साहित्य

#ये_इश्क़_नहीं_आसाॅं….By-मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा
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क़िस्मत से आज वसंत पंचमी और वेलेंटाइन डे एक साथ है, इसलिए मुझे थोड़ा बहुत भरोसा है कि समाज की इज़्ज़त के ठेकेदार आज के विषय पर ट्रोल नहीं करेंगे…जो नव निर्मित संस्कृति वादी हैं उनको वसंतोत्सव के बाबत कोई जानकारी नहीं है, मैं आशा करती हूं कि बुद्धिदात्री माता सरस्वती उन्हें इतनी बुद्धि अवश्य दें कि उनको ऋतुराज वसंत और वसंतोत्सव के बाबत ठीक ठीक समझ प्राप्त हो…. जहां तक मेरी जानकारी हैं प्राचीन काल में भारत में वसंत पंचमी से ही मदनोतस्व की शुरुआत होती थी जो कि रति –कामदेव और श्री कृष्ण को समर्पित होता था….. इस दिन कुआंरे लड़कों और लड़कियों को अवसर मिलता था कि वो अपने लिए प्रेम पात्र का चुनाव करें और उसे जीवनसाथी के रुप में चुनें इस चुनाव को सामाजिक मान्यता भी प्राप्त होती थी, कुछ कुछ वैसा ही जैसा वेलेंटाइन डे पर होता है, पर कालांतर में हुआ यह कि हम सब ज़रूरत से ज़्यादा सभ्य हो गए और हमारे लिए “प्रेम” सामाजिक शर्म का विषय बन गया, इसलिए प्रेम के किसी भी उत्सव की अभिकल्पना ही हमें पीड़ित, क्रोधित और कुंठित करने लगी …. ज़ाहिरा तौर पर बतौर नतीजा हम प्रेमियों को प्रताड़ित, दंडित और अपमानित करने लगे। पर फिर भी इन सबके बावजूद प्रेम बदस्तूर जारी है और रहेगा क्यूंकि डर और असुरक्षा जैसे नकारात्मक भावों के बाद संभवतः प्रेम ही वह पहला शुभ भाव था जो एक मनुष्य ने दूसरे मनुष्य के प्रति महसूस किया था।

तबसे अब तक की अपनी यात्रा में प्रेम ने हर पड़ाव देखा है कभी मस्तक का किरीट रहा प्रेम, हृदय का कुसुम होकर आज पांव का कंटक बनकर रह गया है… आज यह स्थिति है कि मनुष्य परिस्थियों और संबंधों की ज़रा सी तेज़ आंच पर चढ़ते ही सबसे पहले जिस चीज़ का त्याग करता है वो है “प्रेम”… सबसे सरल और सुलभ त्याग प्रेम का त्याग ही होता है, धन, पद, प्रतिष्ठा, परिवार और समाज सब क्रमशः महंगे होते जाते हैं प्रेम और सस्ता और सस्ता होते जाता है, आज वेलेंटाइन डे पर किसी को फूल देकर प्रेम जताने वाला हर दूसरा व्यक्ति समय आने पर प्रेम के नाम fool बनाने में ज़रा नहीं हिचकिचाएगा, क्यूंकि प्रेम में धोखे की कोई सज़ा ही नहीं है, बल्कि समाज तो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से मानता है कि यह जो हुआ ठीक ही हुआ।

समाज जैसी कठोर और rigid व्यवस्था के लिए” प्रेम” है ही नहीं, प्रेम तो इतना सुकोमल है कि उपेक्षा के अहसास मात्र से कुम्हला जाता है, प्रेम इतना महीन अहसास है कि कोई भी कठोर स्पर्श इसे मीलों पीछे धकेल सकता है….. इतने घोर निरादर और अन्याय के माहौल में प्रेम का पनपना नामुमकिन है इसलिए हो यह रहा है कि प्रेम के कई सारे substitutes और imitations निकल रहें हैं जो बाहरी तौर पर प्रेम जैसे दिखाई पड़ते हैं लेकिन उनके मूलभाव में आमूल चूल विभेद होता है।

गुरुदेव रविंद्रनाथ कहते हैं प्रेम को उपहार स्वरूप नहीं दिया सकता उसकी बस प्रतीक्षा की जा सकती है जैसे फूल के खिलने की जाती है, यह बात अक्षरशः सत्य है, ओशो इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात कहते हैं वो कहते हैं प्रेम परमात्मा को पाने की पहली सीढ़ी है जिसने प्रेम नहीं किया वो परमात्मा तक पहुंच ही नहीं सकता। मुद्दे की बात यह है कि इन बातों को मानने और जानने वाले हैं ही कितने??? उंगली पर गिने जाने लायक rest of all वही हैं जिनकी वजह से प्रेम अविश्वनीय, पीड़क और त्याज्य भाव की श्रेणी में आ खड़ा होता है। मुझे लगता है अगर आप प्रेम की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकते, उसको योग्य गरिमा और सम्मान नहीं दे सकते तो दूर रहिए प्रेम से आपकी अक्षमता उसको धूल धूसरित किए जा रही है…ये ठीक नहीं है ।
ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।
मनस्वी अपर्णा