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मोहम्मद रफी ने हज करने के बाद फ़िल्म लाईन छोड़कर अल्लाह-अल्लाह करने का इरादा बनाया था,जनिए फिर क्या हुआ ?

नई दिल्ली: संगीत की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने 1970 में अपनी पत्नी बिलकीस रफी और और बड़े भाई मोहम्मद दीन के साथ हज किया था,जिसके बाद उन्होंने फिल्मी दुनिया को छोड़ने का इरादा बना लिया था,लेकिन अचानक एक ऐसी घटना हुई कि वो फिर वापस हुए।

इस बारे में रफी साहब ने अपने एक इंटरव्यु में देखिए क्या कहा था “मेरा घराना मजहबपरस्त था. गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था. मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब निहायत दीनी इंसान थे. उनका ज्यादा वक्त यादे–इलाही में गुजरता था. मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था. जाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप–छिप कर किया करता था।

दरअसल मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज में गायकी के शौक की तरबियत (सीख) एक फकीर से मिली थी. ‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार…’ यह गीत गाकर वह लोगों को दावते–हक दिया करता था. जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था. रफ्ता–रफ्ता मेरी आवाज गांव वालों को भाने लगी. अब वो चोरी–चोरी मुझसे गाना सुना करते थे।

एक दिन मेरा लाहौर जाने का इत्तिफाक हुआ. वहां कोई प्रोग्राम था, जिसमें उस दौर के मशहूर फनकार मास्टर नजीर और स्वर्णलता भी मौजूद थे. वहां मुझे भी गाने को कहा गया, उस वक्त मेरी उम्र 15 बरस होगी. जब मैंने गाना शुरू किया तो नजीर साहब को बहुत पसंद आया. वे उन दिनों ‘लैला मजनूं‘ बना रहे थे. उन्होंने उसी वक्त मुझे अपनी फिल्म में गाने को कहा।

मैं अपनी तौर पर इस पेशकश को कुबूल नहीं कर सका. मैंने उन्हें बताया कि अगर मेरे वालिद साहब जिन्हें हम मियां जी कहते थे, को आप राजी कर लें, तो मैं जरूर गाऊंगा. भला उन जैसे मजहबी इंसान जो गाने–बजाने को पसंद नहीं करते थे, कैसे राजी हो जाते? चुनांचे उन्होंने साफ इंकार कर दिया. लेकिन मेरे बड़े भाई हाजी मोहम्मद दीन ने न जाने कैसे, मियां जी को किस तरह समझाया–बुझाया कि उन्होंने मुझे ‘लैला मजनूं‘ में गाने की इजाजत दे दी. इस फिल्म के जरिए मेरी आवाज पहली बार लोगों तक पहुंची और सराहा गया।

आपको यह जानकर हैरत होगी कि मुझे फिल्म देखने का बिल्कुल शौक नहीं है. अमूमन मैं फिल्म के दौरान सिनेमाहाल में सो जाता हूं

इसके बाद फिल्म ‘गांव की गोरी‘ में भी मैंने गाने गाए, जो काफी मशहूर हुए. मगर सही मायनों में मेरी कामयाबी का आगाज फिल्म ‘जुगनू‘ के गानों से हुआ. फिर मुझे फिल्मों में काम करने का शौक भी पैदा हुआ. लेकिन सच पूछो तो मुंह पर चूना लगाना (मेकअप) मुझे अच्छा नहीं लगता था. इस चूनेबाजी में ही फिल्मों में मेरे काम करने और म्यूजिक देने की पेशकश आती रही, लेकिन मैंने गाने को अपनी मंजिल बना लिया. यह मंजिल ही मेरी जिंदगी है।

मेरे कोई खास शौक या आदत नहीं है. शराबनोशी तो दूर की बात है. मैंने आज तक सिगरेट को भी हाथ नहीं लगाया है. नमाज का फर्ज बाकायदगी से अदा करता हूं।

पहली बार हज करने के बाद मैंने फिल्म लाइन छोड़कर अल्लाह–अल्लाह करने का इरादा कर लिया था. लेकिन कुछ लोगों ने यह प्रोपेगंडा शुरू कर दिया कि मेरी मार्केट वैल्यू खत्म हो गई है और अब कोई मुझे पूछता भी नहीं है. जबकि फिल्मकार और म्यूजिक डायरेक्टर बदस्तूर मुझसे गाने का इसरार कर रहे थे।

फिल्म लाइन छोड़ने का एक मकसद यह भी था कि नए गानेवालों को अपने फन को बढ़ाने का मौका मिले. मुझे फिल्मी दुनिया में दोबारा नौशाद साहब का इसरार खींच लाया था. उन्होंने कहा था कि मेरी आवाज अवामी अमानत है और मुझे अमानत में खयानत करने का कोई हक नहीं पहुंचता. चुनांचे मैंने फिर गाना शुरू कर दिया और अब तो ताजिंदगी रहेगा

(संगीत की दुनिया में अपने सफर की कहानी बयां करता मोहम्मद रफी का यह आलेख करीब चार दशक पहले उर्दू पत्रिका शमां में प्रकाशित हुआ था)