साहित्य

वह महज़ 14 साल की थी जब पहली बार घर से भागी…

नज़रबट्टू (अपना अपना नजरिया )
रवि हाल में ही एक ढाबे में मैनेजर की जगह नियुक्त हुआ था | अच्छा खासा ढाबा था और यह नौकरी में बड़ी मुश्किल से उसे मिली थी | जब कोई चीज़ मुश्किल से मिलती है तो उसकी कीमत भी पता चलती है |वो बड़ी सतर्कता से काम में जुटा रहता – ग्राहकों पर नजर रखना ,पैसे का हिसाब रखना सब कुछ |
ढाबा में अंदर बैठकर खाने की व्यवस्था नहीं थी | ऐसा था कि खाना लो और वही किसी बेंच पर बैठकर खा लो |
अपने 10 दिन के काम में ही उसने नोटिस किया कि हर दूसरे दिन एक आदमी आता है ,भीड़ का फायदा उठाकर खाना खाता है और बिना पैसा दिए चला जाता है|


नई नौकरी की वजह से वो कोई तात्कालिक कार्यवाही नहीं करना चाहता था| उसने सबसे पहले यह बात ढाबे के मालिक को बताई|मालिक ने कहा जब वो आये तो उसे दिखा देना |
दूसरे दिन वो आदमी फिर आया ,भीड़ का फायदा उठाकर ,उसने काउंटर से खाना भी ले लिया और कोने में खाने लगा तभी रवि की नज़र उसपर पड़ी और वो ढाबे के मालिक से बोल पड़ा ” देखिये ,देखिये वही है ,वो दाहिने तरफ की बेंच पर बैठा है ,कितना नुकसान हो गया इन वर्षो में ,ना जाने कितने दिनों से इसने खाने के पैसे नहीं दिए |
ढाबे का मालिक मुस्कुरा कर बोला ” इसे तो मैं जानता हूँ ,जब से ढाबा खोला है तबसे आता है यह ,खाना खाता है चला जाता है |
फिर आपने इसपर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की ? रवि की आश्चर्य भरी नजरे उसपर अभी भी टिकी थी |
देखो रवि ,पहले ये आदमी ,सामने पेड़ हैं न ,उसके पीछे खड़ा रहता है ,फिर भीड़ बढ़ने पर ढाबे में आता है | वो शायद ईश्वर से मनाता है कि ढाबे में भीड़ हो ,क्योंकि जब ढाबे पर भीड़ होगी तभी वो भी भीड़ में छुपकर खाना खाने आ पायेगा | मुझे विश्वास है इस भूखे की पुकार ईश्वर सुनते हैं और मेरे ढाबे पर भीड़ हो जाती है | मुझे तो यह आदमी अपने ढाबे के लिए नज़रबट्टू लगता है जिसके वजह से बिजनेस भी अच्छे से चलता है और किसी की नज़र भी नहीं लगती क्योंकि ईश्वर की कृपा बनी रहती है ढाबे पर!
अमृता श्री


प्रेमचन्द 4 जून, 1934 को बम्बई पहुँचे। तीन दिन बाद शिवरानीदेवी को लिखा “मैं तुमसे विदा होकर बम्बई ख़ैरियत से पहुँच गया हूँ। यहाँ स्टूडियो का काम भी देखना शुरू कर दिया है… मुझे तो तुम लोगों के बिना इतनी बड़ी बम्बई होते हुए भी सूनी ही मालूम होती है। यही बार-बार इच्छा होती है कि छोड़-छाड़कर भाग खड़ा होऊँ..बार-बार यह झुंझलाहट होती है, कहाँ से यह बला भी ले ली। मैंने अभी मकान नहीं लिया है, मकान ले लेंगे तो वह सूना घर मुझे और खाने दौड़ेगा। इस ख़्याल से मैं मकान के लिए सोचता ही नहीं हूँ। मकान तो उसी समय लूँगा,‌‌‌ जब तुम्हारा पत्र आने के लिए आ जाएगा। और मकान ही लेकर सीधा तुम्हारे पास लेने को आऊँगा। ग्यारह दिन बाद “तुम लिखती हो कि 22 जून की शादी है और दूसरी बहन के यहाँ जो शादी है वह 28 जून की है। मेरी समझ में नहीं आता कि ये शादियाँ उन लोगों के घर हों, तो उसका तावान अकेला मैं दूँ। मैं समझता हूँ कि तुम जुलाई के पहले आने का शायद नाम न लोगी। अच्छा, बेटी और ज्ञानू आ गए हैं, यह सुनकर मुझे ख़ुशी हुई। तुम तो इन सबके साथ ख़ुश हो, इधर मैं सोचता हूँ कि एक-डेढ़ महीने कैसे बीतेंगे। इसे समझ ही नहीं पाता हूँ। आख़िर काम ही करूँ, तो कितना करूँ। आख़िर बैल भी तो नहीं हूँ, फिर आदमी के लिए मनोरंजन भी तो कोई चीज़ होती है। मेरा मनोरंजन तो सबसे अधिक घर पर बाल-बच्चों से ही हो सकता है। मेरे लिए दूसरा कोई मनोरंजन ही नहीं है। खाना भी खाने बैठता हूँ तब भी अच्छा नहीं मालूम होता, क्योंकि यहाँ साहबी ठाट-बाट हैं और साहब बनने से मेरी तबीयत घबराती है। वहाँ होता, ज्ञानू आया था, उसको खिलाता। अब तो वह ख़ूब साफ़ बोलता होगा। अच्छा, बन्नू और धुनू का क्या हाल है? बेटी तो अच्छी है न? इन सबको मेरी तरफ़ से प्यार कर देना। ये सब तो ख़ुश होंगे, क्योंकि शादी है। मेरी तो यह समझ में नहीं आता कि जो लोग घर बार से अलग रहते होंगे, वे कैसे रहते हैं। मुझे तो यह महीना-डेढ़ महीना याद करके मेरी नानी मरती है कि किस तरह ये दिन कटेंगे। क्या करूँ, किसी तरह से काटना होगा।” * ये पत्र‌ प्रेमचंद‌ ने अपनी पत्नी शिवरानी देवी के नाम अपने बंबई प्रवास‌ के‌ दौरान लिखे थे। जब वे फिल्मों में काम करने के लिए वहाँ गए थे।
स्रोत : क़लम का मज़दूर किताब से

Sanjaya Shepherd 

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वह महज़ 14 साल की थी जब पहली बार घर से भागी और देर रात गए गोवा के समुद्र तटों पर बैठकर आसमान के तारे देखा करती थी। बिलकुल अकेले, उसके साथ कोई नहीं था। बस वह थी और शांत समुद्र की आंखों में झांकता आकाश। इस तरह से उसका पहला परिचय समुद्र से हुआ। गोवा की भीड़भाड़ भरी जिन्दगी में शांत और सोई हुई रातें उसे बहुत ज्यादा पसंद थी।

कुछ दिन बड़े आराम से कटे लेकिन जब पैसे खत्म होने लगे तो दुनिया का असल सच समझ में आया। एक दिन उसके सारे पैसे खत्म हो गए। हॉस्टल के बेड के लिए भी पैसे नहीं बचे तो उसी हॉस्टल में वैलेंटियरिंग कर लिया। पर समुद्र तट पर बैठकर देर रात गए तारों को देखना नहीं छोड़ा। वह रात के तारों के मध्य जाने क्या ढूंढा करती थी।

इस तरह से कई साल बीत गए। ना तो घर वालों ने कभी उसे याद किया और ना ही उसने कभी घर की तरफ मुड़कर देखा। वह गोवा के सर्द, गर्म और बरसात यानि कि हर मौसम से परिचित होती गई और जब 17 कि हो गई तो उसने अपना एक कैफे खोला। इस दौरान कई देसी विदेशी सैलानियों से मिली। उनके साथ कई देशों की यात्रा की और 22 की उम्र में अपनी ट्रैवल कम्पनी खोली जो दुनिया भर की लड़कियों को बाइक राइडिंग कराती थी।

यह लड़की कौन थी? क्या करती है? मुझे कुछ नहीं मालूम। एक रात अचानक ही इंस्टाग्राम पर एक मैसेज आया। रात के तकरीबन दो बज रहे थे। उसने पूछा क्या तुमसे बात हो सकती है? मैंने कहा हां बोलो। वह बोली ऐसे नहीं फोन पर, मैं थोड़ी देर में तुम्हें वीडियो कॉल करूंगी। इतनी रात गए वीडियो कॉल? मुझे सहज नहीं लगा लेकिन असहज होने वाली कोई बात नहीं थी।

वह बोली तुम्हें दो साल से तुम्हें फेसबुक पर फॉलो कर रही हूं। कई बार सोचा तुमसे बात करूंगी लेकिन नहीं कर पाई। मुझे तुम्हारा लिखा बहुत अच्छा लगता है। रात को आसमान देखने से भी अच्छा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या जवाब दूं। वह बहुत खुश नजर आ रही थी बिलकुल ही उन्माद से भरी हुई। इतनी बेफिक्र जैसे कि उसके जीवन में कोई दुख ही नहीं हो।

वह बोली, तुम्हें पता है मैं कहां हूं? स्पीति में, मुझे तुम्हें स्पीति का आसमान दिखाना था। वह भी टिमटिमाते चांद तारों से भरा हुआ। मैंने कहा दिखाओ ना और उसने फोन का लेंस आसमान की तरफ घूमा दिया। सचमुच आसमान बहुत ही सुनहरा था। उसी की तरह कुछ देर तक मैं भी चांद तारों की अनजान दुनिया में खो गया।

थोड़ी देर बाद जब लौटा तो बोली क्या दिखा? मैंने कहा बहुत कुछ। चांद, तारे आसमान। और तुम्हें? वह कुछ देर चुप रही। फिर बोली, मुझे भी बहुत कुछ। मैंने पाया कि उसकी आंखों में एक उदासी है। जिसे वह जाहिर नहीं करना चाहती, वह बस अपनी हंसी को जाहिर करना चाहती है। पर आंसू कि एक बूंद टूटकर उसके गालों पर लुढ़क आई।

मुझे नहीं पता उस दिन क्या हुआ था? कौन सी बात उसकी स्मृति में उभर आई थी। लेकिन उस दिन के बाद से मेरी उससे कभी कभार बात हो जाया करती थी। खासकर, वह जब किसी नए शहर में होती। वह वीडियो कॉल करके मुझे देर रात गए आसमान दिखाया करती थी। इस तरह से हम वर्षों तक एक दूसरे से जुड़े रहे।

यह जुड़ाव कोई बहुत ज्यादा गहरा नहीं था लेकिन मुझे सकून देता था। वह एक ऐसी लड़की थी जिसने मुझे आसमान को पढ़ना और चांद तारों से बात करना सिखाया। इसलिए, कभी कभार मैं भी उसे कॉल करने लगा। उसे मेरी बातें अच्छी लगती थी। खासकर, वह जो जगहों और लोगों के बारे में होती थी। वह कभी कभी यह भी कहती थी कि कभी मेरे बारे में भी कुछ लिखना और मैं हंसकर टाल देता था।

नवम्बर में मेरी वेस्टर्न घाट की ट्रिप शुरू होनी थी। जिसकी वजह से सितम्बर से ही मेरी बातें कम होने लगी और नवम्बर आते आते पूरी तरह से खत्म हो गई। मैं गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के बीच महीनों तक खोया रहा और लगभग आठ महीने का समय बीत गया।

एक दिन अचानक ही मुझे वह लड़की याद आई। मैंने अपना इंस्टाग्राम खंगाला तो उसका लास्ट मैसेज अक्टूबर का था उसने मेरे बर्थडे पर वीडियो कॉल किया था। पोस्ट पर गया तो उसकी लास्ट पोस्ट जनवरी की है जिसमें उसने अपने डिप्रेशन, बाईपोलर और इमोशनल डैमेज का जिक्र करते हुए एक वीडियो डाला हुआ था।

मुझे समझ में नहीं आया कि इस हद तक बेफिक्र दिखने वाली लड़की अन्दर से इतनी सारी चीजों से एक साथ जूझ रही होगी। मैंने उसे कॉल करने किया। पूरी पूरी रिंग जाने के बाद भी फोन नहीं उठा। कई तरह के डर, कई तरह की आशंकाओं के बीच मैंने उसे बहुत ही शिद्दत से याद करते हुए यह पोस्ट लिखा।

सिर्फ यह बताने के लिए कि जरूरी नहीं जो लोग दुनिया के सामने खुश दिखाई दे रहे हैं, वह खुश ही हैं।

अपने आसपास के लोगों का ख्याल रखिए, खासकर उन लोगों का जो सोशल मीडिया पर बहुत ज्यादा खुश दिखाई दे रहे हो। ऐसे शो कर रहे हो जैसे कि उनके जीवन में कोई प्राब्लम ही नहीं। प्राब्लम होना प्राब्लम नहीं है, जीवन है तो दुःख तो होगा ही। यह बहुत ही सामान्य है, लेकिन उस दुःख को जाहिर नहीं कर पाना असामान्य है। एक दो ऐसे कंधे तो होना ही चाहिए, जिसपर अपना सिर रखा जा सकें।

– संजय शेफर्ड