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मूल निवासी दिवस…….9 अगस्त…….By-Tajinder Singh

Tajinder Singh
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मूल निवासी दिवस…….9 अगस्त
मैंने कभी किसी आदिवासी समाज में राम जन्मभूमि या कृष्ण जन्म भूमि को मुक्त कराने को लेकर ऐसा उन्माद नही देखा जैसा समाज के दूसरे लोगों में देखा गया। क्या वे हिन्दू नही हैं? वैसे आदिवासियों की गिनती हिंदुओं में ही की जाती है। लेकिन उनका अपना धर्म है सरना धर्म। सरना धर्म को मान्यता देने के उनके आंदोलन पर सरकार ध्यान नही दे रही है। ऐसे ही देश मे बहुत सी जनजातियां है जिनको हिंदुओं में ही गिना जाता है। जबकि उनके विश्वास मान्यताएं हिदुओं से बहुत अलग हैं।

आदिवासी कभी मंदिर के लिए नही लड़ता। वो लड़ता है अपने जंगल, नदी और पहाड़ों को बचाने के लिए। क्योंकि यही उसके देवता हैं। इन्ही जंगलों के किसी वृक्ष के नीचे खुले में उनका देवता बसता है। उसके देवता को रहने के लिए हजारों करोड़ से बने कंक्रीट के किसी भव्य धर्म स्थल की आवश्यकता नही। प्रकृति से जुड़ा उनका देवता बहुत सीधा और सच्चा जान पड़ता है।

बोकारो जिले के बेरमो अनुमंडल में लुगू बुरु पहाड़ है(आदिवासियों में बुरु का मतलब पहाड़ होता है)। इस पहाड़ पर लुगुबुरु घण्टा बाड़ी संथालों का तीर्थ स्थल, उनका शक्ति पीठ है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन विश्व भर में फैले संथाल यहां आते हैं। 7 पहाड़ की चोटियों को पार कर लुगुबुरु पहाड़ पर लुगू बाबा की 12 दिन तक आराधना कर अपने देवता मरांग बुरु से शक्तियां प्राप्त करते हैं। लुगुबुरु पहाड़ झारखंड का दूसरा सबसे ऊंचा पहाड़ है।

पारसनाथ पहाड़ स्थित जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ सम्मेद शिखर भी आदिवासियों के लिए बहुत महत्व रखता है। दरअसल पारसनाथ पहाड़ उनके देवता मरांगबुरु हैं। जिनकी ये पूजा करते हैं। जैनियों द्वारा उनके धर्म स्थल के 50 किलोमीटर के दायरे में मांस मदिरा बंद करने के आंदोलन से आदिवासियों को दिक्कत है। क्योंकि पूजा में बलि और मदिरा का सेवन उनके यहां सामान्य है। आदिवासियों का कहना है कि जैनी यहां आए लेकिन हम तो यही से हैं।
उड़ीसा के नियामगिरी में स्थित वेदांता कम्पनी की बॉक्साइट की खानों के विरोध में आदिवासियों को लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। क्योंकि जंगल के जिस क्षेत्र में खानों का पट्टा दिया गया था। उसे आदिवासी पवित्र मानते थे।

काश सबके इष्ट इसी तरह जंगलों में बसते तो शायद हम प्रकृति का बेहतर ख्याल रखते। बनिस्पत कंक्रीट के भव्य धर्म स्थल बनाने के हम जंगलों को हरा भरा करने में अपनी ऊर्जा लगाते। शायद सनातन भी पहले कुछ ऐसा ही था। कुछ कुछ आदिवासियों की प्रकृति पूजा से मिलता जुलता। लेकिन ये परिवर्तन कब, किसने और क्यों शुरू किया। ये मेरे लिए एक जिज्ञासा का विषय है।

कुछ लोगों का मानना है कि आदिवासी ही इस देश के मूल निवासी हैं। बाकी आर्य सब बाहर से आये हैं। बहरहाल ये एक लंबी बहस है लेकिन जो सत्य सामने दिखता है वो ये है कि विश्व मे हर जगह पर मूल निवासियों का शोषण ही ही हुआ है। जैसा कभी रेड इंडियंस के साथ अमेरिका में हुआ वैसा इनके साथ पूरे विश्व मे हो रहा है। इनके जल जंगल जमीन से इन्हें ही बेदखल कर तरक्की की सीढ़ियां चढ़ी जा रही हैं।

वन अधिकार नियम 2006 के अंतर्गत किसी भी परियोजना से पहले ग्राम सभा की अनुमति आवश्यक थी। ये आदिवासियों के हाथ मे वीटो पावर के समान था। इसी नियम के तहत ओडिसा के नियामगिरी से वेदांता कम्पनी को वापस जाना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने इसका समर्थन करते हुए फैसला आदिवासियों के पक्ष में सुनाया। लेकिन वर्तमान सरकार के आने के बाद से इस नियम को लगातार कमजोर करने का प्रयास किया गया। अंततः वन संरक्षण अधिनियम 2022 के तहत आदिवासियों का ये अधिकार भी समाप्त कर दिया गया।

पहले किसी परियोजना से पहले केंद्र की ये जिम्मेवारी होती थी कि वो मूल निवासियों के दावों को अधिनियम 2006 के आलोक में जांचे, उनकी सहमति ले। लेकिन नए अधिनियम के तहत अब ये जिम्मेवारी राज्य के कंधों पर डाल दी गयी है। अब केंद्र किसी परियोजना को पास कर उसके लिए निजी उद्योगपति से पैसे भी ले सकता है। इससे पहले की राज्य सरकार आदिवासियों के अधिकार को जांचें और सहमति दे। अब नए अधिनियम के तहत सहमति देना राज्य सरकार के लिए करीब करीब बाध्यकारी हो गया है।

आज आदिवासी दिवस है। मूल निवासियों का दिन। झारखंड में उन्ही के बीच बरसों से रह रहा हूँ। इतने भोले और सरल लोगों का किस तरह शोषण होता है इसे रोज देखता हूँ। सोचता हूँ इनको आदिवासी दिवस की बधाइयां किस मुंह से दूं।

“आदिवासी सुरक्षित तो जंगल सुरक्षित
जंगल सुरक्षित तो पर्यावरण सुरक्षित
पर्यावरण सुरक्षित तो जग सुरक्षित”