साहित्य

*मेरा दहेज का सामान*

Laxmi Kumawat
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* मेरा दहेज का सामान *
आज घर में नई वाशिंग मशीन आई थी, जिसे देखकर घर के बाकी लोग तो बहुत खुश हो गए। खासकर बिंदिया जी। आखिर उनका बेटा सौरभ उनके लिए वाशिंग मशीन खरीद कर लाया था।

हां, ये अलग बात है कि कुछ पैसे जगदीश जी ने सौरभ को दिए थे। बाकी के पैसे वो अपने पास से मिलाकर वाशिंग मशीन कैश में ही ले आया। अभी सब उसी वॉशिंग मशीन को घेर कर उसका दीदार कर रहे थे। ये देखकर घर की बहू निर्मला जली भूनी सी अपने कमरे में आकर बैठ गई।

थोड़ी देर बाद सौरभ कमरे में आया और कपड़े बदलने के लिए अलमारी में से कपड़े निकाल ही रहा था कि निर्मला बोली,
” क्यों जी, कितने पैसे खर्च कर दिये आपने वाशिंग मशीन में? ईएमआई पर नहीं ला सकते थे क्या। दे देते बाबूजी पैसे। कमाते तो वो भी है। अरे मशीन की जरूरत उनको है,हम को नहीं। तो वो लोग उसके पैसे दे। तुम क्यों दे रहे हो?”

” निर्मला वो मेरे माता-पिता हैं। मां को वॉशिंग मशीन की जरूरत थी। कितनी परेशान होती थी वो। इसलिए मैं मशीन खरीद कर ले आया”
” अच्छा! मैं भी तो हाथ से कपड़े धोती हूँ। मुझ पर तो कभी तरस नहीं आया। भला ये क्या बात हुई? तुम आदमी लोग तो हमेशा माँ माँ करते रहते हो। तुम लोगों के लिए तो बीवी कुछ भी नहीं होती। मां की परेशानी तो तुम से देखते नहीं बनी। और मेरा क्या?”

निर्मला चिढ़ती हुई बोली।
” तुम्हें तो परेशान होने की आदत है। भला इसमें मैं क्या कर सकता हूं?”
कहकर सौरभ अपने कपड़े लेकर जाने लगा। उसकी बात सुनकर निर्मला और ज्यादा चिढ़ गई और उसके सामने आकर खड़ी हो गई।
” अच्छा! बस मुझे ही ताने मार लो। भला मुझे क्यों परेशान होने की आदत होगी? तुम्हारी मां से खुद के और तुम्हारे पापा के कपड़े तक नहीं धूलते। और मैं? तुम चार चार लोगों के कपड़े हाथ से धोती हूं”

” तो इसमें मेरी गलती है क्या? मैं क्या कर सकता हूं। जहां तक हो सकता है मैं अपने कपड़े खुद धोने की कोशिश करता हूं। कभी देर सबेर ही तुमसे अपने कपड़े धोने को कहता हूं। अब अपने और अपने बच्चों के कपड़े तो तुम ही धोओगी”

” मेरी तो किस्मत ही खराब है जो मेरे माता-पिता ने तुमसे मेरी शादी कर दी। इससे तो अच्छा मेरे मां-बाप कोई ढंग का ठिकाना देखकर मेरी शादी कर देते तो कम से कम मैं खुश तो रहती”

” इसमें तुम्हारे माता-पिता की गलती नहीं है। वो किसी अमीर घर में भी तुम्हारी शादी कर देते, तब भी तुम खुश नहीं रहती। क्योंकि तुम्हें हर बात में मेरा मेरा करने की आदत है। अब तुम ही देख लो। कहाँ तो उन्होंने ये सोचकर तुम्हारी शादी में वाशिंग मशीन दी थी कि मेरी बेटी को परेशान नहीं होना पड़ेगा। हाथ से कपड़े नहीं धोने पड़ेंगे। लेकिन तुमने क्या किया? मेरी वाशिंग मशीन, मेरी वाशिंग मशीन करके उसे अभी तक पैक करके रख रखा है। शादी के सात साल बाद तो वो भी जंग खाने लग गई होगी”

” अच्छा! वो तो मेरे माता-पिता ने दी है। उस मशीन से ससुराल वालों का क्या लेना देना”

” ससुराल वाले तो कुछ देते ही नहीं है बहु को। याद रखो जिस कमरे में तुम वो दहेज का सामान लेकर बैठी हो ना, वो कमरा उस घर का हिस्सा है जो ससुराल वालों का है”

कह कर सौरभ कपड़े बदलने चला गया।

” लो, ससुराल वाले भी तो घर की धौंस दिखाने लग गए। इसीलिए तो कहते हैं कि बहू को कोई भी अपना नहीं मानता। शादी के सात साल बाद आखिर अपनी औकात पर आ ही गए ना”

निर्मला जोर से चिल्लाते हुए बोली। ये बातें बाहर बिंदिया जी को भी सुनाई दे रही थी। आखिर वो कमरे में आई और आते से ही निर्मला से बोली,

” बहु क्यों चिल्ला रही हो? घर में चिखना चिल्लाना शोभा देता है क्या?”

” हां, आप तो मुझे ही कहेंगे ना। अपने बेटे को क्यों कहेंगे भला? बहू कभी ससुराल वालों की हुई है क्या? आज घर की धौंस दिखा ही दी ना आपके बेटे ने”
निर्मला बिंदिया जी को जवाब देते हुए बोली।

” बहु माना कि सौरभ गलत है। उसे ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। पर एक बात मुझे समझ में नहीं आई। तुझे बुरा क्यों लग रहा है? आज वो तेरी ही भाषा तो बोल रहा है। तो अपने ही जैसे व्यक्तित्व को देखकर इतना तिलमिला क्यों गई? तुम तो अक्सर ही हमें अपने किसी न किसी सामान की धौंस दिखाती ही रहती हो ना, पर हम चुपचाप सुन लेते हैं। तो आज जब सौरभ ने अपने मकान की धौंस दिखा दी तो इतना बुरा क्यों लगा?”

कहकर बिंदिया जी कमरे से बाहर आ गई। वही निर्मला को अपने कमरे में बैठी बड़बड़ाती रही। इधर बिंदिया जी को वो बातें याद हो आई जब निर्मला इस घर की बहू बनकर आई थी। निर्मला अपने किसी सामान को कभी किसी के साथ शेयर करना पसंद नहीं करती थी। खासकर मायके से आए हुए सामान को।

शादी के एक सप्ताह बाद बिंदिया जी अपनी बेटी निधि के साथ मिलकर इकट्ठे हो चुके बेडशीट और पर्दों को हाथों से धो रही थी। ये देखकर सौरभ ने दहेज में आई हुई वाशिंग मशीन को खोल लिया। अभी उसे कमरे के बाहर निकाल ही रहा था कि निर्मला ने टोक दिया,
” अरे ये क्या कर रहे हो? भला वाशिंग मशीन क्यों निकाल रहे हो?”

” अरे शादी के बाद की साफ-सफाई में देखो कितने कपड़े निकले हैं। इतनी बेडशीट और परदे धोने हैं। जब घर में वाशिंग मशीन है तो हाथ से कपड़े क्यों धोना। इसलिए मशीन निकाल रहा हूं”

सौरभ में भी जवाब दिया।
” नहीं नहीं, वाशिंग मशीन मत निकालो। ये तो मेरे मम्मी पापा ने दी है। क्या शादी से पहले आपके घर में कपड़े नहीं धुलते थे”
निर्मला का मुंह तोड़ जवाब सुनकर सौरभ हक्का-बक्का रह गया। वो कुछ कहने को हुआ तो बिंदिया जी ने उसे इशारे से चुप रहने को कह दिया। उसके बाद वो मशीन पैक करके रख दी गई।

कुछ महीनों बाद बिंदिया जी की बेटी निधि की ससुराल में प्रोग्राम था, जिसमें उन्हें पहरावनी देनी थी। कुछ कपड़े तो वो अपने पास से निकाल चुकी थी और कुछ ये सोचकर वो निर्मला से लेने उसके कमरे में पहुंच गई कि निर्मला के पास भी कई सारी साड़ियां है जो वो इस्तेमाल नहीं करती।

” अरे बहु सुन तो, निधि के ससुराल पहरावनी करनी है तो तेरी कुछ साड़ियां जो तू नहीं पहनने वाली है वो दे दे। कोरी ही तो रखी है। तू ने तो कभी पहनी भी नहीं। कुछ साड़ियां मैं अपने पास से निकाल लेती हूं, ताकि पहरवानी के खर्चे का बोझ कुछ तो कम हो”
सासू मां ने कमरे में आते हुए कहा।

” अरे माँ जी, मेरी साड़ियां क्यों? बेटी आपकी है तो आप दीजिए। मुझसे क्या उम्मीद करती हैं। मेरे लिए आई हुई साड़ियां है, भला उस पर आपका क्या हक”
निर्मला ने मुंह तोड़ते हुए जवाब दिया। सुनकर बिंदिया जी बहू का मुंह ताकते हुए वही की वहीं खड़ी रह गई। फिर खुद को संभालते हुए बोली,

” बहु वो साड़ियां तू पहनती नहीं है। वो यूं ही बक्से में पड़ी रह जाएगी, इसलिए कहा था। अब रिश्तेदारी और पहरावनी में दूर दराज के रिश्तेदारों के लिए तो यूं ही घर में से साड़ियां निकाली जाती है तो इसलिए तुझसे कह दिया”
” तो अपने पास से निकालिए। आपके पास भी क्या साड़ियां कम है। रिश्तेदार आपके हैं। तो आप मुझसे क्या उम्मीद कर रही हैं”
निर्मला ने दोबारा जवाब दिया तो बिंदिया जी की हिम्मत नहीं हुई आगे और कुछ कहने की। भला ऐसी बहू के मुंह कौन लगे जो इज्जत ही उतार दे। बिंदिया जी वापस अपने कमरे में चली गई।

बिंदिया को बुरा तो बहुत लगा। पर क्या कर सकती थी। ऐसी बहू को क्या बोले जो अपने परिवार को परिवार भी नहीं समझती। अपने कमरे में जाकर अपने बक्से में से जितनी साड़ियां निकाल सकती थी निकाल दी। लेकिन फिर भी कुछ साड़ियां तो कम थी ही।
आखिर साड़ियाँ लानी तो पड़ेगी ही। ये सोचकर पर्स टटोला तो पैसे भी कम थे। अभी जगदीश जी का काम भी थोड़ा कम ही चल रहा था। ऊपर से अभी कुछ महीने पहले ही सौरभ की शादी की थी। उनके ही कर्जे चुक रहे थे। जबकि सौरभ की तनख्वाह से घर खर्च चल रहा था। तो हाथ थोड़े तंग थे।

अब तो शॉपिंग जगदीश जी के आने के बाद ही हो सकती थी इसलिए बिंदिया जी मन मसोस कर रह गई। कुछ साड़ियों की पैकिंग करके रख दी। और आखिरकार जगदीश जी ने इधर-उधर से कर्जा लेकर पैसों का बंदोबस्त किया। जिससे फिर बिंदिया जी ने लेनदेन की साड़ियां खरीदी।

सात सालों में ऐसे कई मौके आए जहां पर एक बहू होने के नाते निर्मला का साथ परिवार चाहता था पर निर्मला तो अपने में ही रहती थी।
खैर तभी बाहर सौरभ ने आते हुए कहा,
” चलो माँ, नयी मशीन का शुभारंभ करते हैं”
इधर अभी भी निर्मला के बढ़बढ़ाने की आवाज आ रही थी। बिंदिया जी ने सौरभ की तरफ देखा। सौरभ बिंदिया जी के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला,
” अब जिसको नहीं बदल सकते, उसे नहीं ही बदल सकते। फिर उसके पीछे खुद को क्यों परेशान करना। इसलिए जो है उसमें खुश हो लेते हैं”
उसकी बात सुनकर बिंदिया जी मुस्कुरा दी। मन में यह तो तसल्ली थी कि चलो बहु ना सही, कम से कम बेटा तो साथ है।

मौलिक व स्वरचित
✍️लक्ष्मी कुमावत
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