देश

“ये देश हिंदू का देश है और ये देश हिंदू का रहेगा” : अगर हम हिंदू होते, तो हमारा घर बच जाता…ये सब हो रहा है असम में…!!रिपोर्ट!!

 

 

 

मानिक जान असम में एक पहाड़ी की तलहटी में बसे दूरदराज़ वाले इलाक़े में अपने तीन छोटे बच्चों, बूढ़ी माँ और भाई के साथ सड़क किनारे टेंट लगाकर रह रही हैं.

इसी साल जून में रेलवे की ज़मीन पर बना हुआ उनका घर तोड़ दिया गया. मोरीगांव ज़िले की सिलभंगा पहाड़ी की तलहटी में स्थित इस इलाक़े में ज़्यादातर मुसलमान परिवारों के घर तोड़ दिए गए हैं.

इन परिवारों का कहना है कि उन्हें प्रशासन की ओर से ये बताया गया है कि ज़मीन रेलवे की थी और ये घर अतिक्रमण कर बनाए गए थे. इस ज़मीन पर बनी मस्जिद और मदरसे को भी गिरा दिया गया है.

इन मुसलमान परिवारों का आरोप है कि अतिक्रमण हटाने की इस मुहिम में भेदभाव बरता गया.

मानिक जान उस दिन को याद करते हुए कहती हैं, “खाने के लिए भात बनाया था. वो भी खाने का समय नहीं दिया गया और जेसीबी से घर तोड़ दिया. इस देश में मुसलमान होना अपने आप में बहुत दिक़्क़त की बात है. अगर हम हिंदू होते, तो हमारा घर बच जाता.”

हर तरफ़ बिखरे मलबे के बीच एक काली मंदिर भी है.

मंदिर की तरफ़ इशारा करते हुए मानिक जान कहती हैं, “मस्जिद और मदरसे को भी तोड़ दिया गया. लेकिन मंदिर और यहाँ बसे हिंदू लोगों के घरों को आँच तक नहीं आई. सिर्फ़ हम मुसलमान लोगों का घर तोड़ा गया.”

मानिक जान के आरोपों का समर्थन वहाँ मौजूद दूसरे लोगों ने भी किया, जिनके घर गिराए गए थे.

वहीं पास में रेलवे की जमीन पर बना हिंदू परिवार रुनझुन दास का घर अभी भी खड़ा है. अतिक्रमण की कार्रवाई में उनके घर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया.

रुनझुन दास कहती हैं, “हम पिछले चालीस साल से सरकारी जमीन पर घर बनाकर रह रहे हैं. जब लोगों के घर तोड़े जा रहे थे तो मैं घर पर ही थी. उस दिन बहुत पुलिस आई थी. प्रशासन ने हमारे जैसे करीब 200 हिंदू परिवारों के घरों को नहीं छुआ लेकिन मुसलमानों के घर तोड़ दिए गए.”

वे कहती हैं, “ये हमें मालूम नहीं कि हमारे घर क्यों छोड़ दिए गए. सरकार ने हमें इस बारे कुछ नहीं बताया.”

जब हमने इन लोगों के आरोप पर मोरीगांव के ज़िलाधिकारी देवाशीष शर्मा की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तो काफ़ी कोशिशों के बाद भी उन्होंने जवाब नहीं दिया.

हमारे ईमेल्स और फ़ोन कॉल्स तक पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

हिंदूवादी एजेंडे पर ज़ोर

ये सब हो रहा है असम में, जिसकी कमान हिमंत बिस्वा सरमा के पास है.

कांग्रेस से बीजेपी में आए हिमंत जब से मुख्यमंत्री बने हैं, उन्होंने ऐसे कई फ़ैसले किए हैं, जिन पर विवाद है.

असम विधानसभा में शुक्रवार के रोज़ जुमे की नमाज़ के लिए तीन घंटे का ब्रेक दिया जाता था, जिसे ख़त्म कर दिया गया.
‘स्वदेशी मुसलमानों’ के सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण को मंज़ूरी. हिमंत सरकार ने गोरिया, मोरिया, जोलाह, देसी और सैयद समुदाय को ‘स्वदेशी मुसलमान’ घोषित किया है.
‘असम मुस्लिम मैरिज बिल’ पारित- मुस्लिमों को मौलवी के पास शादी का रजिस्ट्रेशन कराना ज़रूरी नहीं होगा. विवाह और तलाक़ का सरकारी तरीक़े से पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया है.
सरकारी सहायता प्राप्त क़रीब 1200 मदरसों को सरकारी स्कूल में बदल दिया गया.
हिमंत बिस्वा सरमा अपने इन फ़ैसलों को प्रगतिशील बता रहे हैं. उनका कहना है कि वे मुस्लिम समुदाय में बाल विवाह, बहुपत्नी और अवैध बांग्लादेशियों को असम में आने से रोकना चाहते हैं.

असम बीजेपी के मुख्य प्रवक्ता मनोज बरुआ का कहना है, “अगर धर्म के तौर पर इन फ़ैसलों को आप देखेंगे, तो ये मुस्लिम विरोधी लग सकते हैं लेकिन सामाजिक तौर पर ये आधुनिक हैं और इनका सबसे ज़्यादा फ़ायदा मुस्लिम समुदाय को ही होगा.”

उनका कहना है कि असम में हिमंत बिस्वा सरमा राजधर्म का पालन कर रहे हैं.

मदरसों पर प्रतिबंध?

दिसंबर, 2023 में असम सरकार ने सरकारी सहायता प्राप्त राज्य के क़रीब 1200 मदरसों को सरकारी स्कूल में तब्दील कर दिया.

इसी क्रम में कामरूप ज़िले के रंगिया कॉलेज को भी सामान्य सरकारी स्कूल में बदल दिया गया.

साल 1955 में बने इस कॉलेज में एक वक़्त दूर-दूर से बच्चे इस्लामी तालीम लेने आते थे.

स्कूल के प्रिंसिपल शमशुल हक़ सैकिया बीबीसी से कहते हैं, “ये असम का पहला ऐसा कॉलेज था, जहाँ 10वीं तक सामान्य और दीनी तालीम दी जाती थी. 10वीं के बाद एमएम (एमए के बराबर) तक इस्लामिक एजुकेशन की पढ़ाई होती थी.”

शमशुल हक़ कहते हैं, “रंगिया अरेबिक कॉलेज के हाई सेकेंडरी स्कूल बनने के बाद बहुत सारे लोग अपने बच्चों को यहाँ से ले गए हैं, क्योंकि अब यहाँ दीनी तालीम नहीं दी जाती.”

ऐसे ही बच्चों से बात करने के लिए हम कामरूप ज़िले की हरियाली और तालाबों से घिरी एक बस्ती पहुँचे. यहाँ कच्चे घर में हिजाब पहने एक युवती छोटे बच्चों को क़ुरान पढ़ा रही है.

ये बच्चे पहले मदरसे में दीनी तालीम हासिल करते थे.

हिचकते हुए ये युवती कहती है, “अब हमें एक तरह से घर में रहकर क़ुरान और दीनी तालीम हासिल करनी पड़ रही है, क्योंकि सरकार ने मदरसे बंद कर दिए हैं.”

युवती के पिता सरकार के इस फ़ैसले से नाख़ुशी जताते हुए कहते हैं, “हम अपने बच्चों को दुनियावी तालीम के साथ-साथ दीनी तालीम भी देना चाहते थे, जो अब बंद हो गई है. हमें इसका दुख है.”

असम सरकार ने सभी सरकारी मदरसों के साथ राज्य-संचालित ‘संस्कृत टोल’ यानी संस्कृत केंद्रों को भी बंद करने का निर्णय लिया था.

रंगिया अरेबिक कॉलेज में 35 साल शिक्षक रहे अफ़ज़ल हुसैन कहते हैं, “राज्य सरकार ने सभी संस्कृत केंद्रों को कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं प्राचीन अध्ययन विश्वविद्यालय में मिला दिया है, लेकिन संस्कृत स्कूलों के पाठ्यक्रम और सिलेबस में ज़्यादा कुछ बदला नहीं गया है.”

संस्कृत स्कूलों के पाठ्यक्रम और सिलेबस में ज़्यादा कुछ बदलाव ना किए जाने के सवाल पर असम के शिक्षा मंत्री रनोज पेगू ने बीबीसी से कहा, “मदरसों को सरकारी स्कूल में बदल दिया है, अगले साल तक संस्कृत स्कूलों को भी सरकारी स्कूल में तब्दील कर दिया जाएगा और वहाँ भी संस्कृत को एक वैकल्पिक विषय के तौर पर पढ़ाया जाएगा.”

वहीं सरकार के इस फ़ैसले का समर्थन करते हुए भारतीय जनता पार्टी के नेता विजय गुप्ता कहते हैं, “मज़हब के आधार पर शिक्षा का वर्गीकरण किया जाए तो ये निस्संदेह घातक होता है.”

‘बंगाली मूल’ के मुसलमानों का मुद्दा

2011 की जनगणना के मुताबिक़ असम में मुसलमानों की आबादी क़रीब 35 फ़ीसदी है. जम्मू-कश्मीर के बाद, भारत में मुसलमानों की सबसे घनी आबादी असम में है.

हिमंत बिस्वा सरमा ये आरोप लगाते हैं कि असम में बड़े पैमाने पर अवैध रूप से बांग्लादेश से मुसलमान आकर बस रहे हैं.

उनका कहना है, “मेरे असम में मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत हो चुकी है. 1951 में 12 प्रतिशत थी, आज 40 प्रतिशत है. हम ज़िला के ज़िला खो चुके हैं.”

राजनीतिक विश्लेषक और गुवाहाटी यूनिवर्सिटी में सांख्यिकी विभाग से रिटायर प्रोफ़ेसर अब्दुल मन्नान कहते हैं मुख्यमंत्री राज्य में मुस्लिम आबादी को लेकर गुमराह करने वाले बयान दे रहे हैं.

वे कहते हैं, “1951 की जनगणना जब हुई तो असम में क़रीब 25 प्रतिशत मुसलमान थे, जो 2011 में बढ़कर करीब 34 प्रतिशत हुए हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि असम में मुस्लिम आबादी बढ़ी है लेकिन इसकी वजह घुसपैठ नहीं है.”

हिमंत कहते हैं कि बंगाली मूल के मुसलमानों से उन्हें वोटों की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ये सांप्रदायिक और फंडामेंटल हैं और असमिया संस्कृति और असमिया भाषा को विकृत करना चाहते हैं.

दशकों से असम में कथित अवैध बांग्लादेशी चुनावी राजनीति के केंद्र में रहे हैं.

राजधानी गुवाहाटी से क़रीब 120 किलोमीटर दूर नौगांव में बंगाली मूल के नौशाद अली दशकों से सरकारी ज़मीन पर घर बनाकर रह रहे थे, लेकिन जनवरी 2023 में हुई अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई में स्थानीय प्रशासन ने यहाँ बने क़रीब 30 घरों को गिरा दिया.

नौशाद कहते हैं, “हिमंत बिस्व सरमा बस ये देखते हैं कि कहाँ-कहाँ मुस्लिम आदमी रहते हैं और फिर उनके घर तोड़ दिए जाते हैं. हम मोबाइल में देखते हैं, वो दिन भर मुसलमानों के ख़िलाफ़ बोलते हैं. हमें बहुत डर लगता है.”

नौशाद अली के पूरे परिवार का नाम एनआरसी में शामिल है. इनके पास आधार कार्ड भी है.

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बिल एक रजिस्टर है जिसमें भारत में रह रहे सभी वैध नागरिकों का रिकॉर्ड रखा जाएगा. एनआरसी के तहत भारत का नागरिक साबित करने के लिए किसी व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उसके पूर्वज 24 मार्च 1971 से पहले भारत आ गए थे.

इन परिवारों के पुनर्वास के सवाल पर नौगांव के ज़िलाधिकारी नरेंद्र शाह ने कोई जवाब नहीं दिया.

मन्नान कहते हैं, “मुस्लिम समाज में अशिक्षा और ग़रीबी ज़्यादा होने के चलते वे आम तौर पर लड़की की शादी जल्दी कर देते हैं. जब एक लड़की की 14 साल की उम्र में शादी होगी और अगले ही साल उसे लड़की हो जाती है तो अगले 14 साल बाद उसकी भी शादी कर दी जाएगी. मुस्लिम लड़की 30 की उम्र में दादी बन जाती है, वहीं आम तौर पर हिंदू लड़की उस समय शादी कर रही होती है.”

वे कहते हैं, “पिछले सात दशकों में हिंदू समाज में तीन पीढ़ियां आई हैं, लेकिन मुस्लिम समुदाय में यह संख्या चार से ज़्यादा है.”

गुवाहाटी में दैनिक पूर्वोदय के संपादक रवि शंकर रवि कहते हैं, “दो साल पहले असम में पाँच समुदायों को स्वदेशी असमिया मुसलमान के रूप में मान्यता दी गई, जिसमें गोरिया, मोरिया, जोलाह, देसी और सैयद शामिल हैं. ऐसा करके वे मुसलमानों को बाँटने की कोशिश कर रहे हैं.”

अब राज्य सरकार राज्य में स्वदेशी मुस्लिम आबादी का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण करवा रही है, जिससे यह पता लगाने की भी कोशिश है कि राज्य में कहाँ-कहाँ बांग्लादेश मूल के मुसलमान रहते हैं.

असम में कथित बांग्लादेशियों की घुसपैठ के ख़िलाफ़ प्रदर्शन में शामिल कामरूप ज़िले के मौलाना बहारूल राज्य में स्वदेशी मुसलमानों के आर्थिक-सामाजिक सर्वे का समर्थन करते हैं.

मौलाना बहारूल कहते हैं, “बांग्लादेश से घुसपैठ कर आने वाले मुसलमान असम के कल्चर को नहीं मान रहे हैं. हम उन लोगों को यहाँ नहीं रहने देंगे. इस सर्वे की मदद से ये पता लग पाएगा कि असम के असल मुसलमान कौन हैं और हमारे लिए सरकार बेहतर नीतियां बना पाएगी.”

बहारूल कहते हैं, “मुख्यमंत्री असम के स्वदेशी मुसलमानों का विरोध नहीं कर रहे हैं. जो बांग्लादेश से आए हैं, वे उनका विरोध कर रहे हैं. हमारे साथ इस सरकार में कभी कोई भेदभाव नहीं हुआ.”

पत्रकार रवि शंकर रवि कहते हैं, “असम में क्षेत्रवाद बहुत उग्र है. उत्तर भारत की तरह यहाँ का समाज जाति में नहीं बँटा हुआ है. बीजेपी ने मंडल को काटने के लिए जैसे कमंडल का इस्तेमाल किया, वैसे ही यहाँ लोगों को बांग्लादेशी मुसलमानों का डर दिखाया जा रहा है ताकि वे क्षेत्रवाद को छोड़कर हिंदुत्व की छतरी के नीचे इकट्ठा हो सकें.”

धार्मिक पहचान को लेकर टारगेट करने का आरोप

हाल ही में हिमंत बिस्वा सरमा ने मेघालय की यूएसटीएम यूनिवर्सिटी को असम में बाढ़ के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था और ‘बाढ़ जिहाद’ शब्द का इस्तेमाल किया था.

इस प्राइवेट यूनिवर्सिटी के मालिक का नाम महबूबल हक़ है.

इसके बाद 21 अगस्त को जब विधानसभा के बाहर शाह आलम नाम के एक पत्रकार ने मुख्यमंत्री से उनके क्षेत्र में पहाड़ कटाई को लेकर सवाल किया तो वे हिमंत बेहद ग़ुस्से में आ गए.

उन्होंने पत्रकार से उनका नाम पूछा और फिर उनकी धार्मिक पहचान को निशाना बनाया.

मुख्यमंत्री सरमा ने पत्रकार शाह आलम को यूनिवर्सिटी के मालिक महबूबल हक़ से जोड़ते हुए कहा, “आप लोग हमें रहने देंगे या नहीं. ऐसे में असम में हमारा समाज कैसे रहेगा.”

पत्रकार शाह आलम कहते हैं, “जब उन्होंने मेरी धार्मिक पहचान को लेकर मुझे टारगेट किया तो मुझे थोड़ा अपमानजनक लगा. मैं एक स्वदेशी गौरिया मुसलमान हूँ और मुझे मान्यता भी हिमंत बिस्वा सरमा की सरकार ने ही दी थी और अब वे ही बोल रहे हैं कि आपसे ख़तरा है.”

क्या हिंदुओं पर भी है इन फ़ैसलों का प्रभाव

गुवाहाटी से जोरहाट की तरफ बढ़ते हुए सड़क पर सैकड़ों प्रदर्शनकारियों की भीड़ मिलती है.

हाथों में पोस्टर, बैनर लिए लोग नारेबाज़ी कर रहे हैं, ‘होशियार…होशियार…बांग्लादेशी होशियार’

कामरूप ज़िले में डिमोरिया इलाक़े के स्थानीय लोग कथित तौर पर बांग्लादेश से आने वाले लोगों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं.

इन लोगों के लिए हिमंत बिस्वा सरमा एक ऐसे नेता हैं, जो असम में हिंदुओं के लिए ज़ोर-शोर से काम कर रहे हैं.

स्थानीय निवासी सिरोमणी कहती हैं, “बांग्लादेशी मुसलमान लोग रात में पानी के जहाज़ और नावों से आते हैं और हमारी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लेते हैं. हम कार्बी समुदाय के लोग हैं, जिनकी ज़मीनों को इन लोगों से ख़तरा है. हिमंत सरकार ऐसे लोगों पर कार्रवाई कर रही है. लेकिन हम चाहते हैं कि इसमें और तेज़ी लाई जाए.”

अहोम समुदाय की बोनाली बरुआ कहती हैं, “पहले बांग्लादेश से आए लोगों को घर से लेकर राशन कार्ड तक मिल जाते थे, लेकिन हिमंत के राज में ऐसा नहीं हो रहा है. वे हिंदुत्व को देश में आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं.”

वहीं प्रदर्शन से कुछ घंटे की दूरी पर नौगांव में एक पान की दुकान चला रही रानो मंडल कहती हैं, “हिमंत हर चीज़ में हिंदू-मुस्लिम ढूंढ लेते हैं, जिसकी ज़रूरत नहीं है. महंगाई इतनी हो गई है, लोगों के पास रोज़गार नहीं है. वे इस तरह कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं.”

उनकी हिंदुत्व पहचान पर बात करते हुए गुवाहाटी के वरिष्ठ पत्रकार बैकुंठ गोस्वामी कहते हैं, “वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पार्टी में अपनी स्थिति मज़बूत करनी है. इसके अलावा उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं हैं.”

वे कहते हैं, “हिमंत बिस्वा सरमा इतने समय से हिंदू-मुस्लिम कर रहे हैं, बावजूद इसके बीजेपी हिंदू बहुल जोरहाट लोकसभा की सीट हार गई. यह बताता है कि सिर्फ़ मुसलमानों का विरोध करने से हिंदू लोग उनके पीछे नहीं खड़े होंगे.”

सुर्ख़ियों में हिमंत के कई बयान

हिमंत बिस्वा सरमा अपने बयानों से सुर्खियों में बने रहते हैं. ऐसे ही बयानों पर डालते हैं एक नज़र –

राहुल गांधी के अमेरिका दौरे पर

“राहुल गांधी का अमेरिका जाने का मक़सद भारत को बदनाम करना है. उस व्यक्ति के बारे में बोलने का कोई मतलब नहीं जो विदेश जाकर भारत के ख़िलाफ़ बोलता हो.”

भारत जोड़ो यात्रा पर

“आपका चेहरा थोड़ा चेंज हुआ है. अगर आपको चेहरा ही बनाना है तो जवाहरलाल नेहरू जैसा बनाइये, आपके नाना था. आप कम से कम गांधी जी का चेहरा बनाइये, कहां सद्दाम हुसैन जैसा चेहरा बनाकर घूम रहे हैं.”

राजस्थान में कन्हैयालाल हत्याकांड पर

“उधर कन्हैयालाल कांड हुआ और पांच मिनट में दूसरे कांड की भी खबर टीवी में आनी चाहिए. हिसाब बराबर, हिसाब में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. ये वीरों की भूमि है और हम जवाब वीरों की तरह ही देंगे.”

असम में कथित घुसपैठ पर

“मेरे असम में मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत हो चुकी है. 1951 में 12 प्रतिशत थी, आज 40 प्रतिशत है. हम जिला के जिला खो चुके हैं. मेरे लिए ये राजनीतिक मुद्दा नहीं है. मेरे लिए ये जीने और मरने का मुद्दा है.”

सेक्युलरिज़्म पर

“ये देश हिंदू का देश है और ये देश हिंदू का रहेगा. ये सेक्युलरिज्म की भाषा हम मत सिखाओ. आपको मुझसे सेक्युलरिज्म की भाषा नहीं सिखना है…सेक्युरिज्म का मतलब ये नहीं है कि आप राम मंदिर को तोड़कर बाबर के नाम पर मस्जिद बनाएंगे.”

पिछले कुछ सालों में ऐसे दर्जनों बयान हिमंत बिस्वा सरमा ने दिए हैं, जिन्हें लेकर विपक्ष उन पर समाज को बांटने का आरोप लगाता है.

हिमंत बिस्वा सरमा ऐसा क्यों कर रहे हैं?

सीएम हिमंत के इस रवैये की क्या वजह है? क्या वो अपनी इस छवि के ज़रिए असम में अपनी राजनीतिक जड़ें मज़बूत करना चाहते हैं? या वो देश में ‘हिंदुत्व के नए पोस्टर बॉय’ के रूप में उभरना चाहते हैं?

क्या इसी छवि के दम पर ही उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के अंदर तेज़ी से सफलता की सीढ़ियां चढ़ी हैं?

जानकारों के मुताबिक़ हिमंत के मुख्यमंत्री के तौर पर किए गए कई फ़ैसलों से राज्य की बड़ी मुस्लिम आबादी अपने आपको अलग-थलग महसूस करने लगी है.

गुवाहाटी के वरिष्ठ पत्रकार बैकुंठ गोस्वामी कहते हैं, “हिमंत बिस्वा सरमा के एंटी मुस्लिम होने का मक़सद हिंदुओं को इकट्ठा करना है, ताकि हिंदू वोट का धुव्रीकरण किया जा सके.”

वे कहते हैं, “मुख्यमंत्री मुसलमानों की धार्मिक परंपराओं में सुधार लाने की बात करते हैं लेकिन ये काम धार्मिक नेताओं का है. उनका मानना है कि ऐसा करने से मुसलमान ग़ुस्सा होंगे, जिससे उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा.”

वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, “बीजेपी में शुरू से दो धाराएं चलती हैं एक उदारवादी और दूसरी कट्टरपंथी. वाजपेयी को उदारवादी और आडवाणी को कट्टरपंथी माना जाता था, लेकिन जब से नरेंद्र मोदी सरकार में आए हैं देश में कट्टरपंथी हावी हैं.”

वे कहते हैं, “ये बात हिमंत अच्छी तरह से समझ गए हैं. उन्हें ये विश्वास है कि कट्टरपंथी बनकर अगर वे दिखाएंगे तो पार्टी में उनकी ग्रोथ अच्छी होगी.”

गुप्ता कहते हैं, “असम में करीब 35 प्रतिशत मुसलमान हैं. ऐसे में हिमंत को लगता है कि अगर वो ध्रुवीकरण की राजनीति करेंगे तो उन्हें राजनीति में इसका फायदा होगा.”

विपक्ष क्या कह रहा है?

कांग्रेस के विधायक और असम विधानसभा में विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया का कहना है कि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा डेवलपमेंट की जगह राज्य में कम्युनल एजेंडा चलाना चाहते हैं.

वे कहते हैं, “एक ऐसा नैरेटिव तैयार किया जा रहा है, जिससे राज्य की मुस्लिम आबादी में भय पैदा हो. मुख्यमंत्री के मुंह से निकली बात की बहुत वैल्यू होती है. अगर वे सांप्रदायिक भाषण देंगे तो कुछ लोग ज़रूर उनके बहकावे में आएँगे. अगर राज्य में कोई दंगा फसाद होता है तो इसके लिए हिमंत बिस्वा सरमा ही ज़िम्मेदार होंगे.”

सैकिया कहते हैं कि हिमंत न सिर्फ़ राजनीतिक मंचों पर, बल्कि विधानसभा के अंदर भी समाज को बाँटने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिसके ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रपति और राज्यपाल को उनकी शिकायत की है.

राज्य में मदरसों को सरकारी स्कूल में बदलने के सवाल पर सैकिया कहते हैं, “हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव को मज़बूत करने के लिए मदरसे बंद किए गए. बहुत सारे मदरसों में पहले भी जनरल विषय पढ़ाए जाते थे लेकिन जानबूझकर ये दिखाया गया कि यहाँ सिर्फ़ धार्मिक शिक्षा दी जाती है. आरएसएस और बीजेपी दरबार में अपने को मज़बूत करने के लिए मुख्यमंत्री ऐसा कर रहे हैं.”

हालांकि असम में मुस्लिम मैरेज बिल का कांग्रेस ने विरोध नहीं किया. इस क़ानून के मुताबिक़ अब काजी की जगह मुस्लिम समुदाय के लोगों को सरकारी तरीक़े से शादी का रजिस्ट्रेशन कराना होगा.

देबब्रत सैकिया का कहना है, “इस क़ानून में सिर्फ़ शादी के रजिस्ट्रेशन की बात थी, शरिया क़ानून में बदलाव नहीं होंगे. काजी की जगह स्पेशल मैरिज ऑफ़िसर लाने की बात है, जिससे मुस्लिम समुदाय को फ़ायदा होगा, इसलिए भी हमने इसका विरोध नहीं किया.”

तीन दशकों तक बीजेपी में रहे अशोक शर्मा इन दिनों कांग्रेस में हैं.

उनका कहना है, “असम में हिंदुओं का वोट लेने के लिए हिमंत बिस्वा सरमा मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं. वे समाज को बाँटकर अपना राज चलाना चाहते हैं.”

क्या केंद्रीय नेतृत्व हिमंत को ‘पोस्टर बॉय’ बना रहा है?

वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी का मानना है कि पूर्वोत्तर भारत में जिस ज़मीन की तलाश बीजेपी को थी उसे पूरा करने का काम हिमंत बिस्वा सरमा ने किया है.

वे कहते हैं, “पूर्वोतर में संघ पिछले क़रीब 30 साल से काम कर रहा है, लेकिन बीजेपी की ज़मीन नहीं तैयार हो पाई. 2016 में सर्बानंद सोनोवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी बीजेपी अपनी ज़मीन तलाश रही थी, जिसे मज़बूत तरीक़े से हिमंत ने सौंपने का काम किया.”

विजय त्रिवेदी कहते हैं, “बीजेपी जो बात खुलकर नहीं कह सकती, वह बात हिमंत के ज़रिए कही जा सकती है. इसलिए हिमंत और बीजेपी दोनों एक दूसरे की ज़रूरत हैं.”

कुछ राजनीतिक विश्लेषक हिमंत बिस्वा सरमा की तुलना योगी आदित्यनाथ से भी करते हैं.

त्रिवेदी कहते हैं, “दोनों पोस्टर बॉय में फ़र्क है. योगी आदित्यनाथ केंद्रीय नेतृत्व की आंख में खटकते हैं वहीं हिमंत बिस्वा सरमा आंख के तारे हैं. वे हर मुश्किल स्थिति में सबसे आगे दिखाई देते हैं.”

जून, 2022 में जब एकनाथ शिंदे ने शिवसेना से बग़ावत की, तो वे क़रीब 40 विधायकों के साथ दूसरे बीजेपी राज्यों को छोड़कर असम की राजधानी गुवाहाटी पहुँचे थे.

माना जाता है कि उस समय हिमंत बिस्वा सरमा ने ही कुछ हैंडल किया था. बाद में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बीजेपी के समर्थन से महाराष्ट्र में सरकार भी बनी.

विजय त्रिवेदी कहते हैं, “हिमंत सरकारें बनाने और तोड़ने में माहिर हैं. ये एक और ऐसी वजह है कि जिसके चलते वे इतने कम समय में ही बीजेपी के पोस्टर ब्वॉय बन गए हैं.”

प्रदेश से बाहर हिमंत को ज़िम्मेदारी

असम की राजनीति में हिमंत बिस्वा सरमा की सफलता को क़रीब से देखने वाले लोग मानते हैं कि इस समय पूर्वोत्तर राज्यों में हिमंत से बड़ा नेता कोई और नहीं है.

इतना ही नहीं उनकी पार्टी बीजेपी ने उन्हें पूर्वोतर से बाहर झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और यहाँ तक की केरल तक में अपना स्टार प्रचारक बनाकर भेजा था.

असम में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता विजय गुप्ता कहते हैं, “हिंदुत्व की रक्षा के लिए वो मुखर हुए हैं. वो ऐसे नेता हैं जो हिंदुत्व को आगे बढ़ा रहे हैं. जहाँ-जहाँ चुनाव होते हैं, उन्हें पार्टी भेजती है. निश्चित रूप से वो मुद्दों को अच्छे से उठाते हैं और जनता जुड़ाव महसूस करती है. वे अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं जिससे पार्टी को लाभ मिल रहा है.”

क़रीब 10 सालों में ही वे बीजेपी के शीर्ष नेताओं के ख़ास बन गए हैं.

हाल ही में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ नेता चंपाई सोरेन बीजेपी में शामिल हुए हैं.

उन्हें पार्टी में लाने में भी हिमंत बिस्वा सरमा की अहम भूमिका मानी जा रही है. वे इस वक़्त झारखंड के सह प्रभारी भी हैं.

पत्रकार रवि शंकर रवि कहते हैं, “वे मुद्दों की पहचान कर लेते हैं कि क्या कहने से बहुसंख्यक वर्ग ख़ुश होगा. वे चुभी हुई भाषा का इस्तेमाल करते हैं. जब झारखंड वे प्रचार के लिए गए, तो वहाँ भी उन्होंने मुसलमानों पर हमला बोला और कहा कि जिस रिज़र्व सीट से आदिवासी महिला लड़ रही है उसका पति मुस्लिम है.”

वे कहते हैं, “उनके ये बयान कहीं ना कहीं बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को पसंद आते हैं और ऐसा कर वे संघ के भी क़रीबी हो गए हैं.”

हिमंत और कांग्रेस का रिश्ता

हिमंत की राजनीति हमेशा से ऐसी नहीं थी. उन्होंने कांग्रेस से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी. एक समय हिमंत असम में तरुण गोगोई सरकार में दूसरे नंबर की हैसियत रखते थे.

उस वक़्त वो भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी पर ‘मुस्लिम विरोधी’ होने का आरोप लगाते हुए अक़्सर निशाना साधते रहते थे.

2014 लोकसभा चुनाव के समय एक सभा को संबोधित करते हुए हिमंत ने नरेंद्र मोदी का ज़िक्र करते हुए कहा था, “आपने कहा था कि गुजरात में पानी के पाइप के अंदर मारुति कार चल सकती है. हाँ, आप यह सच बताइए असम के लोगों को कि असम में पानी के पाइप से पानी ही बहता है और गुजरात में पानी के पाइपों से मुसलमानों का ख़ून बहता है.”

इस भाषण को क़रीब एक दशक बीत चुका है. इस भाषण में उन्होंने जिन नरेंद्र मोदी पर राजनीतिक हमला किया था, अब वो उन्हीं की पार्टी के सदस्य हैं.

उनके अब के भाषणों में लैंड जिहाद, लव जिहाद, बाढ़ जिहाद, मदरसा जिहाद जैसे शब्द सुनाई देने के साथ-साथ निशाने पर राहुल गांधी रहते हैं.

साल 2017 में राहुल गांधी ने अपने कुत्ते को बिस्किट खिलाते हुए एक वीडियो ट्वीट किया था.

इसके जवाब में हिमंत ने लिखा था, “राहुल गांधी सर, मुझसे बेहतर इसे कौन जान सकता है. मुझे अभी भी याद है कि जब हम असम के गंभीर मुद्दों पर आपसे चर्चा करना चाहते थे, तब आप उसे (कुत्ते को) बिस्किट खिलाने में व्यस्त रहते थे.”

वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, “राहुल गांधी से हिमंत की निजी नाराज़गी भी है और दूसरा यह कि उन्हें टारगेट कर वे बीजेपी हाईकमान की नज़रों में बने रहना चाहते हैं, क्योंकि यह बात बीजेपी को भी पसंद आती है.”

हिमंत का राजनीतिक सफ़र

55 साल के हिमंत बिस्वा सरमा का जन्म गुवाहाटी की गांधी बस्ती में हुआ था. उनके परिवार में किसी का भी राजनीति से कोई लेना देना नहीं था.

स्कूल में ही हिमंत ने एक अच्छे वक्ता के तौर पर अपनी पहचान बना ली थी.

जब वे स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे, उस दौरान असम में अवैध बांग्लादेशियों के ख़िलाफ़ ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के नेतृत्व में असम आंदोलन की शुरुआत हुई थी.

राजनीतिक विश्लेषक अब्दुल मन्नान कहते हैं, “आंदोलन से प्रभावित होकर हिमंत ऑल असम स्टूडेंट यूनियन में शामिल हो गए थे, जिसके बाद वे तब के मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया के संपर्क में आए और उन्होंने हिमंत को अपनी टीम में ले लिया. यहाँ से उनकी छात्र राजनीति शुरू हुई और वे तीन बार गुवाहाटी कॉटन कॉलेज के महासचिव चुने गए.”

मन्नान का मानना है कि हिमंत के पहले राजनीतिक गुरु हितेश्वर सैकिया थे और उन्होंने ही हिमंत को पहली बार टिकट दी थी.

साल 1996 में जब हिमंत ने असम आंदोलन के दूसरे शीर्ष नेता भृगु फूकन के ख़िलाफ़ जालुकबाड़ी विधानसभा क्षेत्र में चुनाव लड़ा था तो उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.

अगले विधानसभा चुनाव में उन्होंने भृगु फूकन को क़रीब 10 हजार मतों से हराया था.

मन्नान कहते हैं कि हिमंत का सुनहरा दौर तब शुरू हुआ, जब 2001 में तरुण गोगोई असम के मुख्यमंत्री बने.

वे कहते हैं, “तरुण गोगोई ने बहुत कम उम्र में ही हिमंत को मंत्री बना दिया था और अक्सर हिमंत और रक़ीबुल हुसैन जैसे युवा विधायक उनके पास ही दिखाई देते थे.”

शुरू में हिमंत को कृषि जैसे विभाग में राज्य मंत्री बनाया गया लेकिन कुछ ही सालों में वे वित्त, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बड़े विभागों को संभालते हुए राज्य में नंबर दो की हैसियत पर आ गए.

लेकिन 2011 में जब तरुण गोगोई ने बतौर मुख्यमंत्री तीसरा कार्यकाल संभाला, तो उन्होंने अपने बेटे गौरव गोगोई को राजनीति में आगे बढ़ाना शुरू किया और यहीं से रिश्तों में दरार पड़नी शुरु हो गई.

हिमंत को उम्मीद थी कि कांग्रेस हाईकमान उनकी बात सुनेगा लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने पार्टी से किनारा कर लिया और बीजेपी का थामन थाम लिया.

साल 2016 में पहली बार असम में बीजेपी की सरकार बनी लेकिन पार्टी ने मुख्यमंत्री के तौर पर सर्बानंद सोनोवाल को चुना.

आख़िरकार साल 2021 में जाकर हिमंत का मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हुआ.

सहयोग- दिलीप शर्मा, गुवाहाटी से बीबीसी हिंदी के लिए

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अभिनव गोयल
पदनाम,बीबीसी संवाददाता