विशेष

ये अलसी या तीसी है, तिलहन फ़सल में आती है : अरूणिमा सिंह की कलम से

अरूणिमा सिंह
==========
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी –
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!

केदारनाथ अग्रवाल जी की पंक्तियां हैं जिन्हे पढ़ाई करते समय पढ़ा था।
ये पूरी कविता ही मेरी पसंदीदा थी।

बचपन में आम के पत्तों की फिरकी बनाते थे जिसे हम सब फिरंगी कहते थे।

उस फिरकी को इसी अलसी के तने में फंसाते थे और पीछे से एक अलसी की कलसी यानी दाने को अड़ा देते थे। यानी एक दाना आगे एक पीछे बीच में फिरकी ताकि उड़ते समय फिरकी निकल न सके।

जब फिरकी बन जाती थी तब उसे लेकर सारा दिन गांव में दौड़ते रहते थे। फिरकी भले कम उड़े लेकिन हमारी दौड़ में कोई कमी नहीं आती थी उड़ाने का प्रयास जारी रहता था। उस फिरकी को उड़ाने के चक्कर में सारा दिन पूरे गांव, खेत, बगीचे तक दौड़ते थे। दिन भर , जी भर दौड़ते थे लेकिन थकावट क्या होती है नही जानते थे।

ये अलसी या तीसी है। तिलहन फसल में आती है।

बचपन इसे खाना बहुत पसंद था। पकी अलसी खेत में लगी हुई हो या कटकर खलिहान में रखी हो। तने से ढेर सारे दाने अलग करके दोनो हथेलियों के माध्यम से मसल कर सारे बीज निकाल लेते थे और फिर मुंह से फूंक कर छिलका उड़ाकर सारे बीजों का फांका मार लेते थे।

मुश्किल से एक हाथ की ऊंचाई लिए इसका पौधा होता है।

जब सारे खेत में नीले रंग के फूल खिलकर बिखर जाते है तब लगता है कि मानो धरती मां ने नीली चुनरी ओढ़ ली है।

अलसी का तेल बनता है, लोग लड्डू बनाकर खाते हैं।

बेहद स्वास्थ्य वर्धक होता है।

कैंसर जैसी बीमारी के इलाज में इसका प्रयोग होता है ।

घरेलू पैक जैसा बनाकर यदित्वचा और बालों पर लगाया जाय तो ये त्वचा और बाल दोनो के लिए बहुत लाभ देता है पार्लर के खर्चे कम हो सकते हैं।

खाने में प्रयोग करने से तो इनके अनगिनत लाभ है ही।

नंदकिशोर प्रजापति जी कहते हैं कि
बचपन में जब आंख में कचरा चला जाता था तो उसे निकालने के लिए मां आंख में तीसी का बीज डाल देती थी जो झट से घूमकर कचरा किनारे लगा देता था।
फोटो भी उनकी ही पोस्ट से चोरी की है।

आप सबकी अरूणिमा सिंह की कलम से आज से रिपोस्ट पोस्ट।

तस्वीर फेसबुक साभार