाद (2002) जैसे भीषण दंगे नहीं हुए हैं, 2020 के दिल्ली दंगों के अपवाद को छोड़कर.
लेकिन दोनों समुदायों के बीच की दरार पहले से अधिक गहरी होती दिख रही है जिसके पीछे रोज़-रोज़ उछाले जाने वाले ऐसे मुद्दे हैं जिनका सीधा संबंध देश के मुसलमानों से है. यहाँ हम उन्हीं मुद्दों पर नज़र डाल रहे हैं जो दरार को रोज़-ब-रोज़ गहरा करते जा रहे हैं
ऐसा नहीं है कि ये सारे बयान केवल राजनीतिक तबके़ से आ रहे हैं, समाज के हर हिस्से में, सोशल मीडिया पर, पार्टियों के प्रवक्ताओं से लेकर व्हाट्सऐप ग्रुप के रिश्तेदारों के बीच हिंदू-मुसलमान तकरार से जुड़े मुद्दों पर बहस और कड़वाहट फैल रही है.
कभी धर्म-संसद के नाम पर, तो कभी भड़काऊ भाषण देकर, कभी माँस की दुकानों को लेकर, कभी पार्क- मॉल में नमाज़ पढ़ने को लेकर, तो कभी हिजाब पहनने पर हंगामा खड़ा करके, तो कभी लाउडस्पीकर से अज़ान को मुद्दा बनाकर यह सिलसिला किसी-न-किसी रूप में चलता रहा है.
हंगामा-दर-हंगामा. ये जो सिलसिला चल रहा है, इसमें अगर दो पक्ष हैं तो एक पक्ष वो तबक़ा है जो भारत को हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखता है, और दूसरी ओर देश के मुसलमान नागरिक हैं.
यूपी चुनाव से पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस बयान को याद करिए जिसमें उन्होंने 80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत की लड़ाई की बात कही थी.
हालांकि उन्होंने बाद में सफ़ाई दी थी कि 80 और 20 से उनका मतलब हिंदू और मुसलमान से नहीं था, बल्कि देशभक्त और देशविरोधी ताक़तों की ओर उनका इशारा था.
कश्मीर और सावरकर पर चर्चित किताबें लिख चुके अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “चुन-चुनकर ऐसे मुद्दों को उछाला गया है जिनका मक़सद 80 प्रतिशत हिंदुओं को ताक़तवर होने का एहसास दिलाना और 20 प्रतिशत मुसलमानों में अलगाव या परायेपन का भाव भरना है.”
https://www.youtube.com/watch?v=m7NL4M20G6I
‘हिंदू राष्ट्र’
हिंदू धर्म को राजनीति के केंद्र में लाने की कोशिश के तहत विनायक दामोदर सावरकर ने हिंदुत्व शब्द पर ज़ोर दिया था, उससे पहले हिंदुत्व शब्द का ऐसा इस्तेमाल कभी नहीं हुआ था. पहली बार 1923 में छपी उनकी किताब ‘एसेंशियल्स ऑफ़ हिंदुत्वा’ में द्विराष्ट्रवाद की दलील सामने रखी गई, उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि हिंदू और मुसलमान बुनियादी तौर पर एक दूसरे से अलग हैं.
सावरकर का कहना था कि भारत हिंदुओं की पितृभूमि और पुण्यभूमि है जबकि मुसलमानों और ईसाइयों की पुण्यभूमि भारत नहीं है क्योंकि उनके तीर्थ भारत से बाहर हैं इसलिए देश के प्रति उनकी श्रद्धा विभाजित है. कई लोग ये भी मानते हैं कि हिंदुत्व शब्द को सावरकर ने नहीं गढ़ा था लेकिन उन्होंने इसकी विस्तार से और नई व्याख्या की.
कई इतिहासकार मानते हैं कि आरएसएस का ‘हिंदू राष्ट्र’ और सावरकर का ‘हिंदू राष्ट्र’ एक नहीं है.
‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना के पीछे आरएसएस की सोच क्या है, इसका विस्तृत वर्णन आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार की जीवनी में मिलता है. 1925 में विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना नागपुर में हुई थी लेकिन इस अवधारणा पर काम पहले ही शुरू हो गया था.
1925 के तीन-चार साल पहले से ही नागपुर के वातावरण में हिंदू-मुसलमान फ़साद आम थे. आरएसएस की वेबसाइट पर मौजूद ‘नागपुर दंगे की कहानी’ में इस बात का ज़िक्र मिलता है. उसमें लिखा है :
“1924 से नागपुर में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार होने के कारण उनका पारा चढ़ा हुआ था. उनके दुराग्रह की चिंता न करते हुए सतरंजीपुरा, हंसापुरी और जुम्मा मस्जिदों के सामने हिंदुओं की शोभायात्राएँ बाजे-गाजे के साथ निकलती रहती थीं.”
भारत में आज जब हनुमान जयंती, रामनवमी पर शोभायात्राओं में हिंसा की ख़बरें सामने आ रही हैं, तो शायद बहुत से लोगों को मालूम नहीं होगा कि ऐसी शोभायात्राओं की परंपरा पिछली सदी से चली आ रही है. पहले भी ये शोभायात्राएँ मस्जिदों के इलाक़े से निकाली जाती रही हैं. इनमें लोग लाठी-डंडे उस समय से ही ले जाते रहे हैं.
उसी आर्काइव में आगे लिखा है, “इस वजह से मुसलमानों ने हिन्दुओं को नाना प्रकार से सताने का प्रयत्न शुरू कर दिया. अकेला-दुकेला हिन्दू मिल गया तो उसे पकड़कर पीटते थे तथा हिन्दू मोहल्लों से लड़कियों को भगाकर ले जाते थे.”
https://www.youtube.com/watch?v=ABrTHrJqz4s
ऐसे ही दो मुसलमानों के डर से भागने वाले एक हिंदू को रोककर डॉक्टर हेडगेवार ने पूछा:
“क्यों भाग रहा है?”
उसने हाँफते हुए उत्तर दिया, “दो मुसलमान मारने को आ गए. अकेला था. क्या करता? भागकर जान बचाई.”
इस तरह की घटनाओं को बताते समय डॉ. हेडगेवार कहते थे कि हिंदुओं के मन से हीन भाव और भय को निकाला जाए. उनका कहना था कि आत्मगौरव और आत्मविश्वास भरकर हीनता दूर करनी होगी, हिंदुओं के मन में ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम पैंतीस करोड़’ का राष्ट्रीय अस्मिता वाला भाव उत्पन्न करना चाहिए.
संक्षेप में कहें तो हिंदुओं के अंदर की इस तथाकथित हीन-भावना को ख़त्म कर ‘गर्व’ के भाव को भरने की पूरी कहानी का नाम ही मिशन ‘हिंदू राष्ट्र’ है जिसका उद्देश्य हिंदुओं को मुसलमानों के मुकाबले अधिक ताक़तवर महसूस कराना है.
https://www.youtube.com/watch?v=XUY5DTRQCpA
मुसलमानों में ‘डर’
आज भारत में हिंदुओं की आबादी 95 करोड़ से अधिक है लेकिन आज भी हिंदुओं को कई तरीकों से असुरक्षा का एहसास दिलाया जा रहा है. मसलन, उन्हें बताया जा रहा है कि मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो जाएगी, या फिर ये कि हिंदुओं की बहनों और बेटियों को कथित ‘लव जिहादियों’ से ख़तरा है.
पिछले कुछ सालों से भारत के मुसलमान भी डर की बात करने लगे हैं.
इसी डर का ज़िक्र कर्नाटक में हिजाब विवाद से चर्चा में आई मुस्कान ने बीबीसी से बातचीत में किया था. मुस्कान ने तब कहा, “मैं हिजाब में कॉलेज गई तो मुझे हिजाब हटाने के लिए कहा गया. मुझे डरा रहे थे वो लोग. मुझसे पहले चार लड़कियों को तो लॉक ही कर दिया था. मैं जब डरती हूँ तो अल्लाह का नाम लेती हूँ.”
ऐसा ही डर दिल्ली के जहांगीरपुरी के मुसलमानों में भी दिखा. जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के दिन निकली शोभायात्रा में हिंसा के बाद से एक घर पर ताला लटका हुआ था. घर में रहने वाले मुस्लिम व्यक्ति का पिछले दो तीन-महीने से अता-पता नहीं है.
जब बीबीसी के रिपोर्टर ने पूछा तो पड़ोसियों ने बताया, ”यहाँ ‘वो’ किराए पर रहता था. चिकन सूप की रेहड़ी लगाता था लेकिन डर से भाग गया.”
मध्य प्रदेश के खरगोन में रामनवमी के जुलूस के दौरान जो हिंसा हुई उसके बाद कई लोगों के घरों और दुकानों को बुलडोज़र से रौंद दिया गया. खरगोन की खसखस वाड़ी की जिस हसीना फ़ख़रू के मकान को तोड़ा गया, वो घर उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिला था. डर और ग़ुस्से में वो कहती हैं, “प्रशासन ने घर ही क्यों तोड़ा, हमें मार ही दिया होता.”
इसी ‘डर का इज़हार’ नवरात्रों में मीट की दुकानें बंद करवाने पर व्यापारियों ने किया, इसी डर का इज़हार ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग मिलने के दावे के बाद, जुमे की नमाज़ पढ़ने जाने वालों ने बनारस में भी किया.
नूपुर शर्मा के पैगंबर मोहम्मद पर दिए बयान के बाद जब भारत के अलग-अलग शहरों में विवाद बढ़ा और कई शहरों में जुमे की नमाज़ के बाद 11 जून को हिंसा हुई, तो उसके बाद उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भी लोगों के घर अगले दिन बुलडोज़र से तोड़े गए.
प्रयागराज की हिंसा में जिन जावेद को मास्टरमाइंड बताया गया, उनका घर भी बुलडोज़र से ढहा दिया गया. जावेद नाम के उस शख़्स की बेटी और बीवी ने भी इसी ‘डर’ का ज़िक्र किया.
https://www.youtube.com/watch?v=phNc_HMso_s
इन तमाम नामों पर ग़ौर करें तो कुछ बातें कॉमन हैं – ये सब ‘डरे’ हुए लोग मुसलमान हैं. डर का ये माहौल ज़्यादातर मामलों में बीजेपी शासित राज्यों में है.
वैसे ये भी सच है कि राजस्थान, पश्चिम बंगाल, झारखंड जैसे ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों में भी डर के माहौल की बात कही जा रही है.
एक और सच्चाई ये भी है कि केवल मुसलमानों के घर ही बुलडोज़ नहीं किए गए. कई हिंदुओं के घरों और दुकानों को भी निशाना बनाया गया है.
लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “हिंदू राष्ट्र की पूरी धारणा ही ‘मुसलमानों से नफ़रत’ पर टिकी है. हमेशा से संघ ने अपने दो दुश्मन बताए हैं – एक मुसलमान और दूसरा कम्युनिस्ट. कम्युनिस्ट तो इस हाल में हैं नहीं कि बहुत कुछ कर सकें. मुसलमान सबसे आसान निशाना नज़र आते हैं.”
अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, “इस डर की वजह से एक तरफ़ मुसलमान समुदाय एकजुट होता है और दूसरी तरफ़ हिंदू एकता की भी बात होती है जो दरअसल वोट बैंक है, यही ध्रुवीकरण है जिसका चुनावी फ़ायदा उठाया जाता है. जनता को जनता से लड़ा दिया गया है. ये हिंदुओं के उस तबक़े को ख़ुश करता है जिनके भीतर प्रतिशोध की भावना भरी गई है.”
अशोक कुमार पांडेय के वोट बैंक वाले तर्क का भी विश्लेषण करेंगे, लेकिन पहले एक नज़र डर के कुछ प्रतीकों पर.
https://www.youtube.com/watch?v=tzkwcAqXhGw
हिंदू होने का मुखर सार्वजनिक प्रदर्शन
मुसलमानों के डर के अलावा इन घटनाओं को देखने का एक दूसरा नज़रिया भी है, वो है हिंदू होने का गर्व.
आज भारत के हिंदुओं का एक तबक़ा अपने हिंदू होने का सार्वजनिक प्रदर्शन मुखर होकर कर रहा है, लेकिन यह नया नहीं है, 1990 के दशक के शुरू में विश्व हिंदू परिषद ने नारा दिया था—‘गर्व से कहो, हम हिंदू हैं’.
चाहे धर्म-संसद का आयोजन हो या फिर तमाम त्योहारों पर शोभायात्राएँ निकालना या फिर खान-पान पर बवाल या हिजाब पर सवाल, इतिहास को बदलना या फिर मंदिर-मस्जिद विवाद- ये लिस्ट लंबी है.
क्या ये सब ‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना की वजह से हो रहा है?
विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, “हिंदू राष्ट्र की हमारी अवधारणा सांस्कृतिक है, न कि किसी राज्य की है. वीएचपी ये नहीं चाहती कि भारत, हिंदू धर्म का राज्य हो जाए या फिर भारत में मुसलमान या ईसाई के नागरिक अधिकार कम हो जाएँ. भारत की परंपरा, भारत का चिंतन, भारत का इतिहास – इन सब से जो विशिष्टता पैदा हुई है वो हिंदू है. ये सर्वसमावेशी है, ये किसी को छोड़ता नहीं है, अलग नहीं करता है. इस संदर्भ में भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ है, था और रहेगा.”
आलोक कुमार के इस बयान को उडुपी में हिजाब पहनने वाली मुस्कान, खरगोन की हसीना फ़ख़रू, जहाँगीरपुरी की साहिबा या प्रयागराज के जावेद की बेटी के डर वाले बयान के साथ जोड़ कर देखें तो सवाल उठता है कि इस ‘समावेशी’ हिंदू राष्ट्र के विचार में उनकी जगह कहाँ है?
पिछले एक साल की ख़बरों की टाइमलाइन एक ख़ास तरह के विवादों से भरी नज़र आती है.
पिछले तक़रीबन एक साल से हर महीने भारत के एक-न-एक शहर से ऐसी ख़बरें आती रही हैं, इन सभी घटनाओं का परिणाम एक ही है, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव का बढ़ना.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा ग़ैर-सरकारी संगठन है, वीएचपी उसका अनुषांगिक संगठन है और भारत की मौजूदा सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी समेत कई मंत्री आरएसएस से जुड़े रहे हैं.
इस वजह से इन दोनों संगठनों की सांस्कृतिक महत्वाकांक्षा को राजनीतिक रूप में आगे बढ़ाने का आरोप बीजेपी सरकार पर लगता रहा है.
माना जाता है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘हिंदू अस्मिता’ से जोड़कर देश में जो कुछ हो रहा है उसको सरकार और संघ दोनों का संरक्षण प्राप्त है.
आलोक कुमार बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, “भारत की वर्तमान सरकार के मन में हिंदुत्व के प्रति प्रेम है.”
वही हिंदुत्व जिसे ओवैसी और राहुल गांधी जैसे नेता ‘मुसलमानों पर बढ़ रहे अत्याचार’ के पीछे का मूल कारण बताते हैं, इसलिए सवाल उठता है कि वीएचपी और आरएसएस के ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा में मुसलमान की जगह क्या है?
इस पर आलोक कुमार कहते हैं, “मुसलमान और ईसाई जहाँ-जहाँ गए हैं, वो वहाँ-वहाँ की ज़मीन के स्वभाव के हिसाब से कुछ-न-कुछ परिवर्तन और सुधार करते हैं. जैसे हर जगह की ईसाइयत एक-सी नहीं होती इसलिए हम मानते हैं कि भारत में भी दोनों धर्म के मानने वालों को ऐसा करना होगा.”
वे कहते हैं, “सब विचारों की स्वीकृति और किसी पर कोई विचार थोपना नहीं, इस ‘संशोधन’ के साथ मुसलमानों और ईसाइयों का भारत में नागरिक के तौर पर बराबरी का हक़ है. ऐसा भारत के संविधान में भी है, हमारे मन में भी है और हमारी सहमति से है.”
इस ‘संशोधन’ को हासिल करने का तरीक़ा क्या धर्म-संसद, भड़काऊ भाषण या रोज़ होने वाले हंगामे हैं?
एक-एक कर बीते एक साल की कुछ घटनाओं पर नज़र डालते हैं.
https://www.youtube.com/shorts/yC6gWKQ7MVE
धर्म संसद
पिछले साल दिसंबर में हरिद्वार में एक धर्म संसद का आयोजन किया गया जिसमें मुसलमानों के बारे में काफ़ी भड़काऊ भाषण दिए गए.
हरिद्वार के बाद इस साल दिल्ली, रायपुर और रुड़की में हुई ऐसे ही धर्म संसदों में दूसरे धर्मों के ख़िलाफ़ ज़हरीली बातें कही गईं.
हरिद्वार धर्म संसद के वीडियो में नेता धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने, किसी मुसलमान को प्रधानमंत्री न बनने देने, मुस्लिम आबादी न बढ़ने देने समेत धर्म की रक्षा के नाम पर अनेक आपत्तिजनक बातें कहते हुए देखे-सुने गए.
हरिद्वार धर्म संसद के स्थानीय आयोजक और परशुराम अखाड़े के अध्यक्ष पंडित अधीर कौशिक ने कहा था:
“पिछले सात वर्षों से धर्म संसद का आयोजन किया जा रहा है. इससे पहले दिल्ली, ग़ाज़ियाबाद में भी धर्म संसद का आयोजन हो चुका है जिसका उद्देश्य ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की तैयारी करना है. इसके लिए शस्त्र उठाने की ज़रूरत पड़ी, तो वो भी उठाएंगे.”
भले ही इन विवादित धर्म संसदों का आयोजन विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने न किया हो, लेकिन भारत में धर्म-संसद शुरू करने का श्रेय वीएचपी को ही जाता है.
वीएचपी का कहना है कि उसका उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना, हिंदू धर्म की रक्षा करना और समाज की सेवा करना है.
पहली धर्म संसद के बारे में निलांजन मुखोपाध्याय की किताब, ‘डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट’ में लिखा है- “धर्म संसद के इतिहास को खंगालें तो साल 1981 में इस तरह का पहला उल्लेख मिलता है.”
1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में 200 दलित परिवारों ने फरवरी के महीने में सामूहिक रूप से इस्लाम धर्म को क़बूल कर लिया था. इस साल विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने एक केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की स्थापना की, जिसमें हिंदू धर्म के 39 धर्मगुरु शामिल थे. आगे चलकर वीएचपी ने इस मंडल का विस्तार किया, जिसकी पहली सभा दो साल बाद हुई और उसे ‘धर्म-संसद’ का नाम दिया गया.
निलांजन मुखोपाध्याय लिखते हैं, “नाम में संसद शब्द का इस्तेमाल बहुत सोच-समझ कर भारतीय संसद की तर्ज पर किया गया था. इस तरह की संसद का मक़सद हिंदू समाज को धार्मिक नेतृत्व देना था.”
https://www.youtube.com/watch?v=ZGUgTluGjCs
साल 1983 में वीएचपी ने अयोध्या आंदोलन की बागडोर एक तरह से अपने हाथ में थाम ली थी. 1984 आते-आते केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल के सदस्यों की संख्या 200 के क़रीब पहुँच गई थी. अप्रैल के महीने में दिल्ली के विज्ञान भवन में उनकी पहली बैठक आयोजित की गई. यह धर्म-संसद ऐतिहासिक थी. इसी धर्म संसद में राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत करने का फ़ैसला किया गया था.
इसके बाद दूसरी धर्म संसद का आयोजन 31 अक्टूबर से 1 नवंबर 1985 तक उडुपी में किया गया था. इस बार प्रस्तावों में एक मांग यह भी थी कि राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मस्थान और काशी विश्वनाथ परिसर को तत्काल हिंदू समाज को सौंप दिया जाए.
वीएचपी ने 2007 तक 11 धर्म संसद आयोजित किए. उसके बाद से इन धर्म संसदों में भड़काऊ भाषणों का सिलसिला थोड़ा रूक गया.
फिर धर्म संसद का शोर फरवरी 2019 में ही सुनाई दिया, जब वीएचपी का अब तक का अंतिम धर्म संसद आयोजित किया गया. इसमें आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी गए थे और राम मंदिर बनाने की बात कही थी.
2019 में ही अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आ गया था. मंदिर निर्माण का रास्ता खुल गया.
बीच में धर्म संसदों का शोर कम होने और दोबारा से तेज़ होने पर आलोक कुमार कहते हैं, “जब कोई महत्वपूर्ण विषय समाज के सामने होता है तो हम धर्म संसद बुलाते हैं. नहीं तो मार्गदर्शक मंडल साल में दो बार मिलता है और अहम फ़ैसले करता है.”
https://www.youtube.com/shorts/mbVuRJQr3ts
शोभायात्रा
कई बार धर्म संसद से इतर, दूसरे धार्मिक आयोजनों में मामले अक्सर उलझ जाया करते हैं. जैसा इस साल अप्रैल में भारत के कई इलाक़ों में रामनवमी, हनुमान जयंती पर शोभायात्राओं में देखा गया और राजस्थान में ईद के मौक़े पर.
भारत में कुछ विपक्षी पार्टियों के नेताओं को रामनवमी और हनुमान जयंती के मौक़े पर शोभायात्रा के दौरान हुई हिंसा में मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक साज़िश दिखती है, वहीं वीएचपी को इसमें हिंदुओं के ख़िलाफ़ मुसलमानों का षड्यंत्र नज़र आता है.
वीएचपी के आलोक कुमार कहते हैं, “रामनवमी के दौरान शोभायात्राओं पर देश के अनेक शहरों में एक ही तरह से हमले किए गए. इसको मैं एक पैटर्न मानता हूँ क्योंकि उनकी विधि और प्रकार एक थे. मस्जिदों में ईंटों के टुकड़े, पत्थर, बोतलें, हथियार इकट्ठा किए गए थे और वहाँ से निकलने वाले जूलुस पर वो चलाए गए. ये दुर्भाग्यपूर्ण था.”
दूसरी ओर, जहाँगीरपुरी में रहने वाले मुसलमान इन दावों को ग़लत बताते हैं, वे कहते हैं कि शोभायात्रा बार-बार घूमकर मस्जिद के सामने आ रही थी और भड़काऊ नारे लगाए जा रहे थे.
दिल्ली के जहाँगीरपुरी में हनुमान जयंती की शोभायात्रा का आयोजन वीएचपी ने ही किया था.
शोभायात्रा के इतिहास की बात करें तो 1920 के दशक में भी इसका उल्लेख मिलता है, जब नागपुर में मस्जिदों के सामने से गाजे-बाजे के साथ ऐसी यात्राएँ निकलती थीं. उस दौरान भी शोभायात्रा में लाठी-डंडा साथ लेकर चलने का चलन था.आज इनमें तलवारें भी शामिल हो गई हैं.
शोभायात्राओं में हिंसा के चलन को धर्म से जुड़े कई जानकार नया ट्रेंड मानते हैं. हिंदुत्ववादी संगठन कहते हैं कि उन्होंने जो कुछ किया है वह आत्मरक्षा में किया है, उन्होंने हमला नहीं किया बल्कि उन पर हमला हुआ.
https://www.youtube.com/watch?v=oQkxeaMIQ0A&t=6s
अज़ान, लाउडस्पीकर और हनुमान चालीसा
बनारस स्थित संकटमोचन मंदिर के महंत डॉक्टर विशम्भर नाथ मिश्र कहते हैं,”शोभायात्रा का जो मौजूदा स्वरूप है वो बिल्कुल नया है. इस तरह की शोभायात्राओं का चलन इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि मौजूदा समय में हर व्यक्ति ख़ुद को धार्मिक दिखाने की होड़ में है. अगर आप वाक़ई धार्मिक हैं और उपासक हैं तो आपको शोर मचाकर ईश्वर की उपासना करने की ज़रूरत नहीं है. भगवान और भक्त का संवाद बेहद निजी चीज़ है. ये दिखावे की चीज़ नहीं है.”
ऐसा नहीं कि ये ‘दिखावा’ केवल हिंदुओं में ही हो रहा है. ईद के मौक़े पर भी ऐसा चलन बढ़ रहा है.
ईद के मौक़े पर कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान के करौली में भी हिंसा हुई. राजस्थान का जोधपुर शहर हमेशा से शांतिपूर्ण माना जाता रहा है. 1992 में जब देश के तमाम क्षेत्रों में सांप्रदायिक हिंसा फैल गई थी तब भी जोधपुर में कोई अप्रिय घटना नहीं हुई, लेकिन इस बार ईद के मौक़े पर मूर्ति और झंडे की सजावट से शुरू हुआ विवाद सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया, बात कर्फ़्यू तक पहुँच गई.
बनारस में ही श्रीकाशी ज्ञानवापी मुक्ति आंदोलन ने घोषणा की कि वे हर बार ठीक अज़ान के वक़्त लाउडस्पीकर पर दिन में पाँच बार हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे.
ईद से पहले महाराष्ट्र में भी विवाद चल रहा था. वहाँ लाउडस्पीकर से आने वाली अज़ान की आवाज़ को लेकर विवाद शुरू हुआ. उसी समय उत्तर प्रदेश में लाउडस्पीकरों पर हो रही कार्रवाई से उत्साहित होकर महाराष्ट्र में भी मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतारने की ज़िद की गई.
अज़ान लाउडस्पीकर का विवाद हनुमान चालीसा तक पहुँचा, जहाँ महाराष्ट्र की एक सांसद को जेल तक जाना पड़ा.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक निलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “अगर इन सब तरीक़ों और प्रतीकों का सही तर्कसंगत विश्लेषण किया जाए तो पाएँगे कि इन सबकी शुरुआत राम जन्मभूमि आंदोलन से होती है. इन सब की जड़ में एक ही दावा है कि मुसलमान भारत को अपना मुल्क नहीं मानते हैं. ये उनका मुल्क नहीं है. अगर उनको भारत में रहना है तो हिंदू की तरह बनकर रहना होगा.”
राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत से अंत तक, इसका नेतृत्व आरएसएस और वीएचपी ने किया है और इस बात पर दोनों संगठन आज भी गर्व करते हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=hKntBIV-Myo
बुलडोज़र
बीबीसी से बातचीत में नीलांजन इन प्रतीकों और उनके ज़रिए दिए जाने वाले संदेशों के बारे में भी बात करते हैं.
वो कहते हैं, “नए-नए प्रतीक गढ़े जा रहे हैं जो हिंदुओं के एक तबक़े को पसंद आ रहे हैं. उनसे कहा जा रहा है कि मुसलमान उनके ख़िलाफ़ हैं. इन प्रतीकों में गाय है, वंदे मारतरम् है, मंदिर है, लाउडस्पीकर और हनुमान चालीसा है.
इसी तरह, बुलडोज़र आज की तारीख़ में शक्तिशाली शासन व्यवस्था का पर्याय बन गया है, संदेश दिया जा रहा है कि अब हमारी सत्ता है. सत्ता की ताक़त के इस्तेमाल के लिए किसी क़ानून के सहारे की ज़रूरत नहीं है.” बुलडोज़रों के इस्तेमाल का मामला सुप्रीम कोर्ट में है.
भारत की राजनीति में जिस बुलडोज़र की चर्चा ज़ोर-शोर से हो रही है, उसका इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि हथियार के तौर पर बुलडोज़र का इस्तेमाल दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी हुआ था.
अमेरिकी सेना के अधिकारी कर्नल केएस एंडरसन ने ‘बुलडोज़र – एन एप्रिसिएशन’ शीर्षक से एक निबंध लिखा है. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इसके इस्तेमाल का ज़िक्र करते हुए उन्होंने लिखा, “युद्ध के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम हथियारों में इसे सबसे आगे खड़ा पाते हैं.”
‘आउटलुक’ पत्रिका में वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने हाल में भारत में बुलडोज़र के इस्तेमाल पर एक लेख लिखा है. लेख में दावा किया गया है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिन 58 रैलियों में बुलडोज़र शब्द का इस्तेमाल किया, पार्टी ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज की.
चुनिंदा लोगों के घरों और दुकानों को बुलडोज़र से ढहाने के सरकारी आदेश को लेकर हिंदुओं के एक तबक़े में उत्साह साफ़ देखा जा सकता है, चुनाव में जीत के बाद कई लोग विजय जुलूस में खिलौना बुलडोज़र लेकर नाचते दिखे, और योगी आदित्यनाथ को ‘बुलडोज़र बाबा’ कहकर पुकारा गया.
https://www.youtube.com/watch?v=S6bXxZUUOvo