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यूरोपीय संघ की अदालत ने कार्य स्थल पर हिजाब न पहनने को कानूनी घोषित किया : रिपोर्ट

यूरोपीय संघ की अदालत ने कार्य स्थल पर हिजाब न पहनने को कानूनी घोषित कर दिया।

इसी प्रकार यूरोपीय संघ की अदालत ने एलान किया है कि यूरोपीय कंपनियां स्कार्फ पहनने की अनुमति दे सकती हैं इस शर्त के साथ पूरा चेहरा न ढका हो। यूरोरीय अदालत ने अपने फैसले का औचित्य दर्शाते हुए कहा है कि इस तरह से कार्यालय में भेदभाव नहीं होगा।

यूरोपीय संघ की अदालत का फैसला एक मुसलमान महिला के विषय से संबंधित है। एक मुसलमान महिला ने बेल्जियम की कंपनी में 6 हफ्ते तक काम सिखने के लिए आवेदन दिया था कंपनी ने उसके आवेदन के जवाब में कहा था कि वह स्कार्फ नहीं पहन सकती। इसी प्रकार कंपनी ने कहा था कि एक निष्पक्ष कानून है वह इस अर्थ में कि काम करने के स्थान पर सर ढकने के लिए कोई परिधान नहीं पहन सकती। चाहे वह टोपी हो, स्कार्फ हो या कोई वस्त्र हो।

साथ ही यूरोप की अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि यूरोपीय संघ में मौजूद कंपनियां विशेष परिस्थिति में स्कार्फ पहनने से भी मना कर सकती हैं। इसी तरह का कानून वर्षों से जर्मनी में भी विवाद का विषय रहा है। अलबत्ता यह उन महिला शिक्षकों से संबंधित है जो जर्मनी के सरकारी स्कूलों में पढ़ाती हैं। फ्रांस ने भी वर्ष 2004 में स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध लगा रखा है।

सवाल यह पैदा होता है कि पश्चिम और यूरोपीय देश स्वयं को आज़ादी और अभिव्यक्ति का पालना कहते हैं यहां पर आज़ादी कहां चली जाती है? अगर पश्चिमी व यूरोपीय देश वास्तव में आज़ादी के पक्षधर हैं तो अगर कोई मुसलमान महिला या लड़की हिजाब करना चाहती है तो उसे हिजाब करने की पूरी आज़ादी व अनुमति होनी चाहिये। चाहे वह स्कूल हो या कार्यस्थल और या कोई जगह।

इन देशों में जिस तरह हिजाब न करने वाली महिलाओं और लड़कियों को पूरी आज़ादी है उसी तरह जो लड़कियां और महिलायें हिजाब करना चाहती हैं उन्हें भी पूरी आज़ादी होनी चाहिये। जिस तरह खाने पीने में पूरी तरह आज़ादी है। यह कौन सी आज़ादी है कि जो लड़कियां और महिलाएं बिना हिजाब के रहना चाहती हैं उन्हें एसा करने की पूरी आज़ादी है परंतु जो महिलायें और लड़कियां हिजाब करना चाहती हैं उन्हें एसा करने की अनुमति नहीं दी जाती। यूरोपीय संघ की अदालत का यह फैसला आज़ादी से पूर्णरूप से विरोधाभास रखता है।

इसी तरह पश्चिमी व यूरोपीय देश यह कहते हैं कि हर इंसान को बोलने की पूरी आज़ादी है। इन देशों में अगर ईश्वरीय दूतों का अपमान किया जाता है या ईश्वरीय ग्रंथ पवित्र कुरआन का अपमान व अनादर किया जाता है तो इन देशों के बुद्धिजीवी बड़ी निर्लज्जता से कहते हैं कि हर इंसान को अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है मगर जैसे ही इस्राईल और होलोकास्ट का नाम आता है इन देशों की सरकारों और बुद्धिजीवियों के कान खड़े हो जाते हैं। यही नहीं कुछ यूरोपीय व पश्चिमी देशों में होलोकास्ट के बारे में सवाल करना न केवल मना है बल्कि अपराध, जुर्माना और 6 महीने जेल की सजा तक का प्रावधान है।

सवाल यह पैदा होता है कि आज़ादी का दम भरने वाले देश होलोकास्ट के बारे में सवाल करने से क्यों मना करते हैं? कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं है? बहुत से जानकार हल्कों का मानना है कि न केवल दाल में काला है बल्कि पूरी दाल ही काली है। पश्चिमी व यूरोपीय देशों ने होलोकास्ट के बारे में सवाल करने पर जो प्रतिबंध लगा रखा है उसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है