साहित्य

मैं तुझे ढ़ूंडता फिरता हूँ ज़माने भर में…. शक़ील सिकंद्राबादी की दो ग़ज़लें

Shakeel Sikandrabadi
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ग़ज़ल
मेरी गुफ्तार सदाक़त का बयाँ ठहरी है
मेरी हर बात यूँ ज़ालिम को गिराँ ठहरी है
हाए ये कैसा रहे इश्क़ में आया है मक़ाम
बात करने लगीं आँखें तो ज़बाँ ठहरी है
मैं तुझे ढ़ूंडता फिरता हूँ ज़माने भर में
ऐ ख़ुशी ये तो बता दे तू कहाँ ठहरी है
ये मुहल्ला तो शरीफों का मुहल्ला है फक़त
किस लिए आके मुसीबत तू यहाँ ठहरी है
जब तलक हम थे निगहबान गुलिस्ताँ के बता
क्या कभी सहने गुलिस्ताँ में ख़िज़ाँ ठहरी है
ये तो तुझको भी पता है के सबब दूरी का
मेरा किरदार नहीं तेरी ज़बाँ ठहरी है
उसको परखा तो मुहोब्बत से वो निकला ख़ाली
जिस नदी को मैं समझता था रवाँ , ठहरी है
कल जहाँ हुस्न का दीदार हुवा था मुझको
आज फिर जाके नज़र मेरी वहाँ ठहरी है
जब यहाँ कोईभी सुनता नहीं फरयाद शकील
किस लिए फिर तेरे होटों पे फुगाँ ठहरी है
शकील सिकंद्राबादी

Shakeel Sikandrabadi
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ग़ज़ल
घबरा के जान दे दूँ ग़मे रोज़गार से
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
ग़ैरों से तुमको प्यार है नफरत है यार से
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
मज़दूर को सताते हो दौलत के ज़ौम में
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
दुनिया की जुस्तजू में इबादत से दूर हो
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
आवाज़ तुम उछाते हो हक़ बात के ख़िलाफ
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
मेरी तबाहियों को तेरा हंस के देखना
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
हर वक़्त मेरे साथ में करते हो बद सुलूक
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
ज़िक्रे वफा पे कहते हैं मुझसे ये एहले ज़र
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
रहना शकील तेरा मुख़ालिफ के साथ में
अच्छी नहीं ये बात किसी एतबार से
शकील सिकंद्राबादी