साहित्य

“याद है न! आज शाम को ठीक छ: बजे, कोर्ट में…! “

Vijay Kumar Tailong ·
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मोह भंग!
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रतन जहाँ रहता था वहीं पास में खेल का कोर्ट था जहाँ रतन सुनील के साथ बैड मिन्टन खेलने जाया करता था। कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी उसके साथ खेलने की कि शाम को रुका ही नहीं जाता था। कभी वह किसी अन्य कार्य से अपने घर से चलकर सुनील के घर से गुजरते हुए बाजार की तरफ भी जा रहा होता था तो सुनील को न जाने कहाँ से महक आ जाती थी और वो उसे पुकार लेता था –
“याद है न! आज शाम को ठीक छ: बजे, कोर्ट में…! “
“याद है भाई, आ जाऊंगा!” रतन मुस्कुरा कर कहता हुआ आगे बढ़ जाता था।
एक सप्ताह पहले, जैसा सुनील कई दिनों पहले से कह रहा था कि वह विदेश जायेगा, वह विदेश चला गया। जाते हुए सुनील रतन से मिल ही नहीं पाया था। तब से कोर्ट में बैड मिन्टन खेलने का उनका तारतम्य टूट गया था।
कुछ दिन उसने यूँ ही बिताए परन्तु एक दिन वह सुनील के मकान में दाखिल हुआ। वहाँ सुनील के वृद्ध पिता व माता बैठे मिले। उसने उनका अभिवादन किया और पास में पड़े मोढ़े पर बैठ गया।
“सुनील के बिना, सूना सा लगता है। ” रतन ने बात शुरू की।
“हाँ बेटा!” पिता कांपती सी आवाज से बोला।
“वह कब तक आयेगा?”
“कुछ कहा नहीं उसने। शायद छह महीने बाद! कह रहा था, खर्चा भेजता रहेगा।” माँ बोली।
“…. और आपकी देखभाल?” रतन न चाहते हुए भी बोल गया। “ईश्वर है न! ” पिता मायूसी से बोला।
“घर का काम करने माई आती है।” माँ बोली।
“अच्छा, चलता हूँ। ” रतन बोला – ” कुछ जरूरत हो तो बताना। “
“कभी कभी आ जाना बेटा। ” पिता कांपती सी आवाज में बोला!
रतन इधर कोई पंद्रह दिनों से सुनील के माता पिता का हाल चाल जानने नहीं गया था। उसे खुद ही इस लापरवाही का एहसास हुआ तो एक दिन एकाएक सुनील के मकान में प्रवेश कर गया।
वहाँ एक लोकल डॉक्टर सुनील के पिता का बी पी जाँच रहा था। बोला – “इन्हें घर में कैद रहने की बजाय रोज घूमने फिरने जाने की जरूरत है । ये टेबलेट लेते रहना।”
डॉक्टर के जाने के बाद सुनील के पिता ने तकिये के नीचे से एक पत्र निकाला और रतन को दिया। पत्र विदेश से आया था।
“देखना बेटा, सुनील ने क्या लिखा है? ” पिता बोले।
रतन ने पत्र पढ़ा, लिखा था –
‘माँ पिताजी को प्रणाम! यहाँ मैं सेटल हो गया हूँ। अगले हफ्ते यहीं एक ऑफिस फैलो से कोर्ट मैरिज कर रहा हूँ। डॉक्टर को मैंने आपकी समय समय पर जाँच के लिए कह दिया है। अभी मैं लम्बे समय तक आ नहीं सकूँगा। आपका सुनील।’
माँ पिता रतन को अवाक् हो देखने लगे।
जैसे जैसे वक्त बीतता गया, सुनील के घर आने की संभावना धूमिल होती गई। यहाँ तक कि उसने माता पिता का हालचाल जानने तक के लिए संचार माध्यमों का उपयोग बंद कर दिया था।
उसने विदेश में ही घर बना और बसा लिया था।
एक वर्ष बाद रतन ने सुनील के पिता के कहने पर वहाँ उसके लम्बे चौड़े मकान के गेट पर वृद्धाश्रम का बोर्ड लगवा दिया। रजिस्ट्रेशन भी ले लिया। सुनील अब कोई खर्चा नहीं भेजता था। रतन अब उस वृद्धाश्रम का इंंचार्ज हो गया था। सुनील को लिखकर भेज दिया था। उसका जवाब मिला था जिसमें उसने राहत की साँस ली थी और रतन को अपना सच्चा मित्र बताया था।
कभी कभी रतन के दिमाग में ये प्रश्न उठ जाता था कि कैसे एक मनुष्य का, अपने ही जन्मदाता और जन्मभूमि से मोहभंग हो जाता है?
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स्वरचित एवं मौलिक रचना।
विजय कुमार तैलंग
जयपुर। राजस्थान।
दिनांक: 9 सितम्बर, 2023