साहित्य

साहिर लुधियानवी…..कभी-कभी

Farooque Rasheed Farooquee

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. साहिर लुधियानवी
कभी-कभी
कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाॅंव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी
अजब ना था कि मैं बेगाना-ए-अलम होकर
तेरे जमाल की रानाइयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीम बाज़ आंखें
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता
पुकारतीं मुझे जब तलख़ियाॅं जमाने की
तेरे लबों से हलावत के घूॅंट पी लेता
हयात चीख़ती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साए में छुप के जी लेता
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूॅं गले
गुज़र रहा हूॅं कुछ अनजानी राहगुज़ारो से
मुहीब साए मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयातो-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से
न कोई जादा-ए-मंज़िल न रोशनी का चराग़
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊॅंगा कभी खोकर
मैं जानता हूॅं मेरी हम नफ़स मगर यूॅं ही
कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है

(तीरगी – अंधेरा, ज़ीस्त – ज़िन्दगी, शुआ – किरन, अलम – ग़म, नीमबाज़ – अधखुली, महव – डूब जाना, हलावत-मिठास, मुहीब – गहरे, सम्त -तरफ़, पुरहौल – वहशत पैदा करने वाला सन्नाटा, ख़ारज़ार – काॅंटो भरा रास्ता, जादा – रास्ता, ख़ला -सन्नाटा, वीरानी, हम नफ़स – साथी, बरहना सर – नंगे सर)