Ramesh Patel
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ये हैं 70 वर्षीय जनाब खालिक अली जिन्हें हम लोग प्यार से “कक्कू” कहते हैं। मैं जब से जानने लायक हुआ हूं तब से इन्हें ऐसे ही देख रहा हूं। कक्कू बिसाती का काम करते हैं। सुबह खा- पीकर अपनी साइकिल पर सामान को लादते हैं और फिर पैदल ही गांवों की ओर निकल पड़ते हैं। ये काम वो तब से कर रहे हैं जब वो महज़ 18 वर्ष के थे यानी कि साईकिल पर सामान बेचते हुए 50 साल से अधिक हो गए हैं। कक्कू का चेहरा बिल्कुल शांत और गम्भीर दिखता है। ऐसा लगता है जैसे उनके ऊपर जिम्मेदारियों का एक बहुत बड़ा भार है। गांव में कक्कू के प्रति हर उम्र के लोग स्नेह भाव रखते हैं। हमेशा मृदु शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। न अधिक बोलते हैं और न ही कम; जितनी जरूरत है केवल उतना ही बात करते हैं।आज मैं विद्यालय से पढ़ाकर लौट रहा था तो मुझे कक्कू आते हुए दिखाई दिए। मैंने कक्कू से प्रणाम किया और फिर अपनी गाड़ी रोककर उनका कुशल-क्षेम पूछा। आज पहली बार उनसे कुछ पूछने की कोशिश किया। मैंने अचानक ही उनसे पूछ लिया कि कक्कू आप ऐसे ही कब से सामान बेच रहे हैं तो उन्होंने कहा,”भईया 50 साल से ज्यादा हो गए हैं।”
मैंने कहा,”50 साल ये तो बहुत ज्यादा होते हैं।”
तो उन्होंने कहा,”17- 18 साल की ही उम्र से बेचना शुरू कर दिया था, घर की जिम्मेदारी थी सो काम तो करना ही था। इसलिए कर रहा हूं आज तक।”
उदार हृदय वाले खालिक कक्कू से अभी बातें ही कर रहा था कि तभी घर में से एक नन्हा- सा लगभग दो साल का बच्चा हैंडल में लगे गुब्बारे को देखकर पाने के लिए रोने लगा। बच्चे की मां रसोई के अंदर से ही बच्चे को बुला रही थी कि चले आओ लल्ला, पैसा नहीं है कल ख़रीद दूंगी। लेकिन वो बच्चा भला कहां मानने को तैयार था। वह नन्हा- सा बच्चा अपने नन्हें- नन्हें पैरों से लड़खड़ाते हुए खुशी- खुशी कक्कू की साईकिल के पास आ पहुंचा। साईकिल के पास पहुंचकर वहीं ज़मीन पर बैठ गया फिर साईकिल की तीली पकड़कर उठते हुए दा दा दा दा(दे दीजिए) कहते हुए अपनी बात पर अड़ गया तब कक्कू उसे गुब्बारा निकालकर देने लगे तो उस दृश्य को देखकर मेरा मन भी अतीत में चला गया। जब मैं बहुत छोटा था तो इसी तरह उन्हें देखते ही दौड़ा चला जाता था, बिना पैसे लिए ही, उनके साईकिल के पास। आखिर उस उम्र में भला क्या पता था कि पैसा क्या चीज़ है? कक्कू बिना पैसे लिए ही मुझे चुर्री या फिर नल्ली की एक पैकिट थमा दिया करते थे। मैं चुर्री पाते ही पैकिट को अपने तेज़ नुकीले दांतों से फाड़ने लगता, जब नहीं फटती तो तो कक्कू हंसने लगते थे जब वो कहते कि लाओ अच्छा फाड़ दूं तो मैं “न” कहते हुए वहां से भाग लेता था सोचता था कि कक्कू फिर से चुर्री ले लेंगे। बालमन भी आखिर गजब ही होता है। है न? कक्कू की साईकिल सामानों से लदी रहती थी। कक्कू साईकिल को पैदल ही लेकर चलते थे क्योंकि वो साईकिल को चला ही नहीं पाते थे। उनकी साईकिल के दोनों ओर हैंडल में दो- दो झोले टंगे रहते थे। एक झोले में साबुनदानी, बर्तन धोने वाला ब्रश, कपड़े धोने वाला ब्रश, आटा चालने वाली चलनी, चाय छानने वाली छन्नी आदि चीज़ें रखी रहती थी तो दूसरे झोले में सूई- धागे, बच्चों को खेलने वाली प्लास्टिक की सुंदर- सुंदर लाल – पीली गेंदे और खाने वाली चुर्री की छोटी – छोटी पैकिटें।