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यूरोप में कालों के साथ किस तरह किया जाता है भेदभाव : रिपोर्ट

पार्स टुडे- यूरोपीय देशों में अश्वेतों विशेष रूप से कालों को खुलेआम भेदभाव का सामना है।

अफ़्रीक़ा का इतिहास माडर्न काल से लेकर वर्तमान काल तक यूरोपीय साम्राज्यवाद से प्रभावित रहा है। आज तक यह महाद्वीप ढांचागत, पहचान और सुरक्षा के उस संकट से बाहर नहीं आ सका है जो पश्चिम ने उस पर थोप दिया और इसके नतीजे में वह अपने मानव संसाधनों को सही प्रकार से इस्तेमाल भी नहीं कर पाया। यही वजह है कि अफ़्रीकी देशों के बहुत सारे लोग रोज़गार की तलाश में और सस्ती लेबर की ताक में बैठे संगठनों के बहकावे में आकर यूरोपीय देशों की ओर पलायन करते हैं। वही यूरोपीय देश जहां मानवाधिकार के दावे तो बड़े ज़ोर शोर से किए जाते हैं लेकिन अमली तौर पर एक अलग ही प्रकार की त्रास्दी जारी है। इस त्रास्दी में अफ़्रीक़ी मूल के इंसानों के साथ भयानक भेदभाव किया जाता है।


अफ़्रीक़ी लेबर यूरोप के लिए सस्ती वर्क फ़ोर्स

यूरोपीय संघ की लीगल मामलों की संस्था ने अफ़्रीकी मूल के लोगों पर एक सर्वे किया जिससे पता चला कि जीवन के हर क्षेत्र में लेबर मार्किट से लेकिर आवास और स्वास्थ्य विभाग तक हर जगह उनके साथ भेदभाव हो रहा है।

13 यूरोपीय देशों जैसे आस्ट्रिया, बेल्जियम, डेनमार्क, फ़िनलैंड, फ़्रांस, जर्मनी, आयरलैंड, इटली, लग्ज़म्बर्ग, पोलैंड, पुर्तगाल, स्पेन और स्वेडन में अफ़्रीकी मूल के 6 हज़ार 752 लोगों पर किए गए इस सर्वे में पता चला कि 45 प्रतिशत लोगों को जातीय भेदभाव झेलना पड़ता है। यह 2016 की तुलना में 39 प्रतिशत की वृद्धि को दर्शाता है।

रिपोर्टों से पता चलता है कि बहुत से काले शरणार्थी यूरोपीय देशों में पुलिस के द्वारा पकड़े जाते हैं और बिना किसी आरोप के उनकी पिटाई की जाती है।

यूरोपीय देशों में कालों को रोज़गार के समान अवसर नहीं मिलते, उन्हें बहुत नीचा समझा जाता है। वे जो काम करते हैं उसकी मज़दूरी उन्हें सामान्य से बहुत कम मिलती है।

विवाह जैसे मामले में भी उनके साथ भेदभाव है, यूरोपीय लोग अपने बच्चों को कालों से विवाह से रोकते हैं फ़्रांस में होने वाले सर्वे से पता चलता है कि 46 प्रतिशत फ़्रांसीसी अफ़्रीक़ी मूल के लोगों के साथ विवाह के विरोधी हैं।

ब्रिटेन में रहने वाले एक ब्लैक लेखक रेनी एदो लोज कहते हैं कि बज़ाहिर तो बहुत से गोरे यह नहीं मानते के यूरपीय देशों में गुप्त अपारथाइड सिस्टम चल रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि गोरे वहां कि स्थापित सिस्टम की बुनियाद पर ख़ुद को कालों से अलग समझते हैं।

प्रोफ़ेसर अहमद हनकर एक्स अकाउंट पर इस बारे में कुछ जानकारियां शेयर करते हुए लिखते हैं,

ब्रिटेन में कालों के बीच मनोवैज्ञानिक समस्याओं की आशंका गोरों से चार गुना ज़्यादा होती हैं। मुझे यक़ीन है कि नस्लवाद की इसमें ज़रूर भूमिका है।


अहमद हंकर की एक्स पास्ट

जर्मनी में भी कालों की आधी आबादी को नस्लवादी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। गोरों के हमलों का निशाना बनने वाले कालों की दर इस देश में 54.8 प्रतिशत है।

एक सामाजिक कार्यकर्ता ने इस बारे में एक्स पर लिखा कि क्या जर्मनी में काले ख़तरनाक हैं? यह तो खुला नस्लवाद है। कालों पर किए गए अध्ययन के अनुसार जर्मनी में नस्लपरस्ती दूसरी जगहों से ज़्यादा है। उन्हें रोज़ ही नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ता है।


एक्स पर इस कार्यकर्ता की पोस्ट

बड़े बड़े दावे करने वाले पश्चिमी समाज की यह सच्चाई बताती है कि नारेबाज़ी कुछ भी हो लेकिन इस देश में कालों, महिलाओं, और धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारी और जटिल दबाव का सामना है।

लगता है कि यह देश मानवाधिकार के नारे तो ख़ूब लगाते हैं लेकिन अमल में वे इन पर अमल नहीं करते और न ही उनकी क़ानूनी संस्थाएं कुछ करने को तैयार हैं। लगता है कि अफ़्रीक़ी देशों से सस्ती लेबर हासिल करने और उन्हें अपनी नीतियों की क़ुरबानी बनाने का सिलसिला थमने वाला नहीं है।