विशेष

मनुष्य की कौन सी आवश्यकता झूठी है और कौन सी सच्ची

समस्त इंसानों के कुछ अधिकार हैं जिनकी रक्षा और उनसे लाभ उठाना सबकी ज़िम्मेदारी है।

इसी प्रकार इस बात की ओर संकेत किया गया कि अधिकार स्थाई व परिवर्तित न होने वाली चीज़ है। इस आधार पर अधिकार के स्रोत को भी स्थाई होना चाहिये। समस्त आसमानी धर्म महान ईश्वर को इंसानों के अधिकारों का स्रोत मानते हैं। महान ईश्वर ने सत्य धर्म और अपने आदेशों को अपने दूतों व पैग़म्बरों के माध्यम से लोगों के मध्य फैलाया है। अतः समस्त ईश्वरीय आदेश सत्य और परिवर्तित न होने वाले हैं।

जो कुछ सत्य व वास्तविक धर्म बयान करता है वे जीवन के व्यापक नियम होते हैं और इसमें समय व स्थान को दृष्टि में नहीं रखा जाता है। इन व्यापक नियमों का निर्धारण कदापि इंसान द्वारा नहीं होता है। क्योंकि इसका आधार ब्रह्मांड के साथ इंसान का विशेष संबंध है। इंसान का ब्रह्मांड से संबंध है और उसका मूल आधार समय और स्थान के भिन्न होने से परिवर्तित नहीं होता है। मानवाधिकार का आधार भी यही स्थाई संबंध है और न वे चीज़ें जिनका निर्धारण स्वयं इंसान करता है और वे चीज़ें विभिन्न समाजों के मध्य पूरी तरह अलग हैं। इस आधार पर जिस चीज़ को महान ईश्वर की ओर से मानवाधिकार के रूप में दृष्टि में रखा गया है उसे इंसान द्वारा नहीं बनाया गया है कि समय या स्थान बदलने से बदल जायेगा।

विश्व के समस्त इंसानों के लिए मानवाधिकारों का समान संदेश होना चाहिये। स्पष्ट है कि विभिन्न चीज़ें इस प्रकार के क़ानून का स्रोत नहीं हो सकतीं। इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार मानवाधिकार के स्रोत को समस्त इंसानों के मध्य संयुक्त होना चाहिये। क्योंकि अधिकार स्थाई चीज़ है और स्पष्ट है कि अधिकार के स्रोत को भी स्थाई होना चाहिये। मानवाधिकारों का एक स्रोत उस समय हो सकता है जब विश्व के समस्त लोग उसे स्वीकार करें और उसमें रंग, जाति, लिंग, शिष्टाचार और परम्परा आदि पर ध्यान न दिया जाये। इसके अलावा अगर मानवाधिकारों का निर्धारण दूसरे स्रोतों पर किया जाये तो समस्त इंसानों की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति की कोई गैरेन्टी नहीं है और वह केवल उसी गुट की ज़रूरतों को पूरा करेगा जिसका विश्वास उसके स्रोतों पर होगा। प्रायः हर देश के क़ानून को वहां के संविधान के अनुसार बनाया जाता है। मानवाधिकार के क़ानूनों को संकलित करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संविधान की आवश्यकता है। इस संविधान में व्यापक क़ानून बनाने का स्वरुप निर्धारित किया जायेगा। प्रश्न यह उठता है कि हर समय और समस्त इंसानों के लिए किस चीज़ को संयुक्त स्रोत होना चाहिये? अगर आप को याद हो तो एक कार्यक्रम में पश्चिमी दर्शनशास्त्रियों के दृष्टिगत मानवाधिकार के स्रोत के संदर्भ में चर्चा की गयी और संकेत किया गया कि इनमें से कुछ दर्शनशास्त्रियों और विद्वानों ने, इंसान की प्रकृति, कुछ ने उसकी बुद्धि, कुछ ने उसके इरादे को जबकि कुछ ने प्रचलित शिष्टाचार व परम्परा को मानवाधिकार के क़ानून के स्रोत बताये हैं। अब हम उन आपत्तियों की समीक्षा करेंगे जो इन दृष्टिकोणों पर की जाती हैं।

कुछ पश्चिमी विचारकों का मानना है कि प्रचलित परम्परा मानवाधिकार को निर्धारित करने का आधार हो सकती है। इस दृष्टिकोण के संदर्भ में कहना चाहिये कि दुनिया के हर क्षेत्र के लोगों की कुछ विशेष संस्कृति व परम्परा होती है और जो क्षेत्रीय और भौगोलिक विशेषताएं होती हैं वे न केवल इन परम्पराओं पर अत्यधिक प्रभाव डालती हैं बल्कि वे लोगों के विचारों और आस्थाओं पर भी प्रभाव डालती हैं। उदाहरण स्वरूप जो लोग ठंडे क्षेत्रों में रहते हैं वे गर्म क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के क़ानूनों के बारे में सोचते भी नहीं हैं। इस आधार पर हर समय या हर भौगोलिक क्षेत्र की अपनी कुछ परमंपरायें होती हैं जो दूसरे क्षेत्रों से भिन्न होती हैं। इसी आधार पर परम्परायें समस्त इंसानों के जीवन के लिए व्यापक क़ानून का अच्छा स्रोत नहीं हो सकतीं। अलबत्ता इस बात को स्वीकार करना चाहिये कि क़ानून लागू करने में हर राष्ट्र की अपनी विशेष परम्पराओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है परंतु संयुक्त कानून संकलित करने और उनकी व्याख्या करने में वे प्रभावी नहीं हैं। मानवाधिकार संकलित करने के लिए संयुक्त स्रोत की आवश्यकता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या इंसान इस संयुक्त स्रोत की पहचान करके उसके आधार पर मानवाधिकार को संकलित कर सकता है? कोई भी इंसान किसी विषय को पूरी तरह पहचाने बिना उससे संबंधित बहस नहीं कर सकता।

मनुष्य की पहचान किये बिना मानवाधिकारों के बारे में बात नहीं की जा सकती। स्वयं और दूसरों की पहचान के बिना मानवाधिकारों का निर्धारण असंभव है। अब तक कोई भी मनोवैज्ञानिक यह दावा नहीं कर सका है कि उसने मनुष्य की समस्त आयामों से पहचान कर ली है। तो फिर ऐसे में किस प्रकार कोई यह दावा कर सकता है कि वह पूरी मानवता के लिए मानवाधिकारों का निर्धारण कर सकता है। उल्लेखनीय बिंदु यह है कि लोगों के बीच स्वभाविक दृष्टि से समानता नहीं पाई जाती है। जो चीज़ें लोगों के बीच समन्वय का कारण बनती हैं उनमें से एक भौतिक संसाधन हैं। भौतिक संसाधन, जिस मात्रा में इंसान के बीच समानता का कारण बनते हैं उसी मात्रा में उनके बीच मतभेद का भी कारण बनते हैं। इंसान के एकता तक पहुंचने का एकमात्र कारण भौतिक बंधनों से मुक्ति है।

इन्सान जितने अधिक भौतिकवादी होते जाते हैं उनके मध्य उसी सीमा तक मतभेद भी बढ़ते जाते हैं और मनुष्य जिस सीमा तक आध्यात्म से निकट होता जाता है उतना ही वह भौतिकता से दूर और एकता के निकट हो जाता है। इंसान ईश्वरीय संदेशों के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ से भौतिकता से दूर नहीं हो सकता। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य के भीतर इस बात की क्षमता नहीं पाई जाती है कि वह समस्त लोगों के लिए संयुक्त क़ानून बना सके।

दूसर बिंदु यह है कि ब्रह्मांड की पहचान किये बिना मानवाधिकारों के स्रोतों की पहचान संभव नहीं है। मानवता ने अब तक एक लंबा समय व्यतीत किया है और उसका भविष्य भी अस्पष्ट है। जो भी यह चाहता है कि मानवता के लिए कोई क़ानून बनाए उसे मनुष्य के अतीत और उसके भविष्य की पूरी जानकारी होनी चाहिए। उसे यह भी जानना चाहिए कि ब्रह्माण्ड और मनुष्य के बीच किस प्रकार का संबन्ध है। मनुष्य ऐसा प्राणी नहीं है कि वह संसार की अन्य वस्तुओं से संपर्क के बिना जीवन व्यतीत कर सके। मानवाधिकारों का निर्धारण करने के लिए इस प्रकार की पहचान आवश्यक है।

एक अन्य विषय जो मानवाधिकारों के स्रोतों की पहचान और उनके निर्धारण में मनुष्य की अक्षमता को सिद्ध करता है वह यह है कि मनुष्य सामान्यतः अपनी और समाज की आवश्यकताओं पर बल देता है जबकि वह इस बात से अवगत नहीं होता कि इनमें से कौन सी आवश्यकता सच्ची है और कौन सी झूठी। उदाहरण स्वरूप वह व्यक्ति जिसका अभी आपरेशन हुआ हो उसे बहुत अधिक प्यास का आभास होता है। हालांकि उसके चिकित्सक को यह बात पता होती है कि उसकी यह आवश्यकता झूठी आवश्यकता है। मानवाधिकारों से संबन्धित बहुत से मामले भी इसी प्रकार के होते हैं। ऐसे में वह व्यक्ति जो मनुष्य के समस्त आयामों को अच्छी तरह से पहचानता है उसे विशेषज्ञ स्तर पर यह राये देनी चाहिए कि मनुष्य की कौन सी आवश्यकता झूठी है और कौन सी सच्ची।

जब इंसान मानवाधिकारों के लिए कोई मानदंड निर्धारित करना चाहता है तो स्पष्ट है कि वह स्वयं को ग़लत से सही की पहचान का मानदंड समझता है। ऐसे में वह हर उस चीज़ का चयन करता है जो उसकी इच्छा व रुझान के अनुसार होती है और दूसरी चीज़ों को छोड़ देता है। ऐसा व्यक्ति ब्रह्मांण के दूसरे प्राणियों के हितों पर ध्यान दिये बिना अपने दृष्टिगत मापदंड को पेश करता है।

इस समय जो परंपरा प्रचलित है वह यह है कि जिस चीज़ को भी अधिकांश लोग स्वीकार करते हैं उसे क़ानून बना दिया जाता है। ईश्वरीय धर्मों के अनुसार यह रास्ता न्यायपूर्ण और बुद्धिमानी का नहीं है क्योंकि यह समाज के बहुत से लोगों के हितों की पूर्ति करने वाला नहीं होगा। क्योंकि समाज में एसे बहुत से लोग मौजूद होंगे जो इस क़ानून के विरोधी होंगे जबकि कुछ पता न होने और दूसरे कारणों से उस समय मौजूद नहीं होंगे जब यह निर्णय लिया जा रहा होगा।

दूसरी बात यह है कि आगामी पीढ़ियां उस क़ानून को कैसे स्वीकार करें जिसे बनाते समय में मौजूद ही नहीं थीं।

इस प्रश्न के उत्तर में संभव यह है कि यह दावा किया जाए कि सामाजिक आवश्यकता के अनुसार ऐसा किया जाता है। क्योंकि हर मनुष्य की इच्छा को दृष्टि में रख पाना संभव ही नहीं है परंतु इसके उत्तर में कहना चाहिये कि प्रकार की समस्या, अनुचित चयन का परिणाम है और क़ानून बनाने में ग़ैर ईश्वरीय आधार है। इस आधार को परिवर्तित किये बिना समस्या का समाधान संभव नहीं है।

मानवाधिकारों के मापदंड को बुद्धि और बुद्धिमानों के विचार मिलकर भी नहीं बना सकते। यह बात जान लेनी चाहिए कि हर विषय में बुद्धिमानों के विचार निश्चित आधार नहीं हैं। वह विषय आइडियालोजी है जिसके बारे में विद्धानों की सोच अकेले काफ़ी नहीं है। मानवाधिकारों के स्रोतों का निर्धारण, आस्था और आइडियालोजी से संबन्धित मामला है। इस आधार पर मानवाधिकार के बारे में विद्वानों और विचारकों के दृष्टिकोणों को केवल इसलिए निश्चित प्रमाण नहीं मानना चाहिये कि वे बुद्धिमान एवं विद्वान हैं।

पवित्र क़रआन के सूरए बक़रा की आयत संख्या 130 में महान ईश्वर कहता है कि मूर्ख इंसान के अलावा कौन है जो इब्राहीम के धर्म से विमुख हो जाए? इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार बुद्धि वह है जिसके माध्यम से महान ईश्वर की उपासना की जाए। यही कारण है कि पवित्र क़ुरआन उन लोगों को मूर्ख कहता है जिन लोगों ने हज़रत इब्राहीम के धर्म से स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार वह बुद्धि अज्ञानता है जो ईश्वरीय आदेशों को स्वीकार न करे।

दूसरी ओर इस बिंदु की ओर ध्यान देना चाहिए कि वे बहुत से लोग आत्ममुग्धता से सुरक्षित नहीं रहे जिन्होंने मानवाधिकारों के मापदंड बनाने के प्रयास किये। यदि मनुष्य आत्ममुग्ध हो जाये तो निश्चित रूप से वह सत्य के मुक़ाबले में खड़ा हो जाएगा। एसा मनुष्य असत्य को सत्य दिखाने का प्रयास करेगा। यह वही काम है अतीत में यहूदी धर्मगुरू और विद्वान किया करते थे पर यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मनुष्य स्वभाविक रूप से आत्ममुग्घता का शिकार होता है किंतु प्राकृतिक रूप से उसके भीतर महान ईश्वर की ओर झुकाव पाया जाता है। मनुष्य के अस्तित्व में सदैव ही आत्ममुग्घता और ईश्वरीय रुझान के बीच युद्ध चलता रहता है। अधिकांश लोग अपने स्वभाव को पसंद करते हैं। यही कारण है कि उनके भीतर पाई जाने वाली आत्ममुग्धता, ईश्वरी झुकाव पर वर्चस्व प्राप्त कर लेती है।

हालांकि पवित्र क़ुरआन हमें यह शिक्षा देता है कि सृष्टि, अपने ईश्वरीय मार्ग पर बढ़ती रहती है। मनुष्य प्रयास करने वाला प्राणी है जिसे इस लिए पैदा किया गया है कि वह इस ब्रह्मांड रूपी सागर में गोता लगाकर रत्न ढूंढे। इस मार्ग में यदि मनुष्य गुमराह होता है तो वह डूब और दूसरों के लिए पाठ बन जाएगा।

पिछली बातों से इस परिणाम पर पहुंचा जा सकता है कि यदि मनुष्य क़ानून बनाता है तो उसे अत्यधिक कमियों और त्रुटियों का सामना करना पड़ता है। यही बातें इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मनुष्य, मानवाधिकारों के मानदंड का निर्धारण करने में अक्षम है। इसके मुक़ाबले में ईश्वर की ओर से निर्धारित किये गए मानदंडों में कोई भी त्रुटि नहीं होती है।