साहित्य

रोशनाबाद कविता श्रृंखला….रामलौट हँसते हैं

Kavita Krishnapallavi
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रोशनाबाद कविता श्रृंखला
रामलौट
रामलौट लगाते हैं चाय का ठेला
सिडकुल, हरिद्वार में I
सोलह की उम्र में सिवान जिला के
बड़कागाँव से गये थे दिल्ली I
अब चालीस का होने को आये I
शादी हुई बीस की उमर में I
पाँच साल बाद बीवी मरी डेंगू से
तीन साल का बेटा छोड़
नवीन जिसका नाम था I
फिर पाला उसे रामलौट की विधवा बहिन ने
तीन साल तक I
गरमी के दिन थे जब उसे डँस लिया
गोंइठे में छिपे बैठे गेंहुअन ने I
झाड़फूँक हुआ,
चार कोस दूर सिवान लेकर भागे
पर बच न सकी I
ख़बर सुन आये भागे हुए रामलौट लुधियाना से
और वापस लौटे छ: साल के बेटे को
छाती से चिपकाये हुए I
गाँव से नेह-नाता की आख़िरी डोर टूट गयी I
तबसे रामलौट भटकते रहे
शहर-दर-शहर
बेटे को लिए साथ-साथ I
बेटे को छोड़कर किसी मज़दूर साथी के घर
जाते थे काम पर I
कई घरों की रोटी खाते,
कई शहरों की मज़दूर बस्तियों में
सड़कों पर खेलते-बौंड़ियाते
बड़ा हुआ नवीन I
गनेसी, पुरंदर, पवित्तर, रामसमुझ, गिरधारी,
हीरा, हरिराम जैसे रामलौट के कई संघातियों की पत्नियों को बूआ, काकी या मौसी कहता था
बचपन में,
उनको अभी भी याद करता है I
अक्सर फोन करता है,
गाहेबगाहे मिलने भी चला जाया करता है I
दस बरस की उमर से घर के कामकाज में
हाथ बँटाता है, भात-रोटी-दाल पका लेता है I
अब अठारह का होने को है,
इस साल बारहवीं की परीक्षा देगा I
भगतसिंह की तस्वीर वाला
स्पोर्ट्स शर्ट पहनता है,
नौजवान भारत सभा वालों के साथ घूमता है,
भगतसिंह पुस्तकालय में नियमित बैठता है,
सुबह लड़कों को पीटी-परेड कराता है,
हफ्ते में तीन दिन सावित्री फुले अध्ययन केन्द्र में
बच्चों को पढ़ाता है I
अक्सर भगतसिंह की और तरह-तरह की
दूसरी किताबें पढ़ता है आजकल I
रामलौट से कहता है, “बापू,
मज़दूर क्रान्ति के काम में
तुमको भी हाथ बँटाना चाहिए,
यह भगतसिंह का बताया रास्ता है
और मार्क्स और लेनिन का भी I”
रामलौट हँसते हैं I
अब दोपहर बाद, ठेले पर नवीन
रामलौट का हाथ भी बँटा देता है,
गिलास धोता है, गाहक मज़दूरों को
चाय के गिलास पकड़ाते हुए
पालिटिक्स भी ख़ूब बतियाता है I
जब सीज़न में माँग बहुत होती है
तो इस-उस फैक्ट्री में रात की दिहाड़ी भी
खट लेता है मर्जी मुताबिक
आठ-दस घंटे के सात-आठ सौ कमा लेता है I
जब रामलौट कहते हैं, “नाहक हाड़ गलाते हो,
अभी तो मैं हूँ ही”, तो उन्हें झिड़क देता है,
पढ़े-लिखों की भाषा में कहता है,
“बाप का खाकर नहीं होता है भगतसिंह का काम
बापू, अब मैं बड़ा हो गया हूँ I
और फिर काम करते हुए मैं फैक्ट्रियों में
काम की परिस्थितियों का अध्ययन करता हूँ I
मज़दूरों को जगाने के लिए,
दलालों को भगाकर इंक़लाबी यूनियन
और संगठन बनाने के लिए
यह भी ज़रूरी है!”
रामलौट हँसते हैं,
कभी कभी थोड़ा चिन्तित भी होते हैं I
कई शहरों में जाँगर खटाया है रामलौट ने I
तरह-तरह के कारख़ानों में हाड़ गला चुके हैं I
पहले चाँदनी चौक, दिल्ली में पल्लेदारी की,
रिक्शा भी चलाया I
फिर वज़ीरपुर के एक गरम रोला कारखाने में
काम किया
और वहाँ एक हड़ताल के बाद जब निकाल बाहर किये गये तो
थोड़ी सी जोड़ी गयी रकम,
और कुछ संघातियों के साथ उन्होंने पंजाब का रुख किया I
मण्डी गोबिंदगढ़ में किया पहले स्क्रैप कटिंग का काम I
फिर स्टील रोलिंग मिल में पसीना बहाया
इंडक्शन भट्ठी पर I
लुधियाना में दो साल साइकिल कारखाने में भी
काम किया I
धारूहेड़ा में भी कई कारखानों में काम किया I
मज़दूरी का आख़िरी काम किया मानेसर की
एक ऑटो स्पेयर पार्ट्स फैक्ट्री में
जहाँ पावर प्रेस मशीन पर काम करते हुए
उनके बाँये हाथ की दो उँगलियाँ कट गयीं I
हरजाने के नाम पर बस मिले दस हज़ार रुपये I
पुलिस और लेबर डिपार्टमेंट के साथ
मालिकों की मिलीभगत थी I
हुआ ही करती है I
फिर वहीं से शिवधनी उन्हें अपने साथ
सिडकुल, हरिद्वार लेकर आया और
दौड़धूप करके चाय का ठेला लगवाया,
बचपन का मीता जो था!
सिवान का ही रहने वाला था, बलेथा गाँव का I
रामलौट का ठेला दिहाड़ी मज़दूरों का अड्डा है
और कलावती उनकी डेली की गाहक है I
रोज़ लंच के टाइम अपनी टोली के साथ आती है,
मैगी खाकर चाय पीती है I
शाम को फिर चाय पीने आती है
तो बैठकर रामलौट से और चाय पीते
परिचित मज़दूरों से ख़ूब बतियाती है,
रामलौट से ठिठोली भी करती है I
रामलौट बहुत धीरे कभी कुछ बोलते हैं
कभी मूँछों बीच चुपचाप मुस्काते रहते हैं I
कलावती को कौन नहीं जानता !
तेरह साल से रहती है रोशनाबाद में I
पाँच साल से एक ही कारखाने में
काम कर रही है लेकिन परमानेंट नहीं हुई
जैसा कि आमतौर पर मज़दूरों के साथ यहाँ होता है I
आजकल कलावती औरत मज़दूरों की
यूनियन बनाने के लिए रात को
अपनी कोठरी में उनकी मीटिंग करती है I
सभी ठेकेदार, दलाल, दुकानदार और
बेड़ों के मालिक कहते हैं, “नौजवान भारत सभा वाले
रामलौट के लौंडे को बिगाड़ रहे हैं,
और उनके साथ वाली जो लड़की
यहाँ कई-कई दिनों तक अड्डा जमाये रहती है
वही कलावती को यूनियनबाज़ी सिखा रही है I
कलावती तो हमेशा की मनबहक और
कंटाइन है, गैंग बनाये है लड़कियों का I
उसके मुँह कौन लगे!
इन्हीं माहौल बिगाड़ने वालों का
कुछ करना होगा I”
कलावती के कानों तक पहुँचती हैं बातें
तो कहती है, “कुछ करके तो देखें,
परलय मचा देंगे!”
कलावती चौड़ी कद-काठी की औरत है,
साँवली-सलोनी, आकर्षक और ताक़तवर है,
उमर पैंतीस की I
तेरह साल पहले नजीबाबाद के किसी गाँव से
भागकर आयी थी अपने आवारा-पियक्कड़ पति के
हाथ-पैर तोड़ने के बाद I
फिर न उसे कोई खोजने-पूछने आया,
न उसने कहीं जाने की सोची I
अब तेरह बरस के दौरान यहाँ-वहाँ कभी किसी से
दिल लगा भी तो जल्दी ही उचट गया I
इधर लोगों को लगता है और नवीन को भी,
कि रामलौट और कलावती के बीच
कुछ तो है, भले ही अनकहा है I
नवीन कलावती को मौसी कहता है I
एक रात अपनी चौकी से उतर
रामलौट की चौकी पर आकर लेट गया नवीन
और बचपन की तरह उनके गले में बाँहें डाल
मनुहार करता हुआ बोला, “बापू, कलावती मौसी के साथ
घर बसा लो, वह तुम्हारे दिल में रहती है,
मैं जानता हूँ I
मुझे भी बहुत अच्छी लगती है, मानती भी बहुत है I
मैं अब बड़ा हो गया हूँ
मेरी चिंता छोड़ो, थोड़ा जी लो!
कबतक तपस्या करोगे!”
रामलौट हँसने लगे, फिर उसे धौल जमाकर
बोले, “चुप ससुर!
बाप से ऐसी बातें करते हैं?”
नवीन रुका नहीं, कहने लगा, “दो कमरों वाला
घर लेंगे अब किराये पर!
तुम तो शरमाते रह जाओगे, मुझे ही
बात चलानी होगी!”
अब जब भी फिर ऐसी बातें करता है नवीन
तो रामलौट कभी हँसते हैं, कभी चुप रहते हैं I
रामलौट चुप रहते हैं तो नवीन को
लगता है कि बात बन रही है!
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