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#राष्ट्रवाद से दुनियांभर के लोग अब ऊब चुके हैं, रिकॉर्ड संख्या में लोग वैध या अवैध तरीकों से लगातार एक देश से दूसरे देश जा रहे हैं : रिपोर्ट

दुनिया में इतनी बड़ी तादाद में लोग अपने देश छोड़कर दूसरे देश में रहने-बसने जा रहे हैं. राष्ट्रवाद की परिभाषा कमजोर पड़ने लगी है और बदलने लगी है. लोग कब किस देश के प्रति निष्ठा दिखाएं, यह मामला जटिल होता जा रहा है.

एंटवर्प में सेंट्रल स्टेशन के सामने की सड़क पुलिस ने बंद कर थी. बारिश हो रही थी और सड़क बंद होने के कारण पैदल जाने वालों को भी भीड़ से परेशानी हो रही थी. उसी भीड़ में फुटपाथ से गुजर रहे एक बांग्लादेशी सज्जन ने कहा, “अजीब पागल लोग हैं. किसी दूसरे देश की जीत पर अपना देश फूंक रहे हैं.” दूसरा देश और अपना देश, ये शब्द मौजूदा वक्त के कुछ बड़े सवालों को समेटे हुए हैं.

दरअसल, इस हफ्ते जब वर्ल्ड कप के एक फुटबॉल मैच में मोरक्को ने बेल्जियम को हरा दिया तो बेल्जियम की सड़कों पर बवाल मच गया. कारें फूंकी गईं. दुकानों के शीशे तोड़ दिए गए और सड़कों को जाम कर दिया गया. ऐसा करने वाले बेल्जियम के वे लोग थे, जिनका मूल देश मोरक्को है. उन्हीं लोगों के व्यवहार से बांग्लादेशी मूल के बेल्जियन को दुख हुआ था.

उनके इस दुख के मूल में था राष्ट्रवाद का सवाल. प्रवासी का देश कौन सा है? और प्रवासी किस देश का है? दोनों देश के बीच से उसे किसी एक को चुनना चाहिए या नहीं?

एंटवर्प विश्वविद्यालय के राजनीति और सामाजिक विज्ञान विभाग की डॉ. समीरा अजबार कहती हैं कि मोरक्को में जो हुआ उसे शुद्ध राष्ट्रवाद के रूप में देखते वक्त सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि बहुत से कारक काम करते हैं. वह कहती हैं, “हमें अब तक हुए शोधों में दिखा है कि बेल्जियम में रहने वाले आप्रवासी समुदाय, खासकर मोरक्को और तुर्क मूल के लोग उपलब्ध संसाधनों के कारण संस्कृति, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में अंतरदेशीय गतिविधियों में शामिल रहते हैं.”

जन्मभूमि और कर्मभूमि का मेल-जोल
डॉ. अजबार का तर्क है कि भले ही ये लोग अपना मूल देश छोड़कर किसी अन्य देश में रह रहे हैं लेकिन संपर्क लगातार बना हुआ है. डीडब्ल्यू हिंदी से बातचीत में वह कहती हैं, “ऐसे शोध हैं जो दिखाते हैं कि लोग मिश्रित बेल्जो-मोरक्कन पहचान के साथ जीते हैं. उनकी निष्ठा मोरक्को के प्रति भी हो सकती है और बिना अपने मूल को भूले अपनी जन्मभूमि बेल्जियम के प्रति भी.”

ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले भारतीय मूल के लोग अक्सर इन्हीं शब्दों का प्रयोग करते नजर आते हैं. वह भारत को अपनी जन्मभूमि कहते हैं और ऑस्ट्रेलिया को कर्मभूमि. और इसी आधार पर निष्ठा को साझा करते हैं. सिडनी में रहने वाले कर्मजीत सिंह कहते हैं, ” जब भारत और ऑस्ट्रेलिया का मैच होता है तो मैं कुदरती तौर पर भारत की जीत की कामना करता हूं, हां जब ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस का फुटबॉल मैच हुआ तो मेरी पूरी निष्ठा ऑस्ट्रेलिया के साथ थी.”

दुनिया के सबसे ज्यादा प्रवासी भारतीय मूल के हैं और दुनिया के 180 से ज्यादा देशों में रह रहे हैं. वहां रहते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को वे इस सूरत में जिंदा रखे हुए हैं कि कई बार भारत के घरेलू मुद्दों पर आपस में झगड़ पड़ते हैं. मसलन, हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए क्रिकेट मैच के बाद ब्रिटेन के लेस्टर में हिंसा हो गई थी, जिसमें कई भारतीय शामिल थे.

राष्ट्रवाद से परा-राष्ट्रवाद तक
इन बंटी हुई अथवा मिश्रित निष्ठाओं को समाजशास्त्री परा-राष्ट्रवाद यानी ट्रांसनेशनलिज्म कहते हैं. जर्मनी की हुंबोल्ट यूनिवर्सिटी के ‘इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज’ में माइग्रेशन और ट्रांसनेशनलिज्म पढ़ाने वाली प्रोफेसर माग्दालेना नोविच्का अपने शोधपत्र डिस्कनेक्टिंग माइग्रेशनः ट्रांसनेशलिज्म एंड नेशनलिज्म बियॉन्ड कनेक्टिविटी में लिखती हैं कि सीमाओं के आरपार प्रवासियों के संबंध दोनों देशों की “राजनीति, अर्थव्यवस्थाओं और समाजों के साथ-साथ खुद प्रवासियों पर” भी प्रभाव डालती हैं.

डॉ. समीरा अजबार कहती हैं कि प्रवासी समुदायों के बीच यह बहुत सामान्य व्यवहार है लेकिन सार्वजनिक विमर्श में इसे समस्या के रूप में देखा जाता है, खासकर अति-दक्षिणपंथी पार्टियों द्वारा जो प्रवासी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले तत्वों को नजरअंदाज कर देती हैं. वह कहती हैं, “अपनी पृष्ठभूमि के कारण ना सिर्फ उनका मोरक्कन होने का अहसास अहम भूमिका निभाता है बल्कि यह बात भी अहम हो जाती है कि वे खुद को हाशिये पर महसूस करते हैं. अखबारों द्वारा इंटरव्यू में मोरक्को-बेल्जियन मूल के ज्यादातर लोगों को एक पक्ष चुनने को कहा गया, जो उनकी दोहरी निष्ठा पर सवाल उठाना था. कुछ लोगों ने व्यावहारिक जवाब दिया कि वे दोनों टीमों को सपोर्ट करेंगे लेकिन कुछ ने अपनी परवरिश, अपने साथ हुए भेदभाव और मोरक्को की टीम को ‘अंडरडॉग’ बताते हुए मोरक्को की टीम का समर्थन किया. और जब अंडरडॉग जीतता है तो उन्माद जन्मता ही है.”

पर सवाल तो यही है कि कोई भी प्रवासी कैसे तय करता है कि उसकी निष्ठा कब किसके साथ होगी. अमेरिका में रहने वाला भारतीय मूल का व्यक्ति अमेरिकी ग्रीन कार्ड और पासपोर्ट तक हासिल कर लेने के बाद भी कब अचानक भारतीय हो जाता है और कब अमेरिकी बन जाता है, यह कैसे तय होता है?

प्रोफेसर नोविच्का इसका आधार डीप स्टोरीज को बताती हैं, जो लोगों के मन की गहराइयों में बसी होती हैं. मन के अंदर बसी कहानियों की यह अवधारणा अमेरिकी समाजशास्त्री आर्ली रसेल होखशील्ड ने 2016 में आई उनकी किताब ‘स्ट्रेंजर्स इन देयर ओन माइंडः एंगर एंड मोर्निंग ऑन अमेरिकन राइट’ में दी थी. वह कहती हैं कि डीप स्टोरीज लोगों को एक नैतिक और भावनात्मक दिशासूचक प्रदान करती हैं. उन्हें यह अहसास दिलाती हैं कि जो वे सोच रहे हैं वो ठीक और सच्चा है. ये डीप स्टोरीज दरअसल, सांस्कृतिक जुड़ाव से आगे बढ़कर व्यक्ति के निजी संबंधों, इतिहास और ऐतिहासिक घटनाओं को भी समेटती हैं.

अंदर बसीं कहानियां
डीप स्टोरीज को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि पाकिस्तान में जन्मा व्यक्ति अगर तुर्की में रह रहा है, जहां पाकिस्तानियों को खूब इज्जत और मान मिलता है, वहां रहते हुए भी उसकी निष्ठा पाकिस्तान के प्रति बनी रहती है क्योंकि उस व्यक्ति का जन्म पाकिस्तान में हुआ है. जब वही व्यक्ति तुर्की से अमेरिका चला जाता है, तो अमेरिका और तुर्की में से उसकी भावनाएं तुर्की के प्रति ज्यादा गहरी हो सकती हैं क्योंकि मुसलमान होने के नाते उसके साथ उसका धार्मिक जुड़ाव है. ठीक इसी तरह कनाडा में जन्मे और बड़े हुए सिख आज भी अपनी जड़ों की तलाश में भारत के पंजाब पहुंचते हैं और उससे जुड़ाव महसूस करते हैं क्योंकि उस जमीन से उनका धार्मिक या अन्य कोई भावनात्मक जुड़ाव है. बहुत संभव है कि ये सिख पंजाबी भाषा तक ना बोलते हों और पंजाबी संस्कृति से भी उनका परिचय ना हो.

प्रोफेसर नाविच्का लिखती हैं, “राष्ट्रवाद सिर्फ विचारों का एक ढांचा नहीं है. वह भावनाओं के ढांचे में रिसता है.” तो जब लोग एक देश से दूसरे देश में जाते हैं, तब क्या होता है? वह लिखती हैं, “दो देशों के बीच रहने वाले प्रवासी दो तर्कों को जोड़ सकते हैं, जिनमें से हरेक विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों पर आधारित होता है. लेकिन, उनके लिए दूसरे देश में बसना एक नई और अनजान सच्चाई का सामना भी है और वे अपनी ‘डीप स्टोरीज’ को नए हालात के साथ एक कर पाने में मुश्किलें झेलते हैं.” ऐसे में वे एक अंदरूनी संघर्ष से भी गुजरते हैं, जिसके कारण ना वे पुराने समाज को छोड़ पाते हैं और ना नए समाज में घुलमिल पाते हैं.

सोशल मीडिया और संचार क्रांति के कारण बहुत मामलों में प्रवासियों के लिए रास्ते आसान हो गए हैं. उन्हें अपने अंदर की कहानियों को छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती. इसमें दो कारक उनकी खासतौर पर मदद करते हैं. एक तो उनका मूल देश भी उनकी मदद करता है जो सामाजिक-आर्थिक कारणों से उनसे संबंध बनाए रखना चाहता है. और दूसरा, नए देश में उनका विरोध होना या उनके साथ भेदभाव होना.

भावनात्मक लगाव बनाम भेदभाव
डॉ. अजबार बेल्जियम में रहने वाले मोरक्कन लोगों की मिसाल देते हुए कहती हैं, “बहुत से युवा बेल्जो-मोरक्कन मोरक्को के बारे में सोचकर भावुक हो जाते हैं कि उस देश ने उनके माता-पिता की विरासत दी है, वहां उन्होंने गर्मियों की छुट्टियां बिताईं, त्योहार मनाए या घर पर भाषा बोली. लेकिन सिर्फ यह सांस्कृतिक भावना ही भूमिका अदा नहीं करती. यह तथ्य कि अधिकतर बेल्जो-मोरक्कन लोगों को बेल्जियम में मोरक्कन ही माना जाता है, जबकि वे यहां जन्मे और पले-बढ़े हैं और आप्रवासियों की दूसरी पीढ़ी हैं. इस बात के असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.”

भारत और कनाडा में तनाव बढ़ा रहा है खालिस्तान का मुद्दा

डॉ. अजबार एक बार फिर फुटबॉल की ओर ले जाती हैं. वह कहती हैं कि मोरक्को मूल के बहुत से फुटबॉल खिलाड़ियों को बेल्जियम में तवज्जो नहीं मिलती जबकि मोरक्को का फुटबॉल संघ उन्हें अपने यहां खेलने को बुलाता है. वह कहती हैं, “मोरक्को की फुटबॉल फेडरेशन ने कई खिलाड़ियों को अपने यहां खेलने के लिए काफी जोर लगाया है. हाकिम जियेख, सोफयान अंबरबात, नौसिर मजरोई और जकारिया अबू खलाल जैसी कई मिसाल हैं. तवज्जो मिलने और माता-पिता व दादा-दादी के असर का यह संगम उनके चुनाव को प्रभावित करता है. और बहुत से युवा बेल्जो-मोरक्कन इन खिलाड़ियों को आदर्श की तरह देखते हैं.”

इस वक्त दुनिया में प्रवासन पहले से न सिर्फ कहीं ज्यादा है, बल्कि लगातार बढ़ता भी जा रहा है. भारत जैसे देश पश्चिमी देशों से श्रम बाजार में ढील देने की मांग कर रहे हैं ताकि मालों की आवाजाही की ही तरह लोगों की आवा जाही को भी आसाम बनाया जा सके. हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिटेन के साथ 3000 युवा प्रोफेशनल्स को हर साल वीजा देने कीा समझौता किया है. उधर रिकॉर्ड संख्या में लोग वैध या अवैध तरीकों से लगातार एक देश से दूसरे देश जा रहे हैं. ऐसे में राष्ट्रवाद का फीका पड़ जाना और परा-राष्ट्रवाद का उभरना एक स्वाभाविक विकास के रूप में देखा जा सकता है.

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विवेक कुमार