साहित्य

सरिऔटा और उसकिना, आज इन दोनों की बात करेंगे!

अरूणिमा सिंह
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सरिऔटा और उसकिना!
आज इन दोनों की बात करेंगे।
जब चूल्हे पर भोजन बनता था तब लोहे का तवा और कड़ाही को अच्छी तरह से साफ करने के लिए इन्हे सरिऔटा में रात को ही भिगो दिया जाता था।

सुबह निकालकर बालू और चूल्हे की राख लेकर जूना से रगड़ कर मांजा जाता था। रात भर सरिऔटा में भीगने से गले हुए ये बर्तन चांदी जैसे चमक उठते थे।

सरिऔटा बनाने के लिए मिट्टी में पेड़ के नीचे एक नाद गाड़ दिया जाता था और उसमे पानी भर देते थे।

नाद के उसी पानी में कच्चे आम के छिलके, गुठली, चिड़िया के काटे खराब आम, नींबू जैसे खट्टे फल और छिलके डाल दिए जाते थे जिससे नाद का पानी खट्टा हो जाता था और खटास की वजह लोहे के बर्तन अच्छी तरह से साफ हो जाते थे।

खट्टे पानी की इस नाद को सरिऔटा कहा जाता था।
एक सरिऔटा गांव में लगभग हर घर में होता था।

जब चूल्हे पर भोजन बनता था तब लोहे के बर्तन काफी जल जाते थे उन्हे बिन खट्टे पानी में गलाए साफ नही किया जा सकता था।
गांव के लोग सारे बर्तन अन्दर बाहर दोनों तरफ एकदम साफ रखते हैं। बेशक भोजन चूल्हे पर बनता था लेकिन बर्तन धोते समय सारे बर्तन रगड़ रगड़ कर चांदी की तरह अंदर बाहर चमकाए जाते थे।

तब बर्तन धोने के लिए साबुन का उपयोग नही होता था बल्कि चूल्हे की राख पैरा या तोरई के सूखे जाली के जूने में लगाकर बर्तन धोए जाते थे।
चूल्हे की राख में बर्तन की चिकनाई छुड़ाने, बर्तनों को अच्छी तरह से धोने के बेहतरीन गुण होते थे।

जबसे चूल्हा जलना बंद हुआ तबसे चूल्हे की राख का उपयोग होना भी बंद हो गया। अब गैस चूल्हे पर भोजन बनता है और बिम बार से बर्तन धुल कर साफ हो जाते हैं।

May be an image of turtle and body of water

अब उसकिना की बात करते हैं।

हम वो लोग हैं जिन्होंने मिट्टी, राख और उसकिना से बर्तन मांज कर चमका कर विम बार व स्क्रबर तक की यात्रा तय किया है।
जब चूल्हे पर भोजन बनता था तब कड़ाही, बटुली, बटुला पर अच्छी तरह से राख का लेवा लगाया जाता था ताकि बर्तन कम जले।
इन चूल्हे पर चढ़े बर्तनों को राख और पैरा के उसकिना से रगड़ कर मांजा जाता था और बर्तन दूध जैसे सफेद झक चमक उठते थे।
थालियां, गिलास तो राख से या मिट्टी से रगड़ दो तो एकदम साफ़ हो जाती थी।

तब बर्तन मांजने में बेशक बहुत मेहनत लगती थी लेकिन कोई साबुन का प्रयोग नही करता था।
उसकिना पैरा, दूब या नेनुआ की सूखी जालियों (जो अमेजॉन पर नेचुरल लूफा नाम से बिकता है) से बनाते थे।
जैसा कि ऊपर बताया है कि तवा और लोहे की कड़ाही को सरिऔटा में भिगो दिया जाता था जिससे वो जल्दी साफ हो जाता था। जो दाग रह जाते थे उसे ईंट के टुकड़े से घिस दिया जाता था।

तवा हो या कड़ाही हो या बटुली बाटुला हो सब अन्दर , बाहर से मांज कर चमकाए जाते थे।

अब तो गैस चूल्हे पर भोजन बनता है कम गंदे होते हैं और तमाम तरह के बर्तन धोने के लिए साबुन, तरल पदार्थ उपलब्ध है जिनसे बर्तन धुल जाते हैं।
जिनके पास सुविधा है वो बर्तन धोने की मशीन में बर्तन धोते हैं।

सच कहते हैं समय बदलते देर नहीं लगती है और परिवर्तन संसार का नियम है।

अरूणिमा सिंह