साहित्य

वो शायद भगवान भी नहीं कर सकते, मां वो जो मन पढ़ ले…..By-Santosh Kumar Pant

Santosh Kumar Pant
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मां और शहर
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ईजा (मां).. ईजा (मां)….मि ऐ गईं (मैं आ गया हूं)..यह कहते हुए मैं अभी अभी ‘शहर’ से लौटा था, और मां से पूरे 1 साल के बाद मिला था,मां से लिपटा…लगा जैसे समंदर ने हज़ार नदियों को अपने अंदर समेट लिया हो।हजारों बरस तक अलग न होने का अहसास..यार सच बताऊं तो शहर मुझे कभी नही भाया,वो शहर जहां हर कोई बेगाना था,हर कोई शह और मात का खेल खेलता था।शायद इसलिए ही इसे ‘शहर’ कहा गया।यहां हर चीज़ में दोगलापन सा है,पानी कभी साफ..कभी गंदा,हवा कभी साफ कभी गंदी,लोग बाहर से अच्छे..अंदर से गंदे.. ख़ैर जितनी देर मैं मैने ये सोचा मां चाय ले आई थी।चाय पीते पीते बात करते करते शाम हो गई।इन सब बातों के बीच गांव की साफ हवा ने शहर की ज़हरीली हवा को भी साफ कर दिया था।

घर की सीढियां चढ़ते ही पापा की आवाज़ का अहसास हुआ।जो कह रहे थे कि सोनू(मेरे घर का नाम) तू आ गया.कैसा है? सन्न से हवा का झोंका आया और उस अहसास को मुझसे और मेरे कानों से दूर ले गया।मैने मन को शांत किया और समझाया कि पापा अब सजीव नहीं लेकिन जीवन के साथ हमेशा हैं…कमरे के बाहर उनकी लाठी आज भी है,जो सीढियां चढ़ते समय ठक ठक की आवाज करती थी।जो उनके आने का प्रमाण होता था।कल जो मेरे साथ थे..आज वो यादों में हैं।इतनी देर में मां आ गई थी।मेरे सोचने से पहले उसको अहसास हो गया था कि मैं क्या सोच रहा हूं।क्योंकि मां जो अपना पूरा जीवन आपको देकर आपके लिए कर सकती है, वो शायद भगवान भी नहीं कर सकते। मां वो जो मन पढ़ ले।

रात में मां के हाथ का बना खाना,बातें गांव की,बातें भाई बहन की,बातें शहर की होते होते नींद अपने आगोश में ले लेती है।सुबह आपके उठते ही सूर्य भगवान और जीवन देने वाली मां दोनो एक साथ दिखाई देते हैं, मां सर पर हाथ फेरती है और सामने चाय का ग्लास लेकर खड़ी होती है।ऐसे ही दिन बीतते जाते हैं।बीतते इसलिए भी हैं कि भगवान ने हर किसी के जीवन में सुकून नाम की चीज़ कम ही रखी है।और मां की जिंदगी में तो कम ही है।

जाने का दिन आता है,रात को ही मां 50 पोटली बांध कर तैयार खड़ी होती है, जिसमें मेरे गांव की मिट्टी की खुशबू और मां के हाथ का प्यार होता है।सुबह जैसे ही जाने का समय होता है। तो मां से नजरें मिलाने की हिम्मत नही होती कि कब आप रो दें।बिना देर किए मां से लिपटता हूं,यकीन मानिए वो पल आपकी जिंदगी का सबसे कठिन पल होता है, कि सब कुछ यहीं ठहर जाए।मां से लिपटा रहूं। आपकी आंखों के आंसू थोड़ी देर के हैं…लेकिन मां के लिए ज़िंदगी भर के।

घर की सीढ़ियां उतरता हूं,मां को पलट पलट कर देखता हूं।और आगे बढ़ जाता हूं….फिर से उस ‘शहर’ में जाने के लिए…