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सनातन धर्म की वो खूबियां जो आज लुप्त होती जा रही हैं, एक पठनीय पोस्ट!

Tajinder Singh
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सनातन धर्म की वो खूबियां जो आज लुप्त होती जा रही हैं। एक पठनीय पोस्ट…

“धर्म के नाम पर” लिखी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में श्री गीतेश शर्मा ने लिखा है कि- “यदि कोई यह कहता है कि उसका धर्म अनादि, अनन्त, शाश्वत, सनातन है और उसका ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ है तो उसकी यह सोच सीमित, अविवेकपूर्ण और भ्रान्त मानसिकता का परिचायक है।कोई भी धर्म शाश्वत, अनादि, अनन्त नहीं है और न ही कोई ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी हैं।अगर ऐसा होता तो समस्त विश्व में एक ही ईश्वर, एक ही जाति, एक ही सम्प्रदाय और एक ही धर्म होता। ईश्वर, धर्म और दर्शन का विकास मानव मस्तिष्क के विकास से हुआ है।मानव विकास की आरम्भिक अवस्था में मनुष्य के सामाजिक सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया में धर्म के महत्वपूर्ण अवदान से इन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन कालांतर में धर्मों का प्रयोग मनुष्य की चेतना, बुद्धि एवं विवेक को पंगु बनाए रखने के लिए भाग्य, नियति, पुनर्जन्म, कयामत, स्वर्ग-नर्क, जन्नत- जहन्नुम का सहारा लेकर सामाजिक विषमता एवं अन्याय को न्यायोचित स्वरूप प्रदान करने के लिए जो किया गया वह दुर्भाग्यपूर्ण रहा है।” धर्म और ईश्वर के सम्बन्ध में श्री गीतेश शर्मा की यह बात इसलिए सही लगती है क्योंकि जब प्रकृति/परमात्मा के बनाए हुए सारे नियमों में एकरूपता और सार्वभौमिकता है तो फिर धर्म और ईश्वर में यह भिन्नताएं क्यों?

यह सच है कि हिन्दू धर्म अपने आरम्भिक काल से ही प्रकृति (पेड़ पौधे नदी पहाड़ पशु पक्षी आदि) जुड़ा होने के कारण अन्य धर्मों की अपेक्षा ज्यादा उदार एवं सहिष्णु रहा है। हिन्दुओं में जो युद्ध भी हुए वह क्रूसेडों और जेहाद़ों की तरह धर्म के नाम पर नहीं वल्कि न्याय और अन्याय के बीच बहुत ही मर्यादित ढंग से हुए। ऐसे न्याय- अन्याय के बीच जो युद्ध हुए उसमें आम जनजीवन प्रभावित नहीं हुए।और तो और यह युद्ध इतने मर्यादित ढ़ंग से हुए कि जिसमें निहत्थे शत्रुओं पर वार करना भी अपराध एवं अधर्म की श्रेणी में माना गया।

हिन्दू धर्म की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि आरम्भिक काल से ही इसमें बहुदेववाद और ईश्वर वाद के समानांतर ही नास्तिक एवं अनीश्वरवाद की विचारधारा भी एक साथ प्रवाहित होती रही। ईसाई और इस्लाम धर्म की तरह ईश्वर और धर्मग्रंथ के खिलाफ कुछ कहने वालों को सत्य की खोज करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो की तरह हिन्दू धर्म में किसी को सजा नहीं दी गई। हिन्दू सनातन धर्म में देवी-देवताओं व धर्मग्रंथों की निंदा करने वाले लोकायत अथवा चार्वाक दर्शन के प्रणेता आचार्य वृहस्पति को जिन्होंने यहां तक कहा था कि “न कहीं स्वर्ग है, न कहीं नर्क है, न कहीं आत्मा है, न कहीं परमात्मा है, यह सब अहंकारी मूर्खों की बुद्धि की करतूत है,और अग्निहोत्र, कर्मकांड, तीन वेद, त्रिदंड, भस्मलेपन आदि उन लोगों के जीवकोपार्जन के साधन हैं जिनके पास बुद्धि और शक्ति का अभाव है” को इस्लाम की तरह ईशनिंदा के जुर्म में सजा-ए-मौत की सजा नहीं दी गई वल्कि उन्हें आचार्य व ऋषि वृहस्पति के विश्लेषण से नवाजते हुए उनके मत को वृहस्पति दर्शन कहकर सभी को पढ़ने और समझने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

इस्लाम में मोहम्मद व पवित्र कुरान के खिलाफ एक शब्द बोलने पर ईशनिंदा कानून के तहत सजाएमौत का प्राविधान किया गया तो हिन्दू सनातन धर्म में आत्मा-परमात्मा एवं पूजा पाठ हवन यज्ञ में दी जाने वाली बलि का विरोध करनेवाले बुद्ध को “भगवान बुद्ध” की उपाधि से नवाजते हुए उनके बारे में यह कहते हुए कि:-

दुष्ट यज्ञ विधाताय‌ पशु हिंसा निवृत्तये,
बौद्ध रूपं दधौ योस्यौ तस्मै देवायते नमः।

भगवान विष्णु का अवतार मानकर नमन वंदन किया गया।
ऐसा सभी धर्मों का कहना एवं मानना है कि- “सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मानव से इतर सर्वशक्तिमान, अन्तर्यामी ईश्वर की माया है और ईश्वर की मर्जी के विना यहां एक पत्ता भी नहीं हिल सकता है। जो मनुष्य ईश्वर की सत्ता को नकारता या उस पर शंका करता है वह अच्छे कार्यों के बाद भी नरक का भागी होता है।” इस्लाम में तो ऐसे विधर्मियों को काफिर-मुनाफिक करार देते हुए ईशनिंदा के आधार पर उनकी हत्या करने को भी धर्म सम्मत माना गया है।

इस सम्बन्ध में हिन्दू सनातन धर्म की विशिष्ट विशेषता यह रही कि इन सब अवधारणाओं के बाद भी इसमें द्वैत-अद्वैत, सगुण निर्गुण, शैव-वैष्णव, आध्यात्मिकता- भौतिकता ही नहीं वल्कि आस्तिकता-नास्तिकता जैसे परस्पर विरोधी सिद्धांत भी सदैव परस्पर जुड़े रहे। यही नहीं हिन्दू सनातन धर्म ही एक मात्र ऐसा धर्म है जिसमें नास्तिक ऋषि तक हुए।

राम बहादुर पांडे जी की वाल से🙏