साहित्य

मैं अपनें आस पास जितने भी लोगों को देखती हूं उनमें बिलकुल शांत और ख़ुश मुझे कोई भी नहीं दिखाई पड़ता लेकिन…

मनस्वी अपर्णा
===========
#थोड़ा_है_थोड़े_की_ज़रूरत_है

जावेद अख़्तर साहब का एक बड़ा मशहूर शेर है उसी से अपनी बात शुरू करती हूॅं शेर कुछ यूं है..…..

सबका खुशी से फासला एक क़दम है
हर घर में बस एक ही कमरा कम है

ये शेर और इसका मफहूम हमारी ज़मीनी हक़ीक़त है, मैं अपनें आस पास जितने भी लोगों को देखती हूं उनमें बिलकुल शांत और ख़ुश मुझे कोई भी नहीं दिखाई पड़ता लेकिन ये बात भी ग़ौर करने लायक है कि बहुतायत में लोग जिन भी परेशानियों से परेशान हैं वो बड़ी मामूली सी हैं…. मैं मानती हूं कि हमें ग़ैर की परेशानियां अपनी परेशानियों के बनिस्बत कम ही जान पड़ती हैं लेकिन इसके बावजूद मैं कहूंगी कि उनकी परेशानियां वाकई मामूली होती हैं, आम घरों में बीमारियां,आपसी अनबन और ख़र्च का मसअला और ख़ास घरों में ego और जायदाद के मसअले… इन सबमें जो बड़ी से बड़ी परेशानी लोगों की मैं देख पा रही हूं वो है space की कमी और उससे भी बढ़कर है personal space की कमी।

जिस तरह से हम इंसानों की तादाद बढ़ रही है यूं भी हमारे हिस्से की ज़मीन, हवा, पानी और ख़ाना सब लगातार बंटते जा रहा है… बाहर निकलते ही सिर्फ़ भीड़ मिलती है हमारे दायरे लगातार सिमटते जा रहें हैं…. घर, आंगन, गलियां सब सिकुड़ रही हैं, मकान बेचने वाले बित्ते भर की जगह के लाखों रुपए मांगते हैं और हम देते भी हैं, आंगन, बरामदे और दालान वाले घर गुम हो गए हैं उनकी जगह पर सिकुड़े सिमटे flats ने ली है, और हम जैसे रोज़ ब रोज़ अपना फैलाव कम करते जा रहे हैं, ये बात देखने में कोई ख़ास नहीं जान पड़ती लेकिन इसके गहरे मनोवैज्ञानिक असर होते हैं, हमारे ज़हन चिड़चड़े और उलझे उलझे से हो गए हैं उसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी है।

इसके अलावा जो ख़ास बात मैं देखती हूं कि हम परिवार के नाम पर लगातार एक दूसरे का गला घोंटे हुए बैठे हैं, हम अपने लोगों के ज़ाती दायरे में इस हद तक दाख़िल हैं कि उनका personal space बिलकुल ख़त्म कर चुके हैं, नतीजतन हम को अपनों से ही अपनी बातें छुपानी पड़ती है, बड़ी मामूली सी ख़ुशी जो हमारे निजी दायरे में आती है और हमारा ज़ाती हक़ है उसको हासिल करने के लिए हज़ार हज़ार तरक़ीबें लगानी पड़ती हैं , झूठ बोलना पड़ता है, बहाने बनाने पड़ते हैं और यक़ीनन ये सब करके कोई ख़ुशी तो मिलती नहीं उल्टा guilt और बढ़ती है हमारा ज़हन सिकुड़ता है, हम चिड़चिड़े और उदास होने लगते हैं।

छोटे बच्चों का ख़याल रखा जाए उन पर नज़र रखी जाए यहां तक तो ठीक है लेकिन किसी सयाने आदमी को लगातार नज़र की ज़द में रखना बिल्कुल ही ग़ैर वाजिब बात है आपका कोई अपना आपसे अपनी ज़िंदग़ी का छोटा सा हिस्सा चाह रहा है जिसे वो अपने ढंग से गुज़ार सके, जिसके लिए उसे बेफजूल के इल्ज़ाम न उठाने पड़े न ही वाहियात सी सफाईयां देनी पड़े … सोचकर देखिए न तो ये इतनी बड़ी बात होनी चाहिए, न ही आपका दिल इतना तंग होना चाहिए कि जिसमें आपके अपनों की ख़ुशी के लिए कोई जगह ही न हो। परिवार में या समाज में खुश रहने का इकलौता तरीक़ा जो मुझे समझ आया है वह यही है कि हम दूसरों को भी उनकी मर्ज़ी के हिसाब से ख़ुश रहने दें….. वरना कुढ़कर, जलकर हम अल्सर, कैंसर, बीपी और सर दर्द जैसी कई बीमारियां तो पाल ही रहें हैं, इनसे बचना है तो दूसरों की ज़िंदग़ी में ज़रूरत से ज़्यादा दख़ल और रोक टोक से बचना होगा।

ऐसा मुझे मेरे मतानुसार लगता है।

मनस्वी अपर्णा