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रिकॉर्डिंग ख़त्म करने के बाद जब रफ़ी साहब और जगदीप साथ बैठे तो जगदीप ने रफ़ी साहब की तरफ़ लिफाफ़ा बढ़ाया तो…

रफी साहब ना सिर्फ बहुत अच्छे गायक थे। बल्कि बहुत नेकदिल इंसान भी थे। कई दफा ऐसे मौके आए जब उन्होंने कई गीतों को बिना कोई पैसा लिए गाया। या किसी से काफी कम पैसे लिए। कुछ से तो मात्र 1 रुपया ही उन्होंने फीस के तौर पर वसूला था। सत्तर के दशक के आखिरी सालों में नामी कॉमेडियन जगदीप साहब ने भी एक फिल्म पर काम शुरू किया था। उस फिल्म का नाम था टाट का पर्दा। जगदीप तय कर चुके थे कि जब फिल्म के गीतों की रिकॉर्डिंग शुरू होगी तो पहला गीत वो रफी साहब से ही गवाएंगे।

रफी साहब जब इस गीत की रिकॉर्डिंग करने स्टूडियो पहुंचे थे तब उन्हें ये नहीं पता था कि इस फिल्म को जगदीप खुद प्रोड्यूस कर रहे हैं। उन्हें बस इतना ही पता था कि गीत में एक लाइन है जो उनके साथ जगदीप रिकॉर्ड करेंगे। स्टूडियो में ही उन्हें बताया गया था कि इस फिल्म के प्रोड्यूसर जगदीप हैं। रफी साहब काफी खुश हुए। जगदीप जी ने रफी साहब के साथ कई तस्वीरें उस दिन खिंचाई। रिकॉर्डिंग शुरू हुई और पहले ही टेक में रफी साहब ने गीत को पूरे परफेक्शन के साथ कंप्लीट कर दिया। रिकॉर्डिंग खत्म करने के बाद जब रफी साहब और जगदीप साथ बैठे तो जगदीप ने रफी साहब की तरफ एक लिफाफा बढ़ाया।

उस लिफाफे में कुछ पैसे थे। मगर रफी साहब ने वो लिफाफा लेने से इन्कार कर दिया। रफी साहब बोले,”मैं तुम्हें उस वक्त से जानता हूं जब तुम चाइल्ड एक्टर थे। तुम मेरे बेटे के जैसे हो। अब जब तुम एक नई शुरूआत कर रहे हो तो मैं तुमसे पैसे कैसे ले लूं। मैं अपने बेटे से पैसे नहीं लूंगा।” जगदीप जी ने वो लिफाफा वापस अपनी जेब में रख लिया। वो रफी साहब के मिजाज़ से वाकिफ थे। अगर एक दफा रफी साहब ने मना कर दिया तो इसका मतलब था कि वो किसी के कहने से भी पैसे नहीं लेंगे।

ये थे रफी साहब। ये थी उनकी शख्सियत। वैसे, वो जगदीप साहब की वो फिल्म कुछ दिनों बाद पैसे की कमी की वजह से बंद हो गई थी। और फिर लगभग आठ साल बाद जगदीप साहब ने उस फिल्म को फिर से शुरू किया। लेकिन इस दफा उन्होंने इसका नाम टाट का पर्दा से बदलकर सूरमा भोपाली कर दिया। ये फिल्म साल 1988 में रिलीज़ हुई थी। और वो गीत जो उस दिन रफी साहब ने रिकॉर्ड किया था उसे डैनी साहब पर पिक्चराइज़ किया गया था।