साहित्य

सृष्टि का भावी पिता——अशोक साहनी की रचना पढ़िये!

Ashok Sahni

Jalandhar, India
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सृष्टि का भावी पिता——( अशोक साहनी )
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ठोस है रात
मगर इसको क्या कहूँ
तीरगी बनके फ़सानों से
धुँआँ उठता है
इस्पात से अल्फ़ाज़
कुठाली में जल्द अज़ जल्द
ढल जाने को ललायित हैं
तड़फड़ाती हुई ज़िन्दगी के
बेतरतीब साँचे में जगह पाने को
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कसमसाते हुए दिल से
रस्मन ही मुस्कुराने को
ज़िन्दगानी का भरम रखने को
ज़िंदा होने की शरम रखने को
हैमलाक़ का कसैला ज़हर चखने को
वक़्त की नब्ज़ थमी लगती है
सारी सृष्टि ही जमी लगती है
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ठोस है रात मगर इसको क्या कहूँ
तरल हो के सितारों से ज़िया गिरती है
कोई काया किसी पत्थर दिल बेरहम
जल्लाद के क्रूर हाथों से चिरती है
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दूर तक दूर बहुत दूर तलक
खेत गंदुम के अँधेरों की मृतप्रायः शबनम में
मख़्मली ख़्वाब में नहलाये हुए
रोने को होते ही ख़ुद को रोक देते हैं
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दूर एक बूढ़ी कोयल रुदन का प्रयास
करने में टूट जाती है पेड़ से गिर जाती है
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ज़िन्दगी ऐसी बदक़िस्मत है
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कुछ ऐसा आलम
जिस तरह रात ढले पिछले पहर
ऐलिफ़ैन्टा एलोरा की गुफ़ाओं की
बोसीदा को छू कर
रौशनी लहर की सूरत में ढले ढल के जगे
जग उठे सोई हुई पत्थर की
हज़ारहा बरसों की पुरानी बेहरकत नगरी
ओर ज़िन्दगी का अवलोकन करती
वहाँ से यहाँ यहाँ से वहाँ का सफ़र
तय करती कुल ज़माने के कष्टों पर
अफ़सोस का बेमानी इज़हार करती हुई
आहिस्तगी से पदचाप छोड़ते हुए
बढ़ती है तो बढ़ती ही चली जाती है….
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रमिया के ख़सम ने आज उसे बेरहमी से पीटा है
हाय कैसा वो नासपीटा है
और लोग किसी ने नहीं छुड़ाया उसे
वीडियो तो पाँच लड़कों ने बनाये हैं
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अब्दुल अब आख़िरी साँसों से है
न दवा न दारू ज़िन्दगी मारू
कितने दिन और जिलाएगी उसे
कितना सताएगी उसे
ये उसका वक़्त है जी लिया मर जाना है
अंततः अनंत में खो जाना है
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ठोस है रात मगर इसको क्या कहूँ
तीरगी ज़ँगखाई कॉलोनी में
एक डॉन के साम्राज्य सी फैली है
राम क्यूँ तेरी गंगा मैली है
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माँ को गये घंटों हुए
बाप तो दस महीनों से नदारद है
खोली नहीं नहीं परित्यक्त झोंपड़पट्टी में
कोई नहीं इक बेनाम से
भूतिया
दम ब ख़ुद कर देने वाले
सन्नाटे के सिवा
पीपे में दो मुट्ठी आटे के सिवा
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ठोस है रात मगर इसको क्या कहूँ
आज फिर बदस्तूर एक नामालूम बेनाम
मासूम मासूमियत का प्रतीक
पिदर उल कायनात
सृष्टि का भावी पिता
बिलकती आँखों से अपनी
माज़ूर मज़दूर मजबूर
माँ की राह तकते
मुँह बिसोरता हुआ
टूटे दरवाज़े को तकते तकते पकते पकते
पत्थर पे सर टिका रोज़ाना की तरह सो गया लाश सा हो गया होगा सो गया होगा
जाने कब ये कुछ बढ़ा होगा
अपने पाँव पर खड़ा होगा
पूरी रोटी खाने पायेगा
दूध तो इसके लिए दूर की कौड़ी है
उसकी उम्मीद बहुत थोड़ी है
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ठोस है रात मगर
इसको क्या कहूँ
कोई भगवान कोई अल्लाह
दुख नहीं हरता
कोई भी तो नहीं मारता है इसे
न ही ये बेचारा ख़ुद से है मरता
उफ़ ज़िन्दगी उफ़ दुनिया उफ़ आदमी उफ़
सुबह से शाम का करना यारो
रोज़ कभी जीना कभी मरना यारो
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🏛️अशोक साहनी 🏛️
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