साहित्य

मेटामार्फोसिस (इक्कीसवीं सदी) : ताक़तवर नंगे लोगों की एक कथा और एक पहेली!

Kavita Krishnapallavi
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ताक़तवर नंगे लोगों की एक कथा और एक पहेली
राजा भी नंगा था
पुरोहित धर्मध्वजाधारी भी
और चारण भी और सभी प्रचारक भी I
फिर गरजा धर्मध्वजाधारी,
“मैं सबको नंगा कर दूँगा
जो मुझे पाखंडी कहेंगे!”
फिर राजा बोला मुस्कुराकर,
“हरदम डराने की ज़रूरत नहीं होती I
कवियों, कलावंतों और बौद्धिकों को
कभी प्यार से पुचकारकर,
फुसलाकर, बहलाकर, ललचाकर,
भव्य मंचों पर बुलाकर,
ईनामो-इकराम, तमगे और ओहदे देकर
बिना किसी हिंसा के, ख़ुद नंगा हो जाने के लिए
राज़ी किया जा सकता है
कुछ इसतरह कि वे नंगेपन के पक्ष में
नानाविध तर्क देने लगें
और शर्म की जगह अपने नंगेपन पर
गर्व करने लगें I”
फिर राजा बोला बंकिम भंगिमा और
कुटिल मुस्कान के साथ,”और कुछ हठी तो
होते ही हैं जो नहीं मानते किसी भी सूरत में I
उन्हें भी हम हाथी से नहीं कुचलवाते अब!
किसी दिन प्रातःभ्रमण करते हुए
कोई अज्ञात वाहन उन्हें कुचल देता है,
या सुबह-सुबह दरवाज़ा खोलते ही
कोई सिरफिरा उनको
गोलियों से छलनी कर देता है,
या सहसा किसी पारिवारिक समारोह में
उन्हें दिल का दौरा पड़ जाता है,
या देशद्रोही होने के पुख़्ता सबूतों के साथ
वे कालकोठरी में धकेल दिये जाते हैं
जहाँ से मृत या मृतप्राय ही बाहर आ पाते हैं!”
लेकिन राजा जब यह कह रहा था
तो कहते हुए डरता भी जा रहा था
और सुनने वाले भी डरते जा रहे थे!
इन पंक्तियों को पढ़ने वाले कितने लोग
बता सकते हैं कि वे सभी ताक़तवर नंगे लोग
क्या सोचकर
डरते जा रहे थे ज़्यादा से ज़्यादा,
अपनी तमाम सुरक्षा और
तमाम चालाकियों के बावजूद?

Kavita Krishnapallavi
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धन्य हैं हम कि इस समय के साक्षी रहे!
ये इक्कीसवीं सदी के शुरुआती सौभाग्यशाली दशक थे
जब विकटतम तिमिराच्छन्न दिनों के बावजूद
हिन्दी भाषा के सभी अच्छे कवि
इतने अच्छे थे, इतने अच्छे थे
कि फ़ासिस्ट और हत्यारे तक
उनकी कविताई के क़ायल थे I
उनके दिल इतने अच्छे थे, इतने अच्छे थे
कि उन्हें हत्यारों से, फ़ासिस्टों से,
भँड़वों से या दलालों से कभी
किसी तरह की घृणा महसूस ही नहीं होती थी I
बल्कि उनके दिलों में बेइख्तियार मुहब्बत
उमड़ पड़ती थी I
वे इतने भले थे कि बुराइयों को देखना
बर्दाश्त ही नहीं कर पाते थे
और बुरी से बुरी बुराई में भी
अच्छाई देख लेते थे I
कविता की कला को लेकर वे इतने
संवेदनशील थे कि कहते थे कि हमें तो
अच्छी और कलात्मक कविता का
मुरीद होना चाहिए चाहे वह कोई
प्रचंड ब्राह्मणवादी लिखे या कोई कोठे का दल्ला
या कोई हत्यारा या फ़ासिस्टों का कोई दरबारी
या कोई दुर्दांत दुराचारी या बर्बर बलात्कारी I
उनके हृदय में इतना प्रेम होता था लबालब
कि किसी स्त्री को देखते ही छलक पड़ता था
और वे दुनिया की तमाम स्त्रियों के दुख से
हमेशा दुखी रहा करते थे I
वे इतने शान्तिप्रिय थे कि किसी भी तरह की
हिंसा उन्हें असहनीय लगती थी और इसलिए
उस ओर देखते ही नहीं थे और हमेशा
शान्ति की और प्यार की बातें करते रहते थे I
वे इतने उदारमना थे कि आमंत्रण मिलने पर
नहा धोकर वहाँ भी जीमने पहुँच जाते थे
जहाँ जनसंहार के बाद ख़ून सने हाथों से
पूरियाँ-कचौरियाँ परोसी जा रही होती थीं I
परंपरा और इतिहास से इतना था लगाव उन्हें कि
मार्क्स और लेनिन और
अक्टूबर क्रांति की वर्षगाँठ के अतिरिक्त
अपने पिता के जनेऊ-खड़ाऊँ
और माता जी के छठ व्रत और तीज-त्योहार को
याद करते हुए उन्होंने अभिभूत कर देने वाली
बीसियों कविताएँ लिखीं थीं I
उनके जीवन जीने और
उनकी कविता की कला में जादू था इतना कि
कब वे बाँये बाजू से दाँये बाजू
और दाँये बाजू से बाँये बाजू चले जायेंगे,
कब नेरूदा के साथ शराब पीते और कब
चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास से
चरणामृत ग्रहण करते
और कब अशोक वाजपेयी के साथ वसंत विहार
करते देखे जायेंगे,
कब प्राक्-आधुनिक, कब आधुनिक और कब
उत्तर-आधुनिक हो जायेंगे,
कब ‘इंटरनेशनल’ गाते-गाते
‘रघुपति राघव राजा राम’ गाने लगेंगे,
या कबीर के पद गाते-गाते
सुन्दरकाण्ड का पाठ करने लगेंगे,
यह महानतम मार्क्सवादी आलोचक भी
नहीं समझ पाते थे और इसलिए मुग्ध होकर
उनके लिए श्रेष्ठ से श्रेष्ठ पुरस्कारों की
अनुशंसा कर देते थे I
एक गोष्ठी में तमाम दस्तावेज़ी साक्ष्यों के साथ
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के उत्तमोत्तम
जनवादी और प्रगतिशील माने जाने वाले
दो दर्जन कवियों ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया
और बताया कि पिताजी की साइड से तुलसीदास
और माताजी की साइड से कबीरदास
उनके महान पूर्वज थे!


Kavita Krishnapallavi
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मेटामार्फोसिस (इक्कीसवीं सदी)
एक तिलचट्टा था। दूसरे तिलचट्टों जैसा ही डरपोक, गंदगी का प्रेमी, लेकिन महत्वाकांक्षी। किचन से अधिक वक़्त किताबों की अलमारी में बिताता था।
किताबों के बीच छिपा-छिपा कई छोटे-बड़े शहरों से होता हुआ वह दिल्ली आ गया। कविता से लेकर इतिहास और दर्शन की किताबों में छिपा हुआ वह साहित्य अकादमी, दरियागंज, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर — सभी जगहों के चक्कर काटता रहा।
एक सुबह जब वह उठा तो काफ़ी देर तक भ्रम और परेशानी में पड़े रहने के बाद, उसे अपने भीतर आये बदलाव का बोध हो गया। उसने पाया कि वह फ़्रांज काफ़्का है !
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उत्तर-कथा
यह रहस्य-रोमांच भरा किस्सा मैं पहले भी सुना चुकी हूँ I अब आत्माओं की गुप्तचरी के दौरान मुझे पता चला कि इधर दिल्ली, भोपाल, रायपुर, लखनऊ, बनारस, पटना, वर्धा आदि से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक और आभासी दुनिया तक बहुत सारी फ्रांज काफ़्का, कामू, बोर्खेस और मुराकामी वगैरह वगैरह जैसी आकृतियाँ क़द से बहुत बड़ा ओवरकोट, पैर की नाप से बहुत बड़े जूते और छाते की साइज़ का हैट पहने हुए मटरगश्ती कर रही हैं, दरअसल ये तिलचट्टे हैं जिनका मेटामार्फोसिस, यानी कायान्तरण हो गया है I आपको यह जादू लग रहा है? नहीं, यह यथार्थ है!