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विनोद खन्ना की ज़िन्दिगी के 8 किस्से, मौत का वो अनुभव जो ओशो के पास ले गया…

विनोद खन्ना के 8 किस्से, मौत का वो अनुभव जो ओशो के पास ले गया…
जब चलते करियर के बीच विनोद खन्ना ने सन्यास ले लिया…
विनोद खन्ना (6 अक्टूबर, 1946- 27 अप्रैल, 2017) हिंदी सिनेमा के सबसे सेलिब्रेटेड एक्टर्स में से एक. उनकी कमर्शियल बॉलीवुड फिल्मों में ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘चांदनी’, ‘ख़ून पसीना’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘राजपूत’, ‘हेरा फेरी’, ‘बंटवारा’, ‘दीवानापन’, ‘दबंग’ और ‘दिलवाले’ जैसे नाम हैं. वहीं कुछ ऐसी फिल्में भी उन्होंने की थीं जिन्हें बहुत प्रमुखता से नहीं गिना जाता मगर वे शायद बहुत अधिक आकर्षक हैं. जैसे – ‘मेरे अपने’, ‘शक़’, ‘लेकिन’, ‘रिहाई’ और ‘मीरा’. उन्हें याद कर रहे हैं इन किस्सों में।
सोर्स : लल्लन टॉप

आठ साल के थे तो विनोद साधुओं के पास फिरते थे
पेशावर में 6 अक्टूबर, 1946 को जन्मे विनोद खन्ना के पिता बिजनेसमैन थे. कपड़े, डाई और केमिकल्स का काम था. अगले साल भारत-पाकिस्तान का बंटवारा और गया और उनके पिता को बंबई आना पड़ा. वहां भी उनका कारोबार था लेकिन शुरू में रिश्तेदारों और दोस्तों के घर आसरा लिया. विनोद के तीन बहनें और एक भाई था. बंबई में उन्हें कॉन्वेन्ट स्कूल में भर्ती करवाया गया. स्कूल में वो पढ़ाई में अच्छे थे और अपने शिक्षकों के भी फेवरेट थे. इसी दौरान उनमें जीवन के लेकर एक दूसरी तरंग भी थी जो बाद में उनकी जिंदगी का प्रमुख हिस्सा बनी. आठ बरस के थे तो विनोद साधुओं के पास चले जाते थे. किसी को हाथ दिखाते थे और किसी के पास आंखें बंद करके बैठ जाते थे. ध्यान लगाते थे. यही वो हिस्सा था जो उनके फिल्मों में सफल होने के बाद वापस लौटा और उन्होंने शीर्ष पर होने के दौरान एक्टिंग छोड़ दी और संन्यास ले लिया।

‘मुग़ल-ए-आज़म’ देखी तो सम्मोहित होकर रह गए
जब विनोद 11 साल के थे तब परिवार दिल्ली के पटेल नगर में शिफ्ट हो गया. वहां डीपीएस में पढ़ने लगे. पढ़ाई में अच्छे थे ही, खेलों और नाटकों में भी हिस्सा लेते थे. जब 9वीं क्लास में आए तो परिवार फिर बंबई आ गया और उनको देवलाली के बोर्डिंग स्कूल में भर्ती करवा दिया गया. विनोद खुद याद करते थे कि बोर्डिंग ने उन्हें मजबूत बनाया. घर से दूर रहते हुए ये वही समय था जब फिल्मों ने उन्हें आकर्षित किया. 1960 में के. आसिफ की फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ रिलीज हुई. विनोद ने थियेटर में फिल्म देखी और सम्मोहित होकर रह गए।

डिक्टेटर पिता तय करते थे वीकेंड में पार्टी कर सकते हैं या नहीं
विनोद साइंस के स्टूडेंट थे. होशियार थे. इसी क्षेत्र में आगे इंजीनियर बनना चाहते थे लेकिन उनके पिता को ये पसंद नहीं था. वे चाहते थे कि विनोद कॉमर्स की पढ़ाई करें और परिवार का बिजनेस संभालें. उनके पिता काफी सख्त आदमी थे और दोनों में एक किस्म की तनातनी बनी रहती थी. कॉलेज में थे तब उन्हें वीकेंड पर पार्टी भी करनी होती तो पिता से परमिशन लेनी पड़ती थी. पिता ने उनसे बिना पूछे बंबई के एक कॉमर्स कॉलेज में दाखिला भी करवा दिया. उन्होंने कभी विनोद से नहीं पूछा कि उनको क्या करना है, हमेशा आदेश ही दिया कि ये करो. इस माहौल के कारण पिता के प्रति बाग़ी होते गए. कॉलेज में वो थियेटर कर रहे थे. उनकी कई गर्लफ्रेंड भी थीं और इसी दौरान उन्हें गीतांजलि भी मिली जिनसे उन्होंने बाद में शादी की जिनसे उन्हें अक्षय व राहुल हुए।


एक पार्टी में सुनील दत्त ने पहली फिल्म ऑफर की
विनोद खन्ना के गुड लुक्स और एक संयोग ने उनके लिए फिल्मों में आने की राह बनाई. तब बंबई में एक पार्टी के दौरान सुनील दत्त से उनका मिलना हुआ. तब दत्त अपने छोटे भाई सोम दत्त को लेकर एक फिल्म प्लान कर रहे थे. इसमें दो हीरो थे. दूसरा वाला रोल उन्होंने विनोद को ऑफर किया. ऑफर तो लाइफ-चेंजिंग था लेकिन रास्ते में बड़ा वाला रोड़ा था जिसने करीब-करीब विनोद का फिल्म करियर शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया था. वो थे उनके पिता किशनचंद खन्ना. पार्टिशन के थपेड़ों से निकलकर आए और कारोबार करके सरवाइव करने का संघर्ष करते हुए उनके लिए बॉलीवुड सम्मान की चीज कभी नहीं रही. और वे बहुत स्पष्ट थे कि बेटा अगर बॉलीवुड में जाने का नाम लेगा तो गोली मार देंगे. अंत में विनोद की मां ने किशनचंद को राज़ी किया कि बेटे को फिल्मों में जाने दें. विनोद ने भी कहा कि वे एक बार उन्हें अपने आपको आजमाने दें, अगर वे दो साल में फिल्म इंडस्ट्री में कुछ नहीं कर पाते हैं तो वो फैमिली बिजनेस संभाल लेंगे. फरवरी 1969 में ‘मन का मीत’ रिलीज हुई और विनोद को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. इस फिल्म के रिलीज होने के एक हफ्ते के अंदर वे 15 अन्य फिल्में साइन कर चुके थे।

मौत का वो अनुभव जो ओशो के पास ले गया था
विनोद अपने स्पिरिचुअल ख़यालों से गुजर ही रहे थे. किताबें पढ़ रहे थे. तब महेश भट्ट भी ओशो को सुनते थे. ‘गाइड’ जैसी क्लासिक बनाने वाले डायरेक्टर विजय आनंद ओशो से संन्यास ले चुके थे. खन्ना भी ओशो को सुनने लगे और आकर्षित हुए. उन्हें अपने सवालों के जवाब मिलने लगे. जब वे 26-27 साल के थे उन्हें मौत को लेकर ऐसे अनुभव हुए कि वे ओशो के पास चले गए. विनोद ने बताया था, “मौत ने जिंदगी की सच्चाई से मेरा सामना करवा दिया. मेरे परिवार में छह-सात महीने में चार लोग एक के बाद एक मर गए. उनमें मेरी मां भी थी. मेरी एक बहुत अजीज़ बहन थी. मेरी जड़ें हिल गई. मैंने सोचा, एक दिन मैं भी मर जाऊंगा और मैं खुद के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूं. दिसंबर 1975 में एकदम मैंने तय किया कि मुझे ओशो के पास जाना है. मैं दर्शन में गया. ओशो ने मेरे से पूछा, क्या तुम संन्यास के लिए तैयार हो? मैंने कहा, मुझे पता नहीं. लेकिन आपके प्रवचन मुझे बहुत अच्छे लगते है. ओशो ने कहा तुम संन्यास ले लो. तुम तैयार हो. बस, मैंने संन्यास ले लिया।”

झेन गुरु की वो कहानी जिसने उन्हें आनंदित होना सिखाया
“एक चोर कहीं से भागता हुआ निकला. वहां पर एक झेन गुरु ध्यान में बैठा हुआ था. पुलिस आकर इस गुरु को चोर समझकर पकड़ ले जाती है. उसे जेल में बंद कर देती है. गुरु कहता है, जैसी उसकी (ईश्वर) मर्जी. वह ये भी नहीं कहता कि मैंने चोरी नहीं की. वह सोचता है कि इसमें अस्तित्व का कोई राज है. अब जेल में भी गुरु ध्यान में लीन रहने लगा. उसके कारण और कैदी भी ध्यान करने लगे. 3-4 साल बाद असली चोर पकड़ा गया. पुलिस ने झेन गुरु को छोड़ दिया. कहने लगे, हमें माफ कर दें. गुरु ने कहा, नहीं, अभी मुझे मत छोड़ो. मेरा काम पूरा नहीं हुआ है।”

(ये कहानी ओशो ने उन्हें सुनाई थी और उसके बाद कहा, हम सभी जेल में है. कोठरी में है. एक जैसी सात बाई सात की कोठरी (जिसमें पूना आश्रम में विनोद रहते थे) है. चाहे वह जेल के अंदर हो चाहे बाहर हो. जब तक हम समग्रता से अपना काम नहीं करते तब तक कोठरी से बाहर नहीं हो सकते.

विनोद खन्ना ने इस लेकर कहा था, “यह कहानी मेरे भीतर गहरे प्रवेश कर गई. मैं अपने को और दूसरों को भी कोठरी में बंधा देखने लगा. मुझे यह भी दिखाई दिया कि मैं अभिनय में सब कुछ दांव पर नहीं लगाता. मेरा रजिस्टेंस हुआ करता था फिल्मी गीतों के प्रति. मुझे भीतर से लगता था, क्या बकवास है. तो पूरी तरह से उनमें उतर नहीं सका. मेरे किरदार हों, मेरी फिल्मों की कहानी हो, डायरेक्शन हो, हर चीज में मेरी नापसंदगी बनी रहती थी. अब मुझे पहली बार लगा कि हर आदमी की अपनी स्पेस होती है. और मेरी तरह वह भी उससे बंधा हुआ है. इसलिए मुझे हर व्यक्ति का सम्मान करना चाहिए. बस इतना सा फर्क करते ही काम में मुझे इतना आनंद आने लगा कि क्या बताऊं. हर एक के प्रति स्वीकार भाव आ गया. मेरा आनंद लोगों पर भी असर करने लगा।”)
महेश भट्ट थे उनकी पूरी जर्नी के साक्षी

दोनों के करियर साथ ही में शुरू हुए थे. विनोद खन्ना डायरेक्टर राज खोसला की फिल्म ‘मेरा गांव मेरा देश’ (1971) में डाकू जब्बर सिंह का नेगेटिव रोल कर रहे थे. और उसी फिल्म में प्रोडक्शन मैनेजर थे महेश भट्ट. यहीं से दोनों की दोस्ती हुई. बाद में भट्ट ने जब ‘लहू के दो रंग’ (1979) डायरेक्ट की तो उसमें खन्ना ने लीड रोल किया. महेश ही थे जो उन्हें ओशो के पास लेकर गए थे. हालांकि बाद में भट्ट का मन ओशो से उठ गया लेकिन विनोद अपना सबकुछ छोड़कर ओशो के साथ अमेरिका के ओरेगन चले गए. बाद में जब वहां ओशो को गिरफ्तार कर लिया गया और रजनीशपुरम आश्रम बंद कर दिया गया तो विनोद लौट आए. इसके बाद उन्होंने फिर फिल्में करनी शुरू कीं. ब्रेक के बाद उनकी पहली रिलीज मुकुल आनंद की ‘इंसाफ’ (1997) रही जो हिट गई. महेश भट्ट ने भी उन्हें ‘जुर्म’ जैसी फिल्में ऑफर कीं।

अमिताभ और विनोद खन्ना के बीच असुरक्षा का सच
इन दोनों ने साथ में कई यादगार फिल्में कीं जैसे – हेरा फेरी (1976), ख़ून पसीना (1977), अमर अकबर एंथनी (1977), परवरिश (1977) और मुकद्दर का सिकंदर (1978). इनमें से एक भी फिल्म ऐसी नहीं थी जिसमें अमिताभ विनोद से इक्कीस लगे हों, दोनों ही प्रभावी थे. अपनी स्क्रीन प्रेजेंस में विनोद कहीं-कहीं अमिताभ को ओवरपावर भी करते थे. अमिताभ लगातार फिल्में करते गए और विनोद अपनी स्पिरिचुअल खोज के चलते अनियमित और अमहत्वाकांक्षी रहे. माना गया कि वे फिल्में छोड़ अमेरिका नहीं जाते तो आज अमिताभ बच्चन के बराबर महानायक का रुतबा होता. फिर जब 1987 के करीब विनोद लौटे तो अमिताभ की फिल्में फ्लॉप जाने लगीं और उन्होंने करियर में विराम ले लिया. लेकिन कौन बेहतर था वाली डिबेट में लोग और फिल्म जर्नलिस्ट जैसा सोचते हैं वैसा विनोद खन्ना नहीं सोचते थे. उनसे पूछा भी गया कि आप बॉलीवुड नहीं छोड़कर जाते तो बच्चन के सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी होते. इस पर खन्ना ने कहा था, “नहीं, ऐसा नहीं है. बच्चन की लोकप्रियता हमेशा से रही है. वो शोले और दीवार जैसी फिल्में कर चुके थे. निश्चित रूप से वो बहुत अच्छे एक्टर हैं. उनका करियर बहुत ही अद्भुत रहा है।”