Ataulla Pathan
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13 जनवरी यौमे वफात
स्वतंत्रता सेनानी मुहम्मद इक़बाल शैदाई__
*देश की स्वतंत्रता के लिये सालो साल देश के बाहर रहकर जो कुर्बानिया दी उसे हम सोच भी नही सकते?*
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1920 के शुरुआत में भारत की आज़ादी की ख़ातिर काबुल के रास्ते दुनिया के अलग अलग हिस्से में गए मुहम्मद इक़बाल शैदाई कभी भारत नही लौट पाए; जब भारत लौटे तो मुल्क का बँटवारा हो चुका था, सियालकोट पाकिस्तान के हिस्से में था। इस लिए पाकिस्तान पहुँच गए।
इन्होंने अपनी ज़िंदगी में कई बड़े कारनामे अंजाम दिये हैं, पर इनका सबसे बड़ा काम 1941 में इटली की मदद से आज़ाद हिंद बटालियन, हिमालया रेडियो और आज़ाद हिंद सरकार बनाना रहा है। ठीक यही काम सन 42 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जापान की मदद से की थी; जहां उन्हें साथ मिला था रास बिहारी बोस का, वहीं इक़बाल शैदाई को साथ मिला सरदार अजीत सिंह का।
1912 में लॉर्ड हार्डिंग पर बम से हमला करने का प्लान बना कर उसे अंजाम देने वाले रास बिहारी बोस 1915 में भारत की आज़ादी की ख़ातिर अपना घर त्याग जो निकले फिर फिर कभी वापस लौट कर नही आ सके, वहीं 19वीं सदी के शुरुआती दशक में ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ नामक किसान आंदोलन चला कर अंग्रेज़ों की नज़र में आए सरदार अजीत सिंह 1911 में भारत की आज़ादी की ख़ातिर फ़ारस के रास्ते दुनिया के अलग अलग हिस्सों में पहुँचे और वापस भारत सन 47 में आए और कराची के रास्ते दिल्ली पहुँचे और डलहौज़ी में 15 अगस्त 1947 की रात आख़री साँस ली।
इधर 13 जनवरी 1974 को इक़बाल शैदाई का देहांत लाहौर में हुआ, वहीं 1941 में अकबर शाह की मदद से हुवे ‘द ग्रेट स्केप’ में काबुल के रास्ते नेताजी बोस इटली पहुँचते हैं। वहाँ सरदार अजीत सिंह से उनकी मुलाक़ात होती है, और इक़बाल शैदाई से भी। यहाँ से जर्मनी पहुँचते हैं, वहाँ से 1943 में आबिद हसन को साथ लेकर पनडुब्बी से जापान पहुँचते, वहाँ नेताजी को रास बिहारी बोस साथ मिलता है, जिनकी मदद से आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान अपने हाथ में लेते हैं, आज़ाद हिंद रेडियो और आज़ाद हिंद सरकार की बुनियाद डालते हैं।
जानवरी 1945 में 30 साल अपने वतन से दूर रह कर रास बिहारी बोस का जापान में इंतक़ाल हो जाता है, वहीं जापान के सरेंडर के बाद अगस्त 1945 में नेताजी बोस अपने साथी हबीबउर रहमान के साथ सो कॉल्ड हवाई हादसे का शिकार होते हैं, जिसके बाद नेताजी सुभाष चंद्रा बोस हमेशा के लिए गुमनाम हो जाते हैं, वहीं इस हादसे में हबीब बच कर आईएनए ट्रायल का हिस्सा बनते हैं, और अगस्त 1947 में हुवे मुल्क बँटवारे के बाद पाकिस्तान चले जाते हैं, क्यूँकि इनका आबाई घर पाकिस्तान के हिस्से में ठीक उसी तरह चला जाता है, जैसे इक़बाल शैदाई का गया था।
यहाँ एक ग़ौर करने वाली चीज़ है, उपर जितने भी लोगों के नाम गिनायें गए हैं, वो लोग सिर्फ़ भारत की आज़ादी के लिए नही लड़ रहे थे, बल्कि उनकी लड़ाई साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध था, इन लोगों एशिया और अफ़्रीका के ग़ुलाम मुल्कों के क्रांतिकारी संगठन के साथ अपने मज़बूत तालुक़ात क़ायम कर रखे थे। चुंके दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, इसलिए कई जगह इन्होंने स्थापित साम्राज्यवाद ताक़त को गिराने के लिए संघर्ष कर रही साम्राज्यवादी ताक़तों का साथ दिया और उनसे मदद हासिल की।
इसकी शुरुआत बड़े पैमाने पर पहले विश्व युद्ध के दौरान हुई, ग़दर पार्टी बना, रेशमी रूमाल तहरीक शुरू हुई, ख़िलाफ़त और हिजरत आंदोलन हुआ, हिन्दु-जर्मन काँसप्रेसी हुई। राजा महेंद्र प्रताप, ओबैदुल्लाह सिंधी, मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली, वीरेंद्र नाथ चटर्जी, लाला हरदयाल, श्यामाजी कृष्ण वर्मा, तारक नाथ दास जैसे लोग पैदा हुवे। इनमें से अधिकतर दूसरे विश्व युद्ध से पहले गुज़र गए, पर इनका तजुर्बा आने वाले क्रांतिकारियों के लिए बहुत कारगर साबित हुआ। चाहे वो नेताजी बोस के रूप में देखें या फिर इक़बाल शैदाई के रूप में….
अगर इस चीज़ को और अच्छे से समझना है तो हमें 20 सितम्बर 1927 की रात को याद करना होगा, जब 44 साल तक अपने देश से उसकी आज़ादी के ख़ातिर दूर रहे मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली अपनी आख़री साँसे गिन रहे थे, उस समय अपने साथियों के सामने उनके आख़री अल्फ़ाज़ थे —‘तमाम ज़िन्दगी मैं पुरी ईमानदारी के साथ अपने वतन की आज़ादी के लिए जद्दोजहद करता रहा. ये मेरी ख़ुश-क़िस्मती थी कि मेरी नाचीज़ ज़िन्दगी मेरे प्यारे वतन के काम आई. आज इस ज़िन्दगी से रुख़्सत होते हुए जहां मुझे ये अफ़सोस है कि मेरी ज़िन्दगी में मेरी कोशिश कामयाब नहीं हो सकी, वहीं मुझे इस बात का भी इत्मिनान है कि मेरे बाद मेरे मुल्क को आज़ाद करने के लिए लाखों आदमी आज आगे बढ़ आए हैं, जो सच्चे हैं, बहादुर हैं और जांबाज़ हैं. मैं इत्मिनान के साथ अपने प्यारे वतन की क़िस्मत उनके हाथों में सौंप कर जा रहा हूं…’
~ Md Umar Ashraf
heritagetimes
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संकलन अताउल्ला पठाण सर टूनकी बुलडाणा महाराष्ट्र