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संस्मरण – गुड़ चोर….By—-रमेश पटेल ‘स्माइल’

Ramesh Patel
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संस्मरण – गुड़ चोर
ये उस दिन की बात है जब मैं पाँचवी की वार्षिक परीक्षा देकर गर्मी की छुट्टियों का आनंद ले रहा था। मैं उस दिन आम के बाग़ में सत्तोल खेल रहा था, तभी मुझे गुड़ खाने का सुरूर दबाया। उन दिनों मैं अपने घर में रखे गुड़- चीनी,अचार-खटाई, मुरब्बे आदि को चुराने में बड़ा एक्सपर्ट था। इसलिये चल पड़ा अपने घर की ओर। नल पर बिना हाथ- पैर धोए ही जल्दी से ओसारे में क़दम रखा,जहां बड़ी दीदी खटिया पर पहले से ही लेटी हुईं थीं। उस समय पता नहीं क्यों हमें उनसे बहुत डर लगता था जबकि वो हमसे बहुत प्यार करती थीं। डर शायद इसलिए लगता था क्योंकि जब मैं कभी चोरी में पकड़ा जाता था तो वो उसी बात को लेकर कई दिनों तक चिढ़ाया करतीं थीं। दरअसल उन दिनों मैं मांगने में बहुत कम और चुराने में विश्वास बहुत ज्यादा करता था ,जानता था कि अगर घर वालों से इस तरह से गुड़ माँगूँगा तो कोई गारंटी नहीं है कि मिल ही जायेगा और फ़िरहाल अगर मिल भी गया तो एकदम थोड़ा- सा गुड़, गुड़ का तिहाई भाग भी नहीं। इसलिये मुझे जब कुछ खाने का मन करता था तो तुरन्त वो चीज़ चुरा लेता था क्यूँकि इसमें भी मिलने की सौ परसेंट गारंटी भले ही न हो लेकिन अगर मिल जाये तो जी भर के खाओ। यही सब सोच करके मैंने धीरे से घर का दरवाजा खोला।

एकदम आहिस्ते से घर के अंदर अपना क़दम रखा क्योंकि जानता था कि अगर दीदी जगीं तो फिर चिढ़ाना शुरू कर देंगी, हो सकता है कुटाई भी कर दें क्योंकि कभी -कभी गुस्सा लगने पर वो कूट भी देती थीं। अतः मैं गुड़ वाले मेटी(मिट्टी का घड़ा) के पास पहुंचा। ढक्कन को खोलने से पहले एक बार दीदी की तरफ देखा जोकि मेरी ही ओर करवट लिए खटिया पर सो रहीं थीं। उस दिन मुझे उनसे बहुत डर लग रहा था और ऐसा लग रहा था कि मानों वो कहीं हमको देख न रहीं हों। शायद चोरों को भी ऐसा ही डर लगता होगा। लेकिन जब उन्हें गहरी सांस को लेते हुए देखा तो समझ गया कि दीदी तो गहरी नींद में हैं। फिर तो चोरी करने की हिम्मत मेरी दोगुनी हो गई। मैंने धीरे-से मेटी के ढक्कन को उठाया। पता नहीं कैसे डर के मारे ढक्कन मेटी पर ही गिर गया। ढक्कन गिरते ही धक्क से मेरा दिल भी बैठ गया। उसके बाद धड़कन की चाल अचानक तेज़ हो गई। एक बार फिर से मैंने अपनी दीदी की ओर देखा कि कहीं इस तरह के मेरे क्रिया- कलाप से कहीं जाग तो नहीं गईं? लेकिन देखा तो वो सो ही रहीं थीं। उसके बाद फिर से मैं मेटी के ढक्कन को हिम्मत करके उठाया और तीन भेली गुड़ निकाल लिया।

दो भेली हाफ पेंट में और एक भेली अपने हाथ में लेकर ढक्कन को धीरे से उस मेटी पर रखा और बाद में घर में से निकलने के लिए आहिस्ते से अपने क़दम दो बढ़ाया लेकिन जैसे ही किवाड़े तक पहुँचा फिर पता नहीं क्या सोचा कि क्यों न एक भेली अपने दोस्त के लिए और ले लूँ। यही सोच कर एक बार फिर से वापस मेटी की ओर चल दिया। गुड़ निकालने से पहले एक बार फिर दीदी की ओर देखा जोकि पहले की ही तरह सोने में ध्यान मग्न थीं। अबकी बार जैसी ही ढक्कन उठाया वैसे ही दीदी चारपाई से लेटे हुए बोल पड़ीं ,”अरे भईया दो-तीन भेली और ले लो ये तो अभी कम पड़ेंगे।” इतना सुनते ही लज्जा के मारे मुझे साँप सूँघ गया। मेरा मुँह पलरी जैसा फैल गया। मेरे समझ में ही नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं। अब तो मैं पकड़ा ही गया था। कुछ क्षण मैं पागलों की तरह वहीं पर बुत बनकर खड़ा रहा। उसके बाद दीदी हंसते हुए बोली, “तुम सोच रहे थे कि मैं देख ही नहीं रही हूं? अरे मैं तो तुम्हें तभी पढ़ ली थी जब तुम ओसारे में क़दम रखे थे।”

अब मैं लज्जा के मारे पानी-पानी हो रहा था, पछतावा हो रहा था कि आख़िर चोरी ही क्यों किया। लेकिन दीदी के तरकस में से लज्जा वाले शब्दों की तीर लगातार सांय-सांय निकल करके मेरे हृदय को बेध रहे थे। उसके बाद चिढ़ाते हुए दीदी बोली,”मैं कब से देख रहीं हूँ तुम भेली पे भेली लिए चले जा रहे हो”। कहते हुए उनकी हंसी छूट गई। वो जोर-ज़ोर से हंसते हुए खटिया पर लोट- पोट हो गईं। दीदी का हँसना मुझे शर्म के मारे गुस्सा दिला रहा था इसलिए गुस्से से जेब में से तीनों भेली निकालकर खटिया पर ही फेंक दिया। वो और तेज़ हंसने लगीं।

मैं शर्माते हुए वहाँ से तेज़ी से भाग निकला। उसके बाद मैं बाग में आकर खूब सोचा कि मैं भला इतना गुड़ क्यों चुराता हूँ,रोज तो मिलता है खाने को गुड़। घर में जब भी कोई खाता है तो दे ही देता है। ” हे भगवान! मैं अब गुड़ कभी नहीं चुराऊंगा।”, मैं भगवान को साक्षी मानकर गुड़ न चुराने का दृढ़ संकल्प लिया जो दो-तीन दिन बाद वो दृढ़ संकल्प फिर से टूट गया। आख़िर बचपन जो था।

—-रमेश पटेल ‘स्माइल’
प्रतापगढ़, उ0प्र0(भारत)
संस्मरण संग्रह: सर जी मैं जीत गई