Apoorva Apoorva
============
मेरी बात
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं
उत्तराखण्ड को हम उत्तराखण्डी बड़े अभिमान के साथ देवभूमि कह पुकारते हैं। असल में यह देवभूमि कम त्रासदियों की भूमि ज्यादा है। वर्ष दर वर्ष यहां कभी कथित दैवीय आपदाओं का साया रहता है तो कभी मनुष्य जनित का। दैवीय आपदा भी दरअसल प्रकृति संग अनावश्यक छेड़छाड़ का नतीजा बन मनुष्य को समय-समय पर स्मरण कराने का प्रयास करती हैं कि उसका लालच स्वयं उसके लिए कितना घातक और विनाशकारी हो सकता है। मनुष्य है कि कोई सबक लेने को राजी नहीं। देव भूमि के लिए गत् सप्ताह मनुष्य के अमानुष होने और पूरी प्रशासनिक व्यवस्था के ध्वस्त होने के नाम रहा। सच तो यह कि केवल शासन तंत्र अपनी संविधान प्रदत्त जिम्मेदारियों को निभा पाया और न ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ निष्पक्षता के साथ जो कुछ भी राज्य के एक प्रमुख शहर हल्द्वानी में घटा, उसका सच सामने लाने का प्रयास करता नजर आया। एक ऐसा नैरेटिव गढ़ा गया और लगातार गढ़ा जा रहा है कि इस शहर के मुसलमान बाहुल्य इलाके बनभूलपुरा में जो कुछ आठ फरवरी की शाम घटा वह मात्र कानून-व्यवस्था का मुद्दा है। राज्य सरकार, सरकार का सूचना तंत्र, सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी के नेता, सभी एक सुर में हल्द्वानी शहर की पुलिस द्वारा अनियंत्रित भीड़ पर की गई गोलीबारी को जायज ठहराने के लिए जो तर्क सामने रख रहे हैं और जिस आसानी से मीडिया न केवल इन तर्कों को स्वीकार रहा है बल्कि नमक-मिर्च लगा आमजन को परोस रहा है, उससे स्पष्ट होता है कि सत्ता और मीडिया मध्य दुःरभि संट्टि स्थापित हो चली है यह दुःरभि संधि लोकतंत्र के लिए बेहद खराब है, निंदनीय है। तो चलिए समझने का प्रयास करते हैं कि बनभूलपुरा में आठ फरवरी के दिन क्या हुआ और क्योंकर हुआ।
बनभूलपुरा हल्द्वानी श्हार का मुसलमान बाहुल्य इलाका है। यहां रहने वाले अधिकांश लोग रेहड़ी-पटरी वाले, ऑटोरिक्शा चलाने वाले, शहर की सफाई व्यवस्था का जिम्मा संभालने वाले, कुल मिलाकर शहर के गरीब-गुरबा लोग हैं। यह क्षेत्र अधिकांश नजूल भूमि का क्षेत्र है। नजूल भूमि उस भूमि को कहा जाता है जिस का मालिकाना अधिकार किसी के पास नहीं होता। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेज सत्ता ने देश भर में बागियों की जमीन को कुर्क कर लिया था। आजादी उपरांत ऐसी जमीनों को उनके मालिकों के हवाले कर दिया गया था। जिन जमीनों का वारिस नहीं था अथवा जिन जमीनों पर अपना पूर्ण स्वामित्व साबित करने के लिए दावेदारों के पास प्रमाण नहीं थे, उन जमीनों को नजूल की जमीन का नाम दिया गया। ऐसी जमीनों की मालिक तो राज्य सरकार होती है लेकिन इन जमीनों को राज्य संपत्ति के रूप में प्रशासित नहीं किया जाता है। नजूल भूमि के लिए अलग से एक कानून 1956 में बनाया गया, नजूल भूमि (स्थानांतरण) नियम, 1956।
इस कानून के अंतर्गत सरकार नजूल भूमि का उपयोग सार्वजनिक उपयोग जैसे स्कूल, अस्पताल, ग्राम पंचायत भवन इत्यादि के लिए करती है। बनभूलपुरा की बसावट इसी प्रकार की नजूल भूमि पर है। यहां पर सरकार द्वारा गरीबों को पट्टे भी आवंटित किए हैं, सरकारी स्कूल, अस्पताल व अन्य सभी सुविधाएं भी यहां के नागरिकों को सरकार द्वारा दी गई है। बहुत सी जमीनें ऐसी भी हैं जिन्हें स्थानीय निवासियों द्वारा अतिक्रमित किया गया हैं ऐसे ही एक भूखण्ड जिस पर मस्जिद तथा मदरसा बना हुआ है, हल्द्वानी नगर निगम द्वारा अतिक्रमण बतौर चिन्हित किया गया और इसी को ध्वस्त कर भूखण्ड को अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए नगर निगम की टीम आठ फरवरी को बनभूलपुरा गई थी। स्थानीय निवासियों द्वारा इस टीम का विरोध किया गया। निगमकर्मी और पुलिस बल संग नागरिकों की तकरार बेकाबू हो हिंसक हो गई। सरकारी टीम पर पत्थर बरसाए जाने, पेट्रोल बम फेंकने और जवाबी कार्यवाही में पुलिस द्वारा फायरिंग किए जाने की बात कही-सुनी जा रही है। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया में यही शोर है कि अराजक, यहां तक की देशद्रोही तत्वों ने सरकारी टीम पर जानलेवा हमला किया और अपनी जान बचाने के लिए मजबूरन पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिसमें छह नागरिकों की मौत हो गई।
यह सही है कि स्थानीय नागरिकों को हिंसा का मार्ग कतई नहीं अपनाना चाहिए था लेकिन उतना ही सच यह भी है कि बनभूलपुरा के नागरिकों को लगातार यह बताने की कुचेष्टा की जा रही थी कि वे अल्पसंख्यक हैं और अल्पसंख्यकों को अपने दायरे में रहना सीखना होगा क्योंकि देश का संविधान भले ही इस देश को पंथनिरपेक्ष घोषित करता हो, अब वक्त बदल गया है। अब भारत में रहने की अनिवार्य शर्त जय श्रीराम कहना है और ऐसी कुचेष्टा बहुसंख्यकों के प्रतिनिधि ही नहीं कर रहे थे, हैं बल्कि उत्तराखण्ड, विशेषकर नैनीताल जनपद का सरकारी तंत्र भी खुद को राजभक्त साबित करने के लिए इस कुचेष्टा में सक्रिय भागीदारी निभाता रहा है। इस शहर में बतौर नगर आयुक्त एक पीसीएस सेवा के अधिकारी पंकज उपाध्याय अभी तक तैनात हैं। यह महानुभाव जनवरी माह में अन्यत्र स्थानांतरित कर दिए गए थे लेकिन इन्हें ‘कतिपय कारणों’ चलते पदमुक्त नहीं किया गया। इस हिंसक घटना से कुछ अर्सा पहले ही इन महाशय ने एक अन्य अतिक्रमित जमीन पर खड़े होकर दंभपूर्ण अंदाज में स्थानीय नागरिकों को धमकाया था कि वे इस जमीन को अतिक्रमण मुक्त कराएंगे ही कराएंगे और यहां पर गौशाला का निर्माण करवाएंगे।
अतिक्रमण को ध्वस्त कराना इनका फर्ज है लेकिन गौशाला का निर्माण कराना इनके अधिकार क्षेत्र में नहीं। गौशाला चूंकि सत्तारूढ़ दल के अघोषित एजेंडे का हिस्सा है इसलिए विधान से भक्ति को त्याग इस अधिकारी ने राजभक्ति का चरम प्रदर्शन करते हुए गौशाला निर्माण की बात कही। जाहिर है लंबे अर्से से खुद को दोयम दर्जे का नागरिक बनते देख रहे अल्पसंख्यक समुदाय की भावनाओं को इन महाशय ने उग्र करने की मंशा से आग में घी डालने का काम किया। बनभूलपुरा स्थित विवादित भूमि से अतिक्रमण हटाने का मुद्दा उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय में 8 फरवरी को सुना जाना था लेकिन सुनवाई उस दिन हो न सकी। 14 फरवरी को दोबारा सुनवाई होनी थी। ऐसे में कोई औचित्य नहीं था कि नगर निगम और जिला प्रशासन हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार किए बगैर, सुनवाई स्थागित होते ही सक्रिय हो उठता। फिर भी ऐसा उसने किया तो संदेह होना स्वभाविक है कि यह जिला प्रशासन के अधिकारियों की राजभक्ति का नतीजा था या फिर कोई सोची- समझी रणनीति का हिस्सा? यहां यह समझना भी जरूरी है कि अकेले शहर हल्द्वानी में ही सरकारी जमीन पर रसूखदारों द्वारा अतिक्रमण किए जाने के असंख्य उदाहरण हैं जिन पर जिला प्रशासन खामोश रहता है और कार्यवाही करने से बचता है। ऐसे में प्रश्न उठता है, उठना स्वभाविक है कि क्योंकर जिला प्रशासन ने तत्काल ही कार्यवाही करना जरूरी समझा?
प्रश्न यह भी कि खुफिया पुलिस द्वारा बनभूलपुरा में स्थिति संवेदनशील होने की सूचना देने के बाद भी जिला प्रशासन ने समुचित पुलिस बल की व्यवस्था करना क्योंकर उचित नहीं समझा? छह नागरिक मारे गए, बहुत से पुलिसकर्मी घायल हो गए लेकिन राज्य सरकार ने जिला प्रशासन विशेषकर जिलाधिकारी वंदना सिंह, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक प्रहलाद मीणा, कार्यवाहक नगर आयुक्त पंकज उपाध्याय और सिटी मजिस्ट्रेट ऋचा सिंह पर कोई कार्यवाही न कर यह स्पष्ट संदेश दिया है कि अतिक्रमण चूंकि अल्पसंख्यक बाहुल्य इलाके में था इसलिए वहां की गई कार्यवाही उसकी दृष्टि में जायज है।
यह भी कि पंकज उपाध्याय सरीखे राजभक्त अधिकारियों को सत्ता का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है। यहां यह भी समझाया जाना बेहद जरूरी है कि मीडिया के जरिए जो नैरेटिव हल्द्वानी शहर की जनसांख्यिकी को लेकर फैलाया जा रहा है वह तथ्यों पर आधारित कतई नहीं है। यह कहा जा रहा है कि शहर में मुसलमान आबादी बीते कुछ समय में तेजी से बढ़ी है और इस आबादी के कारण शहर की फिजा खराब हुई है। 2001 की जनसंख्या के आंकड़े हल्द्वानी शहर में मुसलमानों की जनसंख्या 80,436 बताते हैं जो 2011 की जनगणना अनुसार घटकर मात्र 67,000 रह गई है। यहां
यह भी गौरतलब है कि बीते कुछ अर्से से उत्तराखण्ड में साम्प्रदायिक माहौल को सुनियोजित तरीके से बिगाड़ने का काम किया जा रहा है। उत्तरकाशी से लेकर मुनस्यारी तक बहुत कुछ ऐसा बीते दिनों देखने को मिला जिससे यह आशंका बलवती हुई है कि उत्तराखण्ड हिंदुत्व की अवधारणा के पोषकों द्वारा एक प्रयोगशाला बतौर इस्तेमाल किया जा रहा है। मैं निजी तौर पर पुष्कर सिंह धामी सरकार द्वारा बीते दिनों राज्य विधानसभा में पारित समान नागरिक संहिता का पक्षधर हूं। हालांकि इस कानून के कुछ पहलुओं से मेरी असहमति है लेकिन मोटे तौर पर मेरा मानना है कि समान नागरिक संहिता स्वस्थ लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत है।
इसलिए मैंने मुख्यमंत्री ट्टामी को इस कानून के लिए सराहा लेकिन जो कुछ गत् सप्ताह हल्द्वानी में हुआ और जिस प्रकार धामी सरकार की प्रतिक्रिया रही, उसने उत्तराखण्ड के भविष्य की बाबत मेरी आशंकाओं को गहराने का काम किया है। कवि दुष्यंत के शब्दों में ‘मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं/मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।