मेरे धर से दो मकान आगे साबरा आकर रहने लगी थीं, कुछ महिनों बाद वह मेरे घर के बराबर वाले प्लाट में कच्ची कोठरी और आगे छपपर डाल कर रहने लगीं, उनके साथ मामू भी रहते थे, मामू साबरा के सगे मामू नहीं थे, बस उनको लोग मामू कहते थे, साबरा ने सब को बता रखा था कि ये मेरे मामू हैं, असल में तो वो मामू साबरा के या तो मुरीद थे या फिर आशिक
रंग गोर, हरी आखें, अच्छा लम्बा कद, इकहा बदन था साबरा का, वो बला की खूबसूरत थी, साबरा के बारे में हर कोई एक बात जानता था कि उनके उपर जिन्नात का साया है, शाम होते ही हर रोज़ उन पर वो जिन्न सवार हो जाता और वो जोर-जोर से दहाडने लगती, मेरे मुहल्ले की कई औरतें जो साबरा की मुरीद बन चुकी थीं तब उसके पास होती थीं, मामू भी वहीं होता था, और भी कई लोग जो शहर से या कहीं ओर से आये होते थे, इस वक्त मौजूद होते, मैं साबरा के चीखने, शोर मचाने की आवज़ कभी अपने घर के सहन में सुनता तो कभी अन्दर कमरे में, मगर डर के मारे जीने पर चडकर पड़ौस में में देखने की हिम्मत नहीं कर पाता था, जब काफी वक्त गुजर गया तो हिम्म्त करके शाम के वक्त जब साबरा पर पेशी पड रही होती थी तो में छत पर जाकर दीवार के की आड़से छुपकर देखता कि हो क्या रहा रहा, देखता कि सबरा बाल बिखेरे हुऐ, आखें लाल-पीली कर के जोरो से चाीखती, वो आसमान की तरफ देख कर चिल्लाती, दौडती, कभी रोने लगती, कभी अपना सर जमीन पर जोर-जोर से मारती, इस दौरान उसके माथे से खून भी निकल आता था, मैं ये सब देख कर डरता, मगर देखता रहता कि होगा क्या?
लोगों में ये चरचा आम थी कि साबरा के लिए खाना जिन्नात आसमान से लेकर आते हैं, गरम-गरम खने के थाल उपर से आते है, उनमें से भाप उड रही होती है, सभी लोग इस बात पर यकीन करते थे कि बिल्कुल ऐसा होता होगा, मैं जीने के उपर वाली सीडी पर दीवार के सहारे बैठ कर हर रोज आसमान से आने वालेे खाने के थालों को देखने की कोशिश करता
साबरा किसी रानी की तरह बैठी रहती थी, उनका काम करने वाली उनकी मुरीद/गुलाम चैबीस घंटे उनके पास मौजद रहती थीं, साथ ही उनके हुकुम का गुलाम वो मामू हर वक्त उनके साथ साये की तरह पास रहता था, घर की लिपाई, पुताई सारे काम साबरा की दासी, मुरीद किया करती थीं, मामु का काम कौठों पर जो भडुओं का होता है बिल्कुल वो वाला था, मगर उसके अघिकार बहुत थे, सिर्फ मामू ही साबरा के हुजरे में बिना इजाजत जाता सकता था, वो अक्सर साबरा के सर में तेल लगाता और पिंड़लियों की मालिष करता था, साबरा के कपडें तक मामू घोता था
साबरा को मैं दिनभर में कई बार देखता, उसे देखकर मुछे डर लगता था, मगर वो बिल्कुल पड़ौस में रहती थीं तो आते जाते दिख ही जाती थीं,
कुछ दिन बाद मेरी मां से भी उनकी पंहचान हो गयी, अब वो कभी-कभी हमारे घर भी आजाती, जब वो हमारे घर आती तो में कमरे में चला जाता था, फिर ये डर कम हाने लगा, अब जब वो मिलती/दिखाई देती तौ में ’’खाला सलाम’’ कह कर लिया करता, और घीरे-घीरे डर खत्म हो गया, मगर मै अब भी ये पता लगाने में लगा हुआ था कि क्या वाकई साबरा के लिए खाना आसमान से लेकर कोई आता है, और वो हरी-हरी इलाायची की जो बातें होती हैं वो सच हैं,,,,या…..
तब मैं नवीं क्लास में था, इम्तिहान होने को थे, गर्मी का समय था, एक दिन साबरा खाला दोपहर के वक्त हमारे घर आयीं, तब में पढाई कर रहा था, वो आकर मेरी मां के पास बैठ कर बातें करने लगीं, बातौं-बातौं में मेरी मां ने बताया कि मेरे इम्तिहान होने वाले हैं, तो साबरा खाला ने कहा कि भुने हुए चने मंगा कर मुझे देना, मैं उन पर पढकर, दम कर दुगीं तो ये पास हो जायेगा, मेरी मां ने मेरे बाप से कह कर भुने हुए चले मंगवा लिए और वो साबरा खाला को ले जाक दे दिए, साबरा खला ने उन पर अमल/दम करके हमारे घर भेज दिए, अम्मी ने मुझसे कहा कि तू ये चने जरुर खाया करना, साबरा ने इनको पढ कर दिया है, उन्होने कहा है कि इनके खाने से तुम पास हो जाओगे, अन्घे को क्या चाहिए,,,,सिर्फ बीनाई,,,हींग लगे न फिटकरी,,,,मैंने बिना नागा किऐ वो पढे-लिखे चने खाना शुरू कर दिया और पढाई-लिखाई गई चूल्हे में गयी, इम्तिहान हुऐ, नतीजा आया,,,‘और मेँ ‘फेल‘‘,,,,हो गया….
अब मेरी समझ में बातें आने लगीं कि, साबरा खाला, मदारिन से ज्यादा कुछ नहीं, मैं अब न उनसे डरता था और ना उनका अहतराम,,,मैं देख रहा था कि वह लोगों जमा कर के तमाशा करती हैं और लोग उस तमाशे को अकीदत बख्शते हैं,,,,
कुछ सलों बाद साबरा का ठिकान बदल गया अब वो हमारे दायेंयें जानिब से बायें वाले मकान में आकर रहने लगी,,,उनका पीरी-मुरीदा का जोर अब कम हो गया था, पहले लोगो का तांता लगा रहता था अब कोई नहीं आता, मामू को भी उनके घर वाले घेर-घार कर के वापस ले गये थे, सो वो अब भूले बिसरे हीे आते थे, इन दिनों में साबरा ने लकडी के एक खोके में परचून, पान, बीडी, सिगरेट की छोटी सी दुकान खोल ली थी, उसकी दुकान से ही लगी एक और दुकान थी परचून की, जिसे दिन के समय एक बुजुर्ग और रात के वक्त एक कम उर्म लडका चलाता था, अब में Gradutaion कर रहा था, मैं रात के समय हमेशा ही जागता रहता हॅू, तब रात मैं पढाई किया करता था, पढते-पढते जब सुसती होती तो में छत पर चला जाता था
एक बार देखा, दो बार देखा, कई बार जब ऐसा देखा तो मुझे शक हुआ,,,वो लडका और साबरा दोनों रात को 11 बजे के बाद दुकान बन्द करके साथ आते, और एक खास जगह से गुजरने में उन्हें काफी देर लगती,,,,मैंने तय कर लिया कि पता लगाया जाये,,,अगली रात को मैं छत पर जाकर बैठ गया ओर उनके आने का इंतिजार करने लगा, जैसे ही वो दौनों मुझे आते हुए नजर आये मैं दौड कर छत से नीचे आया और अपने घर के पीछे जाकर एक मकान की दीवार से लगकर चोरी से देखने लगा
,,,तौबा,,,तौबा,,,दो मकानों के बीच पानी की एक नाली थी जिस को पतथरों से ठका हुगा था, सभी लोग इस पतली गली से आते-जाते थे, रात में कभी-कभी कोई गुजरता था, इसी पतली गली पर आने के बाद इन दोनों को पार करने में समय लगता था,,,अब पता चला की ये इतना वक्त क्यों लगता था, पतली गली में ये दोनो आर-पार कर रहे होते थे, मैंने देखा कि पतली गली में पंहुचने के बाद, साबरा ने अपनी शलवार नीचे को सरकाई और,,,
ये बात अगले दिन मैंने अपने कई दौस्तों को बताई, तो वो हौरान, आज सब को फिर से देखना था कि क्या होता है,,,तो आज हम कई लोग दूसरे मकाम पर खडे हो गये,,,और फिर वही हुआ जो बीती रात हुआ था,,,
कुछ ही दिनो में साबरा के ‘‘जिन्न‘‘ का बहुत लोगों को पता चल गया,,,मगर ये खेल रुका नही,,,जब साबरा औज ‘जिन्न‘ की खबर हो गयी कि पतली गली में इन्हें लोग देखते हैं तो, इन्हों नें नयी जगह खोज ली
मसजिद के बराबर मदरसे के दो टायलेट बने थे, उन पर दरवाजे नहीं थे, अब सबरा और उसका जिन्न मदरसे के टायलेट में मिलने लगे,,,,साबरा के मामू अब भी उसका हाल जानने आते थे, उन्हें भी ये समाचार कहीं से मिल गया, फिर भी वो आते थे मगर बहुत कम आने लगे,,,जिन्न के अपने घर में हर रोज लडाई होने लगी,,,जिन्न की बीवी ने साबरा के जिन्न को पूरी तरह से अपने काबू में कर लियाया
उघर साबरा का ये बुढापे का आलम है, उसकी एक टाॅग में पता नहीं क्या हुआ कि वह सूजकर बहत मोटी हो गयी है, कुबडी होकर चलती है, आखों से कम दिखने लगा है,,,साबरा के जिन्न को तो देखा मगर खाने के वो गर्म-गर्म थाल जो आसमान से उतरते थे,,,मुझे आज तक कभी देखने को नहीं मिले,,,,,
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parvez khan