साहित्य

वह अंधेरा भविष्य का था या हमारे अतीत का…

Dinesh Shrinet
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उसने अधजली सिगरेट ज़मीन पर फेंकी. जूते से उसको मसला और चल पड़ा. हमारे चेहरों पर सड़क पर लगे लैंप पोस्ट की रोशनी पड़ रही थी. वहां से हम विपरीत दिशा में चले और अपने-अपने अंधेरे में खो गए. वह अंधेरा भविष्य का था या हमारे अतीत का… हम कभी तय नहीं कर पाए. पर अक्सर जब हम बातें करते तो अतीत, वर्तमान और भविष्य गडमड हो जाया करते थे.

हम बातें करते हुए बहुत बार अतीत में खो जाते थे. इतने ज्यादा कि लगता था जो अतीत में बीता था, वह सच था और अभी इस वक्त जब हम हाथों में अपने-अपने ग्लास लेकर जगमगाती रोशनियों और जहां-तहां खूबसूरत चेहरों के बीच बैठे हैं, वह कोई ख़्वाब है. जिसे किसी भी पल तिलिस्म की तरह टूट जाना है. पर हम तीसरे ग्लास की आखिरी घूंट तक यह नहीं तय कर पाते कि अगर यह तिलिस्म टूटेगा तो बाकी क्या रह जाएगा? वही अंधेरा जिसमें हम हर बार खो जाते हैं?

हमें तिलिस्म के टूटने का इंतज़ार था. इस उम्मीद में हम अपने ग्लास दोबारा भर लेते थे. तब तक जब तक हमारे आसपास का हर इंसान भूतैली परछाइयों में न तब्दील हो जाता. जब तक बाज़ार का शोरगुल भीतर उग आए जंगल की सांय-सांय में नहीं खो जाता. जब भीतर के जंगल का सन्नाटा हवास पर छाने लगता तब हम अपने पैरों पर भरोसा करते हुए उठते. भूतों को अलविदा कहते और बाहर सड़क पर आ जाते. वह फिर से एक सिगरेट सुलगाता तो मुझे याद आता… उसने बारिश में सिगरेट सुलगाई थी, उसने तपती दोपहर में सिगरेट सुलगाई थी, उसने कोहरे में, उसने पतझड़ में, उसने आँधी में, उसने तूफान में… सिगरेट सुलगाई थी.

लाइटर का वह दबा-कुचला खटका सुनाई देता और एक पीली लौ के भीतर लाल धब्बा बन जाता. मैं देखता उसके चेहरे को धुएं की तरह कांपते हुए. कई बार ऐसा लगता जैसे धुएं की तरह उसका चेहरा उड़ जाएगा. मैं पसीने-पसीने हो जाता. खुद की शक्ल को किसी दुकान के बाहर लगे आइने में देखता. अपना चेहरा देखना यूँ तो मुझे पसंद नहीं था. घर के बाहर लगे आइनों में अपना वजूद किसी ऐसे अजनबी की तरह लगता था, जिसके पास हमारे सारे राज़ मौजूद हैं. इसलिए मैं ‘उसे’ यानी खुद को बेहद नापसंद करता था.

वह आधी सिगरेट फेंक कर उसे जूते से मसल देता. हम विपरीत दिशा मे चल पड़ते और अपने-अपने अंधेरों मे खो जाते… कभी तय नहीं कर पाते कि वह अंधेरा हमारे अतीत का था या भविष्य का…