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श्रीकृष्ण पर कैसे लगा चोरी और हत्या का आरोप

सत्राजित नाम के एक यदुवंशी ने कठोर तपस्या करके सूर्यदेव को प्रसन्न कर लिया। सूर्यदेव ने सत्राजित को स्यमंतक नाम की एक दिव्य मणि प्रदान की जो अपने धारक को प्रतिदिन, अपने भार का आठ गुना स्वर्ण प्रदान करती थी। मणि से सत्राजित को प्रतिदिन स्वर्ण मिलने लगा जिससे वह अचानक धनवान हो गया। तब श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा कि राज्य की समृद्धि के लिए उसे वह मणि राजा को दे देनी चाहिए परंतु लोभी सत्राजित ने मणि देने से मना कर दिया और उसके मन में कृष्ण के प्रति दुर्भावना भी उत्पन्न हो गई।

एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेनजित स्यमंतक मणि धारण करके आखेट के लिए चला गया। वहां एक सिंह ने प्रसेनजित को मार डाला। सत्राजित के बहुत प्रयास करने पर भी प्रसेनजित और मणि का कुछ पता नहीं लगा। चूंकि कृष्ण सत्राजित से मणि मांग चुके थे, इसलिए सत्राजित ने कृष्ण पर ही प्रसेनजित की हत्या और स्यमंतक की चोरी का आरोप लगा दिया। कृष्ण को खुद पर लगे कलंक को मिटाने के लिए मणि खोजना आवश्यक था। वह उसी वन में गए, जहां प्रसेनजित आखेट के लिए गया था।

कुछ देर बाद कृष्ण को प्रसेनजित का सड़ा-गला शव मिल गया जिसे एक सिंह मारकर छोड़ गया था। परंतु कृष्ण को मणि नहीं मिली। वह सिंह के पंजों के निशान का पीछा करते हुए आगे बढ़े तो उन्हें कुछ दूरी पर सिंह का शव पड़ा मिला। उसके निकट एक विशाल भालू के पंजों के निशान थे परंतु मणि फिर भी नहीं मिली। फिर वह भालू के पैरों के निशान का पीछा करते हुए एक गुफा तक पहुंच गए। उन्हें गुफा के भीतर से तेज प्रकाश बाहर आता दिखा जो निस्संदेह स्यमंतक मणि से निकल रहा था। कृष्ण तुरंत समझ गए कि सिंह, प्रसेनजित को मारकर मणि मुंह में दबाकर ले गया होगा और फिर भालू ने सिंह को मारकर स्यमंतक मणि अपनी गुफा में रख ली होगी। कृष्ण गुफा के भीतर चले गए।

गुफा के अंदर एक युवती स्यमंतक मणि से खेल रही थी। कृष्ण जैसे ही मणि लेने के इरादे से आगे बढ़े, एक विशालकाय भालू ने उन पर हमला कर दिया। भालू को देखकर कृष्ण मुसकराए मानो भालू से उनकी पुरानी पहचान थी। परंतु भालू हमला कर चुका था इसलिए कृष्ण को भालू के प्रहार का उत्तर देना पड़ा। दोनों में घमासान युद्ध छिड़ गया जो कई दिनों तक निरंतर चलता रहा। आखिर, भालू थक गया। तब उसे एहसास हुआ कि उसका सामना किसी साधारण मनुष्य से नहीं हुआ था। उसने हाथ जोड़कर कृष्ण से उनका परिचय पूछा।

कृष्ण ने मुस्कुराकर कहा, ‘प्रिय जाम्बवान! तुमने मुझे नहीं पहचाना लेकिन मैंने तुम्हें देखते ही पहचान लिया था। मैं नारायण हूं और तुमसे त्रेता युग में मिला था जब मैंने राम के रूप में अवतार लिया था। अब मैं द्वापर युग में कृष्ण के रूप में आया हूं!’ फिर कृष्ण ने जाम्बवान को दिव्य रूप में दर्शन दिए जिसे देखकर जाम्बवान कृष्ण से क्षमा मांगने लगा। कृष्ण, पत्नी जाम्बवती और स्यमंतक मणि साथ लेकर द्वारिका लौटे और खुद पर लगे हत्या और चोरी के कलंक को मिटा डाला। कृष्ण बोले, ‘मुझे अपने भक्त का प्रहार भी फूल के समान प्रिय है। मैं स्यमंतक मणि लेने आया हूं क्योंकि मुझ पर चोरी और हत्या का आरोप है। लेकिन मुझे एक और वचन भी पूरा करना है जो मैंने तुम्हें त्रेता युग में दिया था।’

‘कैसा वचन?’ जाम्बवान के पास खड़ी उसकी पुत्री जाम्बवती ने पूछा। कृष्ण ने जाम्बवती से कहा, ‘रावण के साथ युद्ध में तुम्हारे पिता ने मेरी सहायता की थी जिसके बदले जाम्बवान ने तुम्हारा विवाह मुझसे करने का आग्रह किया था। परंतु तब मैं एक पत्नी-व्रत से बंधा था इसलिए मैंने जाम्बवान को वचन दिया था कि मैं अपने अगले अवतार में उसकी यह इच्छा पूर्ण करूंगा और मैंने तुम्हें भी यह वरदान दिया था कि तब तक तुम्हारा यौवन यथावत्ा रहेगा। मैं तुम्हें अपनी पत्नी स्वीकार करता हूं।’ फिर कृष्ण, अपनी पत्नी जाम्बवती और स्यमंतक मणि साथ लेकर द्वारिका लौट आए। उन्होंने स्यमंतक मणि सत्राजित को लौटा दी और खुद पर लगे हत्या और चोरी के कलंक को मिटा डाला। इसके बाद कृष्ण ने सत्राजित के अनुरोध पर उसकी पुत्री सत्यभामा को भी पत्नी-रूप में स्वीकार कर लिया।

बाद में, देवर्षि नारद ने कृष्ण को बताया कि भाद्रपद की चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन करने से उन पर यह कलंक लगा था। यही करण है कि हिंदू संस्कृति में ‘चौथ का चांद’ देखना अशुभ समझा जाता है।

आशुतोष गर्ग

source : Amar ujala