धर्म

“सुन्नतों को ज़िंदा करना”

Shams Bond
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“सुन्नतों को ज़िंदा करना”
ज़रूर ये बात चौंकाने वाली है, क्यूंकि अहले इमान का दावा है कि वो सुन्नतों की पैरवी करते हैं, फिर सुन्नत को मौत कब आई जो ज़िंदा करने की बात हो रही है।
हम अपने आसपास मुस्लिम्स को देखते हैं तो ज़रा ज़रा सा ज़ाहिर अंतर दिखता है ,मसलन, सलाम करने,हाथ मिलाने,टोपी के प्रकार, अज़ान देने के तरीक़े ,नमाज़ पढ़ने के तरीक़े, शादी मंगनी की रस्म, पर्व त्योहार लगभग सभी चीज़ों में,,,नए नए तरीके फिल्मों और टीवी सीरियल से उधार ले लिए गए हैं ।
जिनसे मुआशरे की खास पहचान खोती जा रही है ।
साबित सुन्नत का तरीका वो तरीका है जिसमें ज़रा भी अंतर या खराबी हो ही नहीं सकता ।
फिर उम्मत के लिए भी सबसे ज़रूरी बात ये है कि कोई एक बिंदु ऐसा हो जिस पर सारे मुसलमान अलग अलग मौलाना की किताबी इख्तेलाफ़ के बावजूद एक लय ताल बनाए ।
इसके लिए ज़रूरी है कि हर वो काम जिसको हम करते हैं, उस काम के लिए आखरी नबी (pbuh) ने कैसा तरीका बताया है, उसको खोजें, जाने और उस पर डट कर परखें और तब लोगों में प्रचारित भी करें ।
जैसे कि एक उदाहरण नए विवाहित जोड़ों के मिलाप से भी है ।
सुहागरात की शुरुआत दंपत्ति को दो रेकत नफ्ल नमाज़ पढ़ कर,अपनी ज़िन्दगी की खुशहाली की दुआ करनी चाहिए और अल्लाह से नेक और सालेह औलाद की तलब करे,और बिस्तर पर अपनी बीवी को हाथ लगाने से पहले पहले हक मेहर अदा कर दे ।
सारी सुन्नतों की दलील सही हदीस की किताबों में मिलेंगी, लेकिन बिदअत की दलील क़ुरआन हदीस और खूल्फा राशीदीन की सुन्नतों में नहीं मिलेगी ।
तरावीह और तलाक के मामले भी उमर (r a) के अपने मनमर्ज़ी के नहीं हैं,बल्कि इनकी खुली दलील किताबों में रौशन है ।
ज़रा सी कोशिश के बाद मुर्दा होती सुन्नत को ज़िन्दगी मिल जाएगी और इसका बदला बहुत बहुत ज़्यादा है।
सुन्नत में ही समानता है वरना मुसलमानों कि टोपियां भी एक जैसी नहीं रही ।