साहित्य

वो समय ज़्यादा नहीं बीता है लेकिन बाबू जी की कही बातें और अंदेशे अब एकदम सही हो गए हैं : अरूणिमा सिंह की रचना ”दुल्हिन” पढ़िये!

अरूणिमा सिंह
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दुल्हिन!
बांह भर चूड़ियां, बिछिया, पायल और महावार से सजे पांव, सीधी मांग काढ़कर पूरी मांग में चमकता सिंदूरी रंग सिंदूर, धनुष जैसी दोनों भौंहों के बीच मध्यम आकार की चमकती लाल टिकुली, बड़ी बड़ी आंखों में लगा गहरा सुरमा, सीधे पल्ले की बड़े ही सलीके से पहली साड़ी और ठोड़ी तक घुंघट पहले की बहुरिया की पहचान होता था।

घर के अन्दर भी सर से पल्लू कभी नहीं सरकता था, ये पल्लू सिर्फ सर तक नहीं बल्कि माथे तक रहता था जो गांव की किसी महिला के भी आने पर झट से सरक कर ठोड़ी तक आ जाता था।

नई नई बहुरिया तो हम बच्चों को भी अपना मुंह नहीं दिखाती थीं। कभी कभार इधर उधर हुए पल्लू से उनके लाल रंग के ओठलाली से रंगे होठ दिख जाते थे तो हम लोग उतना ही देखकर मान लेते थे कि फलानी की भौजाई बहुत सुंदर है।

बाहर से आए पति देव भौजी को आवाज लगाकर अपने आने की सूचना पत्नी को दिया करते थे और तब बहुरिया के घुघट के अंदर से ही मन हुलस जाता था जो उसकी खनकती चूड़ियो से पता चल जाता था।

बड़के भैया यानि जेठ जी जो सिर्फ भोजन करने ही भीतर आते थे उन्हें डेउढ़ी के दरवाजे पर पहुंचते ही बिन खांसी के खांसी आ जाती थी जिसका मतलब होता था कि मैं अंदर आ रहा हूं आप सजग हो जाएं।

बड़की बहुरिया के आने के बाद से ही बाबू जी तो अंदर आना बंद कर दिए हैं अब वो भोजन ओसारे में ही करने लगे हैं।

पति देव बहाने बहाने से अन्दर आते हैं लेकिन कभी भौजी तो कभी मां के होने के नाते बस पत्नी को जरा सा निहार कर चले जाते हैं बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।

बड़के भैया दो बच्चों के पिता हो गए हैं लेकिन कभी मां या बाबू जी के सामने अपने बच्चों को उठाकर नहीं खेलाये हैं। यदि कभी गोदी ले भी लिया तो मां के आते ही जल्दी से पत्नी की गोद में देकर इधर उधर कुछ करने लगते हैं।

सबके भोजन करने के बाद बहुरिया सासू मां के पैर दबाती उनसे उनके समय की तमाम बातें सुनती और उनके सो जाने के बाद बिस्तर पर आकर पति देव के आने की प्रतीक्षा करती क्योंकि वो भी सबके सोने के बाद चुपके से किसी के नजर में आए बिना कमरे में आते थे और सबके जागने से पहले ही उठकर बाहर कमरे में जाकर सो जाते थे।

यदि कभी उठने में देर हो गई तो बाबू जी बाहर आते ही टोकते थे _का बाबू चौका बर्तन करने लगे थे क्या?

मां आकर मोर्चा संभाल लेती थी कहती बाबू जा जाकर फला चीज ले आ! फिर बाबू जी को टोकती _क्या आप भी? जरा सी देर हो गई तो पीछे ही पड़ गए! बच्चा है अभी आंख नहीं खुली होगी।

बाबू जी समझाते कि आप नहीं जानती हैं? टोकेंगे नहीं तो ये लोग बड़े बुजुर्गों का ख्याल ही करेंगे! बगल में ही बैठकर पत्नी से बतियाएगें और हम आप चुप बैठकर इनका या तो मुंह ताकेगे या अपने कमरे में कैद रहेंगे।

वो समय ज्यादा नहीं बीता है लेकिन बाबू जी की कही बातें और अंदेशे अब एकदम सही हो गए हैं।

अरूणिमा सिंह