साहित्य

सारा दिन न जाने किस उधेड़बुन में लगे रहते हैं

अरूणिमा सिंह
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एक बेटी का पिता!
एक दिन शाम को सभी बैठकर बात कर रहे थे! बातों बातों में बाबू जी बोले कि…… ए मालकिन एक बात बताओ! बेटी के विवाह में व्रत रखते हैं का?(क्या बेटी के विवाह में व्रत रखा जाता है)

मां तनिक गुस्से में झिड़कती हुई बोली… तो का खाकर कन्यादान करिहो?(तो क्या खाकर कन्यादान करोगे)

बाबू जी बोले… न हो हमसे तो भूखल न रहा जाई हम तो बिट्टू के विवाह में खाय कय ही कन्यादान करब!(हम तो बिट्टू के विवाह में खा कर ही कन्यादान करेंगे)

मां सुनकर भुनभुनाती हुई उठकर चली गई।

विवाह को अभी छह महीने बचे हैं। तीनों समय खाने के बाद भी भूख भूख करते रहने वाले बाबू जी को अब भोजन करने के लिए याद न दिलाओ तो याद ही नहीं रहता है। सारा दिन न जाने किस उधेड़बुन में लगे रहते हैं।

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रोज सुबह दर्जनों काम लेकर घर से निकलते हैं और दिन डूबे कहीं जाकर घर वापस लौटते हैं।

थक कर चारपाई पर बैठते हैं। मां पानी लाती हैं। पानी पीकर एक गहरी लंबी सांस लेकर आंख बंद करके न जाने कहां खो जाते हैं।

मां पूछती हैं कि कुछ काम बना? आज क्या क्या निपटाए?

बाबू जी जबरदस्ती मुस्कराते हुए कहते हैं कि हां! सब हो जाएगा तुम चिंता न करो।

देर रात तक बाबू जी मां से न जाने क्या क्या सलाह करते रहते हैं।

विवाह के एक हफ्ते पहले बुआ आ गई हैं। बुआ को देखकर बाबू जी जरा खिल से उठे हैं।

अब बाबू जी की मीटिंग में मां के साथ साथ बुआ भी होती हैं।

बाबू जी इतनी व्यस्तता के बाद भी अपनी निगरानी में सारे फर्नीचर बनवा रहे हैं। बढ़ई काका को बार बार टोक रहे हैं कि बिटिया के ससुराल से शिकायत नहीं मिलनी चाहिए बढ़िया सामान बना कर देना पैसों की फिक्र नहीं करना काम अच्छा करना।

पैसों की फिक्र तो बाबू जी ने खुद तक ही रखी हुई है। हर दिन कॉपी लेकर हिसाब करते हैं और उनके माथे पर पड़ती लकीरें बताती हैं कि पर्याप्त पैसों की व्यवस्था नहीं हो पा रही है। किसी से जरा भी मदद की उम्मीद लगती है तो तुरंत उससे बात करने चले जाते हैं।

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जब सारी कोशिश के बावजूद बजट को लेकर संतुष्ट नहीं होते हैं तब हार कर बाबू जी मां से कहते हैं बिट्टू की मां चार में से दो कड़े दे दो तो जमाई बाबू का उपहार थोड़ा भारी हो जाएगा कौन सा हम उनको बार बार देंगे। तुम फिक्र न करो अगले वर्ष गन्ने का पैसा आयेगा तो इससे मोटा मोटा कड़ा बनवा दूंगा।

भागदौड़ करते करते विवाह दो दिन बचा है। थोड़ी देर भी भूखे न रहने वाले बाबू जी दो दिन से बिन खाए, बिन सोए विवाह की व्यवस्था में पगलाए हुए से हैं।

कमरे की खिड़की से चोरी चोरी बाबू जी को इधर उधर भाग दौड़ करते देखती बिट्टू रो देती थी कि मेरे विवाह की फिक्र में बाबू जी इन कुछ दिनों में ही अचानक से उम्रदराज दिखाई देने लगे हैं। मुंह उतर आया है, रंग काला सा हो गया है।

बिट्टू बाबू जी के सामने पड़ने से कतराती थी और बाबू जी खुद भी बिट्टू को भर नजर नहीं देख पाते थे उससे पहले ही आंख भर आती थी। मन ही मन सोचते कि कल तक इधर उधर फुदकने वाली मेरी चिड़िया सी लाड़ो इतनी बड़ी हो गई कि अब विदा होकर मेरा आंगन सूना करके उड़ जाएगी।
विवाह की रस्में पूरी करते घूंघट की आड़ में बिट्टू न जाने कितनी बार रोई थी। जब बाबू जी ने कन्यादान किया तो बाबू जी खुद भी आंसू रोकते रोकते हुए भी सिसक पड़े थे।

विदाई की बेला आई। बिट्टू को पकड़ कर सभी रो रहे थे और बिट्टू की आंखें तो बाबू जी को खोज रही थी। बाबू जी कहीं नजर नहीं आ रहे थे।
नजर भी कैसे आते वो मंडप छोड़कर जनवासे की तरफ़ जो भाग गए थे।
बिट्टू रोती हुई पूछती भैया! बाबू जी कहां हैं।

भैया अपने साथ साथ बिट्टू के आंसू पोछता हुआ गाड़ी की तरफ ले आता है कहता है यही कहीं होंगे अभी आते होंगे।
बिट्टू गाड़ी में बैठ जाती है और देखती है पेड़ के पास खड़े बाबू जी पगड़ी उतार कर आंसू पोंछ रहे थे लेकिन गाड़ी तक नहीं आए।
वो जानते थे कि अपने हाथों से बिट्टू को विदा नहीं कर पाएंगे इसलिए वहीं से ही दोनों हाथ गाड़ी की तरफ उठा कर आशीष दे दिया और मुंह घुमा लिया।

कठोर मन के माने जाने वाले बाबू जी बिट्टू के विवाह में सबसे छिप छिप कर न जाने कितनी बार रो लिया करते थे।
बड़ी होते ही पिता पुत्री के बीच एक मर्यादा की दीवार बन जाती है। बेटी न कभी पिता के गले लग पाती है और न पिता अपने गले लगा कर बेटी को चुप करा पाता है इसलिए लाड़ो की विदाई के समय अक्सर बाबू जी यूं दूर खड़े होकर भरी आंखों से हाथ उठाकर बिटिया को आशीष देकर विदा कर देते हैं।

अरूणिमा सिंह