साहित्य

वेश्या के लिये समस्या हो ही नहीं सकती, लेकिन समस्या क्या है ?

मेरा मुझमें कुछ नहीं

मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के आश्रम में प्रविष्ट होने के लिये चार स्त्रियां पहुंचीं !

उनकी बड़ी जिद थी, बड़ा आग्रह था !

ऐसे सूफी उन्हें टालता रहा, लेकिन एक सीमा आई कि टालना भी असंभव हो गया !

सूफी को दया आने लगी, क्योंकि वे द्वार पर बैठी ही रहीं, भूखी और प्यासी, और उनकी प्रार्थना जारी रही कि उन्हें प्रवेश चाहिए !

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उनकी खोज प्रामाणिक मालूम हुई तो सूफी झुका, और उसने उन चारों की परीक्षा ली !

उसने पहली स्त्री को बुलाया और उससे पूछा, “एक सवाल है” !

तुम्हारे जवाब पर निर्भर करेगा कि तुम आश्रम में प्रवेश पा सकोगी या नहीं, इसलिए बहुत सोच कर जवाब देना !

सवाल सीधा-साफ था, उसने कहा कि एक नाव डूब गई है, उसमें तुम भी थीं और पचास पुरुष थे !

पचास पुरुष और तुम एक निर्जन द्वीप पर लग गये हो, तुम उन पचास पुरुषों से अपनी रक्षा कैसे करोगी ?

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यह समस्या है…

एक स्त्री और पचास पुरुष और निर्जन एकांत, वह स्त्री कुंआरी थी, अभी उसका विवाह भी न हुआ था !

अभी उसने पुरुष को जाना भी न था, वह घबड़ा गई, और उसने कहा, कि अगर ऐसा होगा तो मैं किनारे लगूंगी ही नहीं, मैं तैरती रहूंगी, मैं और समुद्र्र में गहरे चली जाऊंगी, मैं मर जाऊंगी, लेकिन इस द्वीप पर कदम न रखूंगी !

फकीर हंसा, उसने उस स्त्री को विदा दे दी और कहा, कि मर जाना समस्या का समाधान नहीं है, नहीं तो आत्मघात सभी समस्याओं का समाधान हो जाता !

और अगर एक बार आत्मघात समस्या का समाधान मालूम हो गया तो तुम हर बार यही करोगे !

तुम्हारे मन में भी अनेक बार किसी समस्या को जूझते समय जब उलझन दिखाई पड़ती है और रास्ता नहीं मिलता, तो मन होता है, मर ही जाओ, आत्महत्या ही कर लो!
यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का निचोड़ है, पर इससे कुछ हल नहीं होता, समस्या अपनी जगह खड़ी रहती है !

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दूसरी स्त्री बुलाई गई !

वह दूसरी स्त्री विवाहित थी, उसका पति था !

यही सवाल उससे भी पूछा गया, कि पचास व्यक्ति हैं, तू है, नाव डूब गई है सागर में, पचास व्यक्ति और तू एक निर्जन द्वीप लग गये हैं, तू अपनी रक्षा कैसे करेगी ?
उस स्त्री ने कहा, इसमें बड़ी कठिनाई क्या है ?

उन पचास में जो सबसे शक्तिशाली पुरुष होगा, मैं उससे विवाह कर लूंगी, वह एक, बाकी उनचास से मेरी रक्षा करेगा !

यह उसका बंधा हुआ अनुभव है, लेकिन उसे पता नहीं, कि परिस्थिति बिलकुल भिन्न है !

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उसके देश में यह होता रहा होगा, कि उसने विवाह कर लिया और एक व्यक्ति ने बाकी से रक्षा की, लेकिन एक व्यक्ति बाकी से रक्षा नहीं कर सकता, एक व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली हो, पचास से ज्यादा शक्तिशाली थोड़े ही होगा !

पुराना अनुभव हम नई परिस्थिति में भी खींच लेते हैं, हम पुराने अनुभव के आधार पर ही चलते जाते हैं, बिना यह देखे कि परिस्थिति बदल गई है और यह उत्तर कारगर न होगा !
फकीर ने उस स्त्री को विदा कर दिया और उससे कहा, कि तुझे अभी बहुत सीखना पड़ेगा, इसके पहले कि तू स्वीकृत हो सके, तूने एक बात नहीं सीखी है अभी, कि परिस्थिति के बदलने पर समस्या ऊपर से चाहे पुरानी दिखाई पड़े, भीतर से नई हो जाती है, और नया समाधान चाहिये !
तीसरी स्त्री बुलाई गई, वह एक वेश्या थी !

और जब फकीर ने उसे समस्या बताई कि समस्या यह है, कि पचास आदमी हैं, तुम हो, नाव डूब गई, एकांत निर्जन द्वीप होगा, तुम अकेली स्त्री होओगी, तुम क्या करोगी ?
वह वेश्या हंसने लगी, उसने कहा, मेरी समझ में आता है कि नाव है, पचास आदमी हैं, एक स्त्री मैं हूं, फिर नाव डूब गई है, पचास आदमी और मैं किनारे लग गये, निर्जन द्वीप है, समझ में आता, लेकिन समस्या क्या है ?

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वेश्या के लिये समस्या हो ही नहीं सकती, इसमें समस्या कहां है, यह मेरी समझ में नहीं आता, और जब समस्या ही न हो, तो समाधान का सवाल ही नहीं उठता !
तीसरे वर्ग के लोग भी हैं !

वे इतने दिन तक समस्या में रह लिए हैं, कि समस्या दिखाई पड़नी ही बंद हो गई, जब तुम किसी चीज के आदी हो जाते हो, तो तुम्हारी आंखें धुंधली हो जाती हैं, फिर वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती !
कभी तुमने सोचा एकांत में बैठ कर, कि तुम्हारी पत्नी का चेहरा कैसा है ?

आंख बंद करके सोचो, पत्नी का चेहरा अपनी आंख में न ला सकोगे, तुमने उसे इतना देखा है, कि तुमने देखना ही बंद कर दिया, उसका चेहरा भी उभरता नहीं, साफ नहीं होता, रूपरेखा कैसी है !
सड़क से निकलने वाली नई अपरिचित स्त्री का चेहरा शायद तुम्हें याद भी रह जाये, लेकिन पत्नी का भूल जाता है, पति का भूल जाता है, मित्र का भूल जाता है !

जिस चीज के साथ तुम धीरे-धीरे रम जाते हो, उसकी चोट पड़नी बंद हो जाती है, जीवन बहुतों के लिये समस्या ही नहीं है, वे चकित होते हैं दूसरों को जीवन का समाधान खोजते हुए देखकर !
वेश्या भी विदा कर दी गई, क्योंकि जिसके लिए समस्या ही नहीं है, उसे समाधान की यात्रा पर कैसे भेजा जा सकता है ?

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चौथी स्त्री के सामने भी वही सवाल फकीर ने रखा !

उस स्त्री ने सवाल सुना, आंखें बंद कीं, आंखें खोलीं और कहा…

“मुझे कुछ पता नहीं, मैं निपट अज्ञानी हूं” !

वह चौथी स्त्री स्वीकार कर ली गई !

ज्ञान के मार्ग पर वही Chal सकता है, जो अज्ञान को स्वीकार ले, स्वाभाविक है यह बात !

क्योंकि अगर तुम्हारे पास उत्तर है ही, तो फिर किसी उत्तर की कोई जरूरत न रही। उत्तर है ही, इसका अर्थ है तुम स्वयं ही अपने गुरु हो, किसी गुरु का कोई सवाल न रहा, गुरु की खोज वही कर पाता है, जिसके पास कोई उत्तर नहीं है !

जीवन एक पहेली है, सुलझाने की कोई कुंजी हाथ नहीं !

जितना ही जीवन को देखते हैं, उतनी ही उलझन बढ़ती है, रहस्य बढ़ता है, कल तक जिन बातों को जानते थे कि जानते हैं, वे भी अनजानी हो जाती हैं, उनके भी धागे हाथ से छूट जाते हैं !
वेद बड़े प्राचीन हैं, हिंदू अघाते नहीं यह घोषणा करते, कि हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है !

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लेकिन जितनी पुरानी किताब उतनी ही व्यर्थ, पुरानी किताब का मतलब ही यह है, कि अब वह दुनिया ही नहीं रही, जब किताब लिखी गई थी !

अब वे प्रश्न नहीं रहे, अब वे उलझनें नहीं रहीं, जिंदगी रोज नये ढांचे लेती है, नये रूप, नये रंग !

गंगा रोज नये किनारे को छूती है, पुराने किनारे छूट गए, और तुम पुराने नक्शे लिये घूम रहे हो !

तुम्हारा गंगा से मिलन नहीं होता, क्योंकि गंगा नई होती जा रही है, तुम्हारे पास पुराने नक्शे हैं, गंगा ने जिन जमीनों पर बहना छोड़ दिया, तुम वहां के नक्शे लिये हो, और गंगा जहां बह रही है अभी, इस क्षण, वहां तुम्हारे नक्शे की वजह से तुम नहीं पहुंच पाते !

कभी कभी बिना नक्शे का आदमी भी पहुंच जाये, पर पुराने नक्शों को लेकर चलने वाला कभी नहीं पहुंच सकता, उसके लिये तो भारी अड़चन है !

जैसे जैसे समझ बढ़ती है, वैसे वैसे अज्ञान की स्पष्ट प्रतीति होती हैं !!!

***ओशो***
मेरा मुझमें कुछ नहीं (प्रव-०१)

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Nutan Kumari
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प्रेम सिर्फ अंग को पा लेने का नाम नही हे प्रेम तो आत्मा और शरीर के निचोड़ से जो तरंग उमंग लहर मदहोशी निकलती है जिसके आगोश में जा कर खुद को खुद का भी होश न रहे बस खुद को एक ऐसी जगह पहुंचाने की चाहत हो जहां पर पहुंच के जिस्म के अंग अंग से ले कर आत्मा तक को वो सुकून और वो एहसास मिले जिसको परम सुकून को पाने की चाहत में आपने खुद को यहां तक पहुंचाया हे उस परम आनंद को पा लेना ही सम्पूर्ण आनद संपूर्ण त्याग और सम्पूर्ण प्रेम है

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अगर प्यास न हो,
धर्म की बात ही छोड़ दो।
अभी धर्म का क्षण नहीं आया।
अभी थोड़े और भटको।
अभी थोड़ा और दुख पाओ।
अभी दुख को तुम्हें मांजने दो।
अभी दुख तुम्हें और निखारेगा।
अभी जल्दी मत करो।
अभी बाजार में ही रहो।
अभी मंदिर की तरफ पीठ रखो।
क्योंकि जब तक तुम
ठीक से पीड़ा से न भर जाओ,
लाख बार मंदिर आओ,
आना न हो पाएगा।
हर बार खाली हाथ आओगे,
खाली हाथ लौट जाओगे।
मंदिर तो उसी दिन आओगे,
जिस दिन बाजार की तरफ
पीठ ही हो जाए।
तुम जान ही लो कि सब व्यर्थ है।
उस दिन तुम बाजार में
बैठे-बैठे पाओगे,
मंदिर ने तुम्हें घेर लिया।
उस दिन तुम्हें गुरु खोजने
न जाना पड़ेगा,
वह तुम्हारे द्वार पर
आकर दस्तक देगा।
अपनी प्यास को परख लो।
मगर बड़ा मजा है,
लोग प्यास का सवाल ही
नहीं उठाते; पूछते हैं,
सदगुरु की परीक्षा क्या?
तुम अपनी परीक्षा कर लो।
तुम तक तुम्हारी
परीक्षा काफी है;
उससे आगे मत जाओ।
तुम्हें प्रयोजन भी क्या है सदगुरु से?
तुम अपनी प्यास को पहचान लो।
अगर प्यास है,
तो तुम जल की खोज कर लोगे–
करनी ही पड़ेगी मरुस्थल में भी
आदमी जल खोज लेता है,
प्यास होनी चाहिए।
और प्यास न हो,
तो सरोवर के किनारे
बैठा रहता है।
जल दिखाई ही नहीं पड़ता।
जल के होने से थोड़े
ही जल दिखाई पड़ता है!
भीतर की प्यास होने से
दिखाई पड़ता है।
कभी उपवास करके बाजार गए?
उस दिन फिर कपड़े
की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं,
सोने चांदी की दूकानें नहीं
दिखाई पड़तीं,
सिर्फ रेस्ट्रां, होटल!
उपवास करके बाजार में जाओ,
सब तरफ से भोजन की गंध
आती मालूम पड़ती है,
जो पहले कभी नहीं
मालूम पड़ी थी।
सब तरफ भोजन ही
बनता हुआ
दिखाई पड़ता है।
वह पहले भी बन रहा था,
लेकिन तब तुम भूखे न थे।
भूखे को भोजन दिखाई पड़ता है।
प्यासे को पानी दिखाई पड़ता है।
साधक को सदगुरु दिखाई पड़ जाता है…..
– पिव पिव लागी प्यास

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Kedar Nath Gupta
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*पुरानी कहावत है मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं। मौन और चुप्पी में फर्क है। चुप्पी बाहर होती है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी यानी म्यूटनेस जो एक मजबूरी है। लेकिन मौन यानी साइलेंस जो एक मस्ती है। इन दोनों ही बातों का संबंध शब्दों से है। दोनों ही स्थितियों में हम अपने शब्द बचाते हैं लेकिन फर्क यह है कि चुप्पी में बचाए हुए शब्द भीतर ही भीतर खर्च कर दिए जाते हैं। चुप्पी को यूं भी समझा जा सकता है कि यदि किसी से खटपट हो तो यह तय हो जाता है कि एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे, लेकिन दूसरे बहुत से माध्यम से बात की जाती है।भीतर ही भीतर एक-दूसरे से सवाल खड़े किए जाते हैं और उत्तर भी दे दिए जाते हैं। यह चुप्पी है। इसमें इतने शब्द भीतर उछाल दिए गए कि उन शब्दों ने बेचैनी को जन्म दे दिया, अशांति को पैदा कर दिया। दबाए गए ये शब्द बीमारी बनकर उभरते हैं। इससे तो अच्छा है शब्दों को बाहर निकाल ही दिया जाए। मौन यानी भीतर भी बात नहीं करना, थोड़ी देर खुद से भी खामोश हो जाना। मौन से बचाए हुए शब्द समय आने पर पूरे प्रभाव और आकर्षण के साथ व्यक्त होते हैं। आज के व्यावसायिक युग में शब्दों का बड़ा खेल है। आप अपनी बात दूसरों तक कितनी ताकत से पहुंचाते हैं यह सब शब्दों पर टिका है। कुछ लोग तो सही होते हुए भी शब्दों के अभाव, कमजोरी में गलत साबित हो जाते हैं। समझदारी से चुप्पी से बचते हुए मौन को साधें। चुप्पी चेहरे का रौब है और मौन मन की मुस्कान। *जीवन में मौन उतारने का एक और तरीका है जरा मुस्कराइये।*

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गौरव शर्मा
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हर ज़िंदगी एक सी नहीं होती है। दुनिया में जितनी ज़िंदगी देखेंगे उतने ही रंग भी, ज्यादातर बच्चे एक उम्र तक लगभग एक जैसा जीवन जीते हैं इसीलिए बड़े लोग चाहे कितने भी अलग प्रोफेशन में ही क्यूं न हों उनकी बचपन की यादें एक जैसी ही रहती हैं। लेकिन करीब करीब 18 वर्ष के बाद जीवन करवट बदलता है। बच्चों की आगे की राह कुछ अलग होती है और फिर धीरे धीरे जैसे उम्र बढ़ती है हम दुनियादारी की वास्तविकता से मिलते हैं। संघर्ष, भाग्य, योग्यता, सफलता, असफलता दुर्भाग्य, मजबूरी, इंतजार और तरक्की जैसे शब्द और उनका प्रत्यक्ष रूप देखने और समझने को मिलने लगता है। कोई बहुत जल्दी ही अपने लक्ष्यों को पा लेता है और कुछ थोड़ी देर से सही लेकिन ज़िंदगी में अपनी एक जगह बना ही लेते हैं। मेहनत और संघर्ष के थपेड़ों में तपा और निखरा हर व्यक्ति अपने बनाए लक्ष्यों पर गर्व करता हुआ धीरे धीरे अपने जीवन की पूर्णता की ओर बढ़ता है। इसीलिए जवानी से लगभग 45 या 50 वर्ष तक की यादें उन बचपन की यादों से मिलती जुलती न होकर कुछ अलग होती है जिसमें सबकी अपनी एक कहानी और एक यात्रा का अनुभव होता है। लेकिन कुछ लोगों के साथ चीजें दुर्भाग्य से ऐसी होती हैं जिसमें उनकी पूरी जिंदगी मानो एक लंबे इंतजार में गुजरती है। उनका बचपन शायद ठीक रहा होता है लेकिन उसके बाद उनकी जिंदगी इतनी करवट बदलती है जिसका शायद उनको भी अंदाज़ा नहीं होता और उनके बनाए सपनों के महल मानो जैसे ताश के पत्तों की तरह बिखर जाते हैं। मैंने बहुत से लोगों को करीब से समझा है 20 वर्ष के बाद वो एक बनाए लक्ष्य की तरफ बढ़ते हैं और उनके जीवन में कुछ करने की एक चाह जन्म लेती है। उनकी पढ़ाई उसी दिशा में होती है और करियर भी वो वैसा ही पा लेते हैं। शायद वो जीवन की गंभीरता को समझते हैं या फिर लक्ष्य उनको पकड़ता है इसके बारे ने सटीक सटीक कहना अभी मुश्किल है लेकिन उनके कर्म और उनके लक्ष्य का एक तालमेल निश्चित ही बनता है। ईश्वर, करियर, रिश्ते ये शायद भटकाव का बचाव ही हैं। मन में जब जन्म और मृत्यु का प्रश्न आता है तब ईश्वर की मान्यता उसका जवाब है। ईश्वर ने दुनिया रची इसपर कुछ को छोड़कर सभी लोग सहमत हो जाते हैं। ऐसे ही जीवन क्या करना है? इस प्रश्न का उत्तर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और उसके बाद नौकरी या व्यवसाय है जहां ये प्रश्न आपको परेशान नहीं करता है और मैं कौन हूं? उसके लिए आप रिश्तों और परिवार की मान्यता में उलझे ही हैं। लेकिन अगर आप लक्ष्य को या लक्ष्य आपको नहीं पकड़ सका है। आप संसार की इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है। आप स्वयं के होने, जीवन में स्वयं को पाने और जीवन मृत्यु के बीच के अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों में उलझे हैं तब आप स्वयं को भाग्यशाली समझे या दुर्भाग्यशाली इसका जवाब समय तय करेगा लेकिन इस स्थिति से निकलने के लिए आपको संसार के किसी भी संघर्ष से कहीं ज्यादा संघर्ष करना पड़ेगा और फिर ये निश्चित है कि उसके बाद निकले सूरज का अस्त होना असंभव है। शायद तब सत्य और असत्य, वास्तविकता और अवास्तविकता से परे आपको जो है और जैसा है वो देखने और समझने वाले एक दृष्टा के दर्शन हो सकेंगे, इसीलिए संसार के बनाए प्रश्नों और उनके उत्तरों को परे रखकर शून्यता की ओर कदम रखिए।