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साठ के दशक की रेल का फ़र्स्ट क्लास….

Ambrish Kumar
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साठ के दशक की रेल का फर्स्ट क्लास
साठ के दशक के शुरूआती दौर की धुंधली याद तो है .अपना यायावरी का आज जो शौक है उसकी बुनियाद पापा की वजह से पड़ी .वे मेकेनिकल इंजीनियर थे और रेलवे की नौकरी .उस दौर में रेलवे अपने अफसरों को काफी सुविधाएं भी देता था. रहने लिए बड़े बंगले जिसमें आगे बगीचा और खेती लायक जमीन तो पीछे दो सर्वेंट क्वार्टर भी .जिसमें खलासी का परिवार भी रहता. पर अपनी दिलचस्पी रेल में थी. चार छह महीने बाद ही होल्डाल, चमड़े की अटैची और खाने पीने के सामान वाला काला बक्सा तैयार हो जाता, साथ एक सुराही जो स्टैंड में रहती. वह स्टैंड साल भर पहले अन्नू ने मुझे भेंट भी किया. पर अपनी दिलचस्पी उस फर्स्ट क्लास के डिब्बे की खिड़की होती जिसके किनारे बैठकर मै चलते हुए दरख्त देखा करता. कलकत्ता और फिर दार्जिलिंग यात्रा की याद है. तब फर्स्ट क्लास का चार बर्थ का डिब्बा अलग होता था दो दरवाजों वाला, इसमें सिर्फ अपना ही परिवार होता. खलासी अगर साथ हुआ तो वह दूसरे डब्बे में होता और बड़ा स्टेशन आने पर सुराही में पानी भरने के साथ चाय समोसा आदि ले आता .रात अगर रेलवे के अतिथि गृह में ठहरना पड़ता तो खाना मम्मी ही बनाती. स्टोप के साथ जरुरी बर्तन और दाल चावल, तेल मसाले सब साथ होते. सब्जी बाहर से आ जाती, ज्यादातर तहरी या दाल चावल सूखी सब्जी बनती. कई बार लंबी यात्रा में डब्बा काट कर अलग हो जाता और रात्रि विश्राम भी उसी में होता. तब लखनऊ से मद्रास की सीधी ट्रेन नहीं थी, झांसी में चार डिब्बे अलग कर दिए जाते जो दिल्ली से आने वाली दक्षिण एक्सप्रेस में जोड़े जाते. कई बार दूसरी ट्रेन में अपना डिब्बा लगता और फिर विजयवाड़ा में काट कर किसी और ट्रेन में जोड़ा जाता. यह डिब्बा चूंकि अलग कम्पार्टमेंट जैसा था तो जगह भी काफी होती थी, चार बर्थ जिसमें नीचे की दोनों बर्थ बड़े सोफे जैसी, एक टेबल जिसमें ग्लास रखने के खाके रहते. चार खिड़की होती पर सीट के साथ दो खिड़की ही होती दो बर्थ से अलग, बाथरूम में तब शावर होता और नहाना उसी में होता, गर्मी में थोड़ी दिक्कत होती पर जाड़े में तो अच्चा लगता, तब भाप वाले इंजन थे और खिड़की से कोयलें के कण भी आते, आठ दस घंटे में कपडा गन्दा हो जाता था, प्रयास होता कि खिड़की पर शीशे चढ़ा दिए जाएं .सत्तर के दशक आते आते वैसे डिब्बे बंद होते गए, वातानुकूलित ट्रेन शुरू हुई और अपनी पहली एसी वाली यात्रा सत्तर के दशक में ही तमिलनाडु एक्सप्रेस के चेयरकार वाले डिब्बे से हुई, मैंने पापा से कहकर फर्स्ट क्लास का टिकट एसी कोच से बदलवा लिया .उसका किराया कम था इसलिए आसानी से बदल गया, तब वह ट्रेन एक राज्य में एक ही जगह रूकती .रंगीन शीशे वाली खिड़की थी और चार फिल्मे मद्रास जाते जाते तक देख लीं जिसमें नीतू सिंह की दो कलियां भी थी, पर समस्या तब आई जब रात में नींद आने लगी, चेयरकार पर सो ही नहीं पा रहे थे, वापस पापा मम्मी के डिब्बे में गया और वही सो गया, समझ में आ गया कि एसी चेयरकार तो ठीक है पर चार छह घंटे से ज्यादा नहीं, अभी भी दिल्ली से काठगोदाम आने के लिए शताब्दी की जगह रानीखेत एक्सप्रेस ही जमती है, पर आज भी रेल यात्रा करते समय साठ के दशक का रेल का फर्स्ट क्लास याद आता है, कल किसी ने पूछा भी था कि आप फर्स्ट क्लास में सफ़र करते है, तब याद आया आप का पिजड़े जैसा फर्स्ट क्लास और साठ के दशक का फर्स्ट क्लास