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सुबह कब होगी?…By-फ़ारूक़ रशीद फ़रूक़ी

Farooque Rasheed Farooquee
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. सुबह कब होगी?
शाम के वक़्त दरख़्तों के बढ़ते हुए साए यह एहसास दिला देते हैं के दिन के उजाले रात के अंधेरों में सिमटने वाले हैं। वृक्षों की छाया कितनी शीतल होती है। किसी थके हुए पथिक को कुछ ही क्षणों में आराम दे देती है। मेरे घर के निकट एक बहुत पुराना और घना नीम का दरख़्त है। बहुत सी कहानियाॅं उस दरख़्त से जुड़ी हुई हैं। कहानियों का इतिहास भी अजीब होता है। एक घटना जो हमारे सामने होती है, वह हमें प्रभावित करती है। उसे हम वास्तविकता के रूप में स्वीकार करते हैं। कुछ समय बाद वही घटना एक कहानी बनकर रह जाती है। उसे हम कभी-कभी याद कर लेते हैं। अक्सर ऐसी कहानियां मनोरंजन के लिए ही सुनाई जाती हैं। इन कहानियों में मनुष्य की भावनाओं एवं संवेदनाओं की एक झलक होती है।

वृक्षों को हम तो कुछ ही लम्हों के लिए विश्राम स्थल बनाते हैं, किंतु अनेक असहाय लोग ऐसे भी हैं जो इन्हीं वृक्षों के साए में जीवन गुज़ार देते हैं। गली-गली घूमते हुए बंजारों को आपने देखा होगा। ये बंजारे विभिन्न शहरों में जाते हैं और छोटे पैमाने पर कारोबार करते रहते हैं। जिन बंजारों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है वे कैंप लगाकर अपना काम करते हैं। लेकिन ग़रीब बंजारे अक्सर दरख़्तों के साए में ही रहने लगते हैं। बंजारों का ऐसा ही एक समूह है मेरे घर के पास नीम के विशाल पेड़ के नीचे 45 वर्ष पूर्व आकर रुका था। वे लोग एक मेले में कुछ वस्तुएं बेचते थे और शेष समय उसी पेड़ के नीचे रुकते थे। मेला समाप्त होने पर वे वहां से चले गए किन्तु एक छोटा-सा परिवार वहीं रह गया। उस परिवार में एक स्त्री कुछ बीमार हो गई। उसके दो छोटे बच्चे थे और एक बूढ़ी माॅं थी। उसके पति की पहले कभी एक दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी। उसके लिए धरती ही सहारा थी और आकाश ही छत थी। कोई ऐसा न था जिसे उस पर या उसके बच्चों की हालत पर रहम आ जाता। उस स्त्री की माॅं बहुत वृद्ध थी और कुछ भी करने में असमर्थ थी। वह स्त्री बीमार पड़ गई और इस कारण कोई काम न कर सकी। दो-तीन दिनों से उसके बच्चों को भोजन न मिल सका और उसे कोई दवा नहीं मिल सकी। वे बंजारे पहले कभी संपन्न रह चुके होंगे इसलिए बचा-खुचा स्वाभिमान किसी के आगे हाथ फैलाने में बाधा बनता था।

रात में लगभग एक बजे का समय था। किसी ने घर का दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खोलने पर देखा गया कि एक वृद्धा खड़ी थी और अपनी व्यथा सुना रही थी। उसने कहा कि वह बिल्कुल बेसहारा है। पेड़ के नीचे लेटने के कारण उसकी लड़की की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। उसे रहने के लिए कुछ जगह चाहिए। मेरे घर के क़रीब बस स्टैण्ड है। मुसाफ़िरों का वहाॅं आना-जाना लगा ही रहता है। इतनी घटनाएं होती रहती हैं कि कोई घटना जल्दी हम लोगों का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाती। उसके बताने पर हम लोगों को पूरी स्थिति ज्ञात हुई और उसके रहने की व्यवस्था कर दी गई। उसे कुछ और सुविधाएं भी मिल गईं। उसने कहा कि लड़की के ठीक होने के बाद वह वहाॅं से चली जाएगी। एक रात ऐसा लगा कि वह बीमार स्त्री ठीक हो गई है। देर तक वह अपनी मां से बातें करती रही। लेकिन सुबह होने तक अचानक फिर उसकी तबीयत बिगड़ गई। तेज़ बुखार और पेट के दर्द ने उसे बेहोश कर दिया। उसे अस्पताल में भर्ती करवाया गया। लेकिन कुछ समय बाद ही डॉक्टर ने उसे कुछ दवाएं देकर वापस कर दिया और कहा कि तुम ठीक हो जाओगी। ग़रीब लोग थे। डॉक्टर को दे ही क्या सकते थे? दया, सहानुभूति, मानवता, संवेदना और करुणा का इतना मूल्य नहीं होता कि उनके प्रभाव में डॉक्टर उस स्त्री के प्राणों की रक्षा करने का प्रयास करते। घर पहुंचने के बाद उसकी हालत बिगड़ती ही गई। शरीर से आत्मा के बिछड़ने का समय कितना दुखदाई होता है! मरने वाला अगर फिर से जीवित हो सकता तो वही बताता! प्राण शरीर के हर हिस्से से धीरे-धीरे निकलते हैं, जैसे पूरे शरीर में कांटे चुभते हैं। मरते समय वह बुरी तरह तड़प रही थी। बिस्तर से अपना सर टकरा रही थी। ऐसी हालत में भी वह कह रही थी कि अब उसके बच्चों का कोई सहारा नहीं है। धीरे-धीरे उसके जीवन का यह अंतिम संघर्ष समाप्त हुआ। प्राण ने एक दुखियारी को पीड़ा युक्त जीवन से मुक्त कर दिया। वृक्षों के साए धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे थे। उस स्त्री के लिए कफ़न-दफ़न का इंतज़ाम होना था। हम लोग जब जनाज़ा लेकर क़ब्रिस्तान पहुंचे तो बहुत रात हो चुकी थी। गहरा अंधेरा और सन्नाटा पूरे कब्रिस्तान में फैला हुआ था। क़ब्र ठीक से नहीं खुद पाई थी। उसे ठीक करने में कुछ और वक़्त लगा। दोनों बच्चे क़ब्र के क़रीब ही खड़े थे। छोटा बच्चा कुछ ना समझ सका। लेकिन बड़ा बच्चा यह समझ गया था कि उसकी माॅं हमेशा के लिए उससे दूर चली गई है। जब जनाज़े को अंदर रखने के बाद कब्र पर पटरे रखे जा रहे थे तो वह लड़का कहता रहा कि पटरों के बीच में जगह ना रहे। मिट्टी और पानी क़ब्र के अंदर न जाने पाए। वह इस काम में बराबर सहयोग करता रहा। क़ब्र बनते-बनते आधी रात हो गई। अंधेरा और गहरा हो गया। मैं जानता था कि हर तरफ़ फैला हुआ यह अंधेरा कुछ घंटों के बाद ख़त्म हो जाएगा और सूरज निकलेगा। सुबह होगी। लेकिन ये दो बच्चे जो बिल्कुल बेसहारा हैं और इनके जैसे लाखों बेसहारा बच्चे हैं। ये किसी अज्ञात स्थान से चलकर किसी अज्ञात स्थान तक पहुंचते हैं। ये किसी जुर्म के बग़ैर ज़िन्दगी को सज़ा के तौर पर भुगतते हैं। इन बच्चों की ज़िन्दगी का कोई आधार या लक्ष्य नहीं होता। समाज में अगर ये कुछ बन सकते हैं तो भिखारी या अपराधी ही बन सकते हैं। इन बच्चों के जीवन में व्याप्त घनघोर अंधेरे क्या कभी दूर होंगे? इनकी ज़िन्दगी में कभी सुबह होगी? वह सुबह कब होगी?
(फ़ारूक़ रशीद फ़रूक़ी)