सेहत

हमारे ज़माने में भी बहुत लोग चश्मा लगाते थे, पर पिछले कुछ सालों में….

विजय सिंह ठकुराय
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बचपन से ही हम लोग सुनते आ रहे हैं कि मोबाइल-टीवी को ज्यादा करीब से ज्यादा देर तक मत देखो, नहीं तो आँखें कमजोर हो जायेंगी, चश्मा चढ़ जाएगा। हमारे जमाने में भी बहुत लोग चश्मा लगाते थे, पर पिछले कुछ सालों में छोटे बच्चों का दिन भर मोबाइल फोन में लगे रहना एक आम बात हो गयी है। आश्चर्यजनक तौर पर, पूरे विश्व में चश्माधारी बच्चों की संख्या में भी इन दिनों अभूतपूर्व बढ़ावा हो रहा है। दृष्टिदोष और मोबाइल में कनेक्शन ढूँढने के लिए इन दिनों मैंने बीसियों शोधपत्र पढ़ मारे और आपको जान के आश्चर्य होगा कि एक ऐसी चीज थी, जिसके दृष्टिदोष से संबंध का जिक्र मुझे हर शोधपत्र में मिला।
और वो चीज थी – सूर्य का प्रकाश!!
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तो होता कुछ यूँ है कि जन्म के समय हमारी आँखे थोड़ी चपटी होती हैं, और आँख की लेफ्ट से राईट चौड़ाई लगभग 16 मिलीमीटर होती है। इस कारण नवजात शिशु 8-10 इंच दूर स्थित चीजों को ही साफ़-साफ़ देख पाने में सक्षम होते हैं। 6-7 वर्ष आयु होते-होते आँखों की चौड़ाई (व्यास) लगभग 23 या 23.5 मिलीमीटर तक आ कर स्थिर हो जाती है, जो कि क्लियर विज़न के लिए जरूरी है।
पर कुछ बच्चों में यह वृद्धि रूकती नहीं है और आँखों की चौड़ाई बढ कर 24 मिलीमीटर से भी आगे चली जाती है। ऐसे बच्चों को दूर की वस्तुएं साफ़ देखने में समस्या होने लगती है। इसी तरह अगर आँख की वृद्धि ठीक न हो और व्यास 23 मिलीमीटर से कम रह जाए, तो ऐसे बच्चों को पास की चीजें देखने में समस्या होती है।
कुछ बच्चों में आँख के कवच (स्क्लेरा) की वृद्धि एक दिशा में कम तो दूसरी दिशा में ज्यादा हो जाती है। इस कारण कोर्निया अथवा लेंस विकृत होकर रेटिना पर एक से अधिक प्रतिबिम्ब बनाने लगते हैं। ऐसे बच्चे पास या दूर मौजूद किसी भी वस्तु को ठीक से नहीं देख पाते।
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ऊपर तीनों उदाहरणों में ख़ास बात यह है कि ये तीनों दृष्टिदोष आँख की वृद्धि में किसी न किसी अनियमितता के कारण उत्पन्न होते हैं।
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तो होता कुछ यूँ है कि जन्म के बाद मस्तिष्क आँख को मेलीटोनिन, डोपेमिन-1to5 तथा अन्य कुछ न्यूरोट्रांसमीटर्स के जरिये यह बताता रहता है कि आँख की कब कैसे और कितनी वृद्धि करनी है। अब चूँकि इंसानों ने अपने इतिहास का 99% समय खुले आसमान के नीचे रहते हुए बिताया है, इसलिए अन्य सरकेडियन रिदम की तरह आँखों के केस में भी सूर्य का प्रकाश ही आँखों की वृद्धि को रेगुलेट करने में एक इनपुट बायोलॉजिकल क्लॉक की तरह कार्य करता है।
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लगभग हर शोध में यह पाया गया है कि जो बच्चे घर से बाहर सूर्य के प्रकाश में जितना कम वक़्त बिताते हैं, उनके आँखों की वृद्धि अनियंत्रित होने की आशंका उतनी ही ज्यादा होती है। दूसरे शब्दों में – कृत्रिम रोशनियों में ज्यादा समय व्यतीत करने के कारण हमारा मस्तिष्क भ्रमित हो जाता है और अंदाजा नहीं लगा पाता कि आँख की वृद्धि कब और कितनी करनी है। बहरहाल राहत की बात यह है कि 18 से 20 वर्ष की आयु तक आँखों की वृद्धि रुक चुकी होती है। इस आयु में पहुँचने के बाद लेजर द्वारा कोर्निया की शेपिंग के जरिये लगभग सभी दृष्टिदोषों से निजात पायी जा सकती है।
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यह सोचना भी बड़ा रोमांचक है कि प्रकृति में पाए जाने वाले अन्य जानवरों में कोई विकार हो तो Survive and Reproduce न कर पाने के चलते ऐसे विकारों से युक्त जानवरों को प्रकृति जीनपूल से हमेशा के लिए मिटा देती है। पर मनुष्यों के मामले में उल्टा हो रहा है। आज 50% से अधिक की युवा आबादी दृष्टिदोष से पीडित है। कई देशों में तो यह संख्या 90% तक पहुँच चुकी है। वजह सिर्फ यह है कि चूँकि इंसान अब जंगल में नहीं रहते और चश्मा लगा कर घूमने वालों को आज के युग में कोई विशेष समस्या से जूझना नहीं पड़ता है, इसलिए मनुष्यों में दृष्टिदोष के जींस से युक्त लोगों की संख्या कम होने की बजाय निरंतर बढती जा रही है। एक तरह से कहा जाए तो इस मामले में हमने प्रकृति के चक्र को ही उल्टी दिशा में घूमने के लिए मजबूर कर दिया है।
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बहरहाल, जो भी हो, दृष्टिदोष होना अच्छी बात नहीं है। पर अच्छी बात यह है कि इससे बचाव का तरीका बड़ा सीधा और सिंपल है।
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आज से अपने बच्चों को दिन में कम से कम 2-3 घंटे आउटडोर एक्टिविटीज के लिए प्रेरित करना शुरू करें।