साहित्य

लघुकथा….*क्या हम अपने बच्चों को कुछ भी नहीं कह सकते*…By-लक्ष्मी कुमावत

Laxmi Kumawat
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लघुकथा
*क्या हम अपने बच्चों को कुछ भी नहीं कह सकते*
दो दिन पहले एक बड़ा ही दुखद वाक्या हुआ। परीक्षाओं का सीजन चल रहा है। बच्चों को पढ़ाई पर पूरा ध्यान हो, इस कारण एक पिता ने ऑफिस जाने से पहले अपनी दोनों बेटियों से कहा,
” बेटा अब तुम्हारे एग्जाम्स होने वाले हैं। अब तुम लोगों का पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर होना चाहिए। इसलिए मोबाइल मुझे दे दो। शाम को जब मैं घर आऊंगा, तब तुम दोनों को एक घंटा मोबाइल चलाने के लिए दे दूंगा। पर इस बीच तुम मोबाइल इस्तेमाल नहीं करोगी “

बड़ी बेटी समझदार थी। अच्छे से समझती थी कि पापा उसके भले के लिए कह रहे हैं। इसलिए उसने मोबाइल निकाल कर पापा को दे दिया।

लेकिन छोटी बेटी जो महज तेरह साल की थी, वो अपने पापा से बहस करने लगी,

” पापा मैं मोबाइल नहीं दूंगी। मुझे मोबाइल से पढ़ाई करनी होती है। आपको पता है ना यूट्यूब पर कितने सारे वीडियो होते हैं जो पढ़ाई से रिलेटेड होते हैं। मैं उससे पढ़ूंगी”

“बेटा किताबें है ना। उससे पढ़ो। किताबों से अच्छा ज्ञान का भंडार कोई नहीं होता”

पापा ने भी तर्क दिया।
” पापा आप तो हमेशा अपने जमाने की बातें करने लग जाते हो। दीदी को तो पर्सनल मोबाइल दिला रखा है। मेरे पास तो ये पुराना सा मोबाइल है वो भी आप लेने में लगे रहते हो। मैं नहीं दूंगी तो नहीं दूंगी”

बेटी ने अपनी आवाज ऊंची करते हुए कहा।
” बस करो। अपने पापा से जबान लड़ा रही हो। ये मेरा मोबाइल है, चुपचाप इधर रखो। ऐसी कौन सी पढ़ाई हो रही है मोबाइल से। स्कूल वाले सब कुछ तो लिखवाते हैं कॉपी में। फिर मोबाइल क्यों चाहिए”

मां ने बेटी को डांटते हुए कहा।
” दे देना मोबाइल। पापा घर पर ही तो रखकर जा रहे हैं। जब बीच में बोरियत होगी तो ले लेंगे”

बड़ी बहन ने उसे समझाते हुए कहा। आखिर थक हार कर उसने मोबाइल दे दिया।

पापा मोबाइल रखकर ऑफिस चले गए। मम्मी अपने रोजमर्रा के कामों में लग गई। छोटी बहन का मूड सही करने के लिए बड़ी बहन पड़ोस की दूकान से स्नेक्स लेने चली गई।

जब तक वो लौटी तब तक छोटी बहन अपनी ही मम्मी की साड़ी का फंदा लगाकर पंखे पर झूल चुकी थी। उसकी चीख सुनकर उसकी मम्मी रसोई से दौड़ी दौड़ी कमरे में पहुंची। आखिर घर में मातम छा गया। जैसे तैसे पड़ोसियों की मदद से उसे उतारा गया। पिता ऑफिस भी नहीं पहुंचे था, उससे पहले ये खबर उस तक पहुंच गई।

अपनी बेटी के शव को देखकर माता-पिता के आंसू रुक नहीं रहे थे। कलेजा मुंह को आ रहा था। और बार-बार एक ही सवाल मुंह पर आ रहा था कि क्या हम अपने बच्चों को कुछ भी नहीं कह सकते? अब हमें अपने ही बच्चों से बोलने के लिए दस बार सोचना पड़ेगा।

✍️ लक्ष्मी कुमावत