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मंदिरों की व्याख्या क्या है?

Abhinandan Roshan
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मंदिरों की व्याख्या क्या है -: मंदिर केवल मूर्तिपूजा के केंद्र होते और तोड़े जाते तो वजह समझ आता, पर हमारे मंदिर तो हमारे लिए नृत्य कला को, ललित कला को, चित्र कला को, मूर्ति कला को, वास्तु कला को, रोजगार को, प्रकृति को, संस्कार और संस्कृति को संरक्षण देने के केंद्र भी थे। मुल्तान का भव्य सूर्य मंदिर, कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर, महोबा का सूर्य मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर, सूदूर पूर्वोत्तर के भुवन पहाड़ी पर बसे शिव मंदिर, 52 शक्तिपीठ, चार धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग, तमिलनाडु और दक्षिण के हम्पी आदि क्षेत्रों के भव्य मन्दिर से लेकर जावा, सुमात्रा, अंकोरवाट और बोरोबदूर के भव्य मंदिर ये सब केवल मूर्तिपूजा के केंद्र नहीं थे बल्कि विश्व के सर्वोत्कृष्ट सभ्यता के हस्ताक्षर थे। इसीलिए जब TheKashmirFiles फिल्म का एक पात्र कृष्णा पंडित मार्तंड सूर्य मंदिर के टूटने की व्यथा कहता है तो वो केवल मंदिर टूटने की व्यथा नहीं थी बल्कि वो व्यथा थी स्थापत्य के एक बेजोड़ नमूने के टूटने की जिसके पीछे उस समय के अभियंताओं का श्रेष्ठ मस्तिष्क और कारीगरों की श्रेष्ठ कला सम्मिलित थी।

वो व्यथा थी उस मन्दिर में प्रांगण में उकेरी कर मूर्ति और चित्रों को रौंदे जाने की जो किसी मूर्तिकार और चित्रकार के जीवन भर का समर्पण था। वो व्यथा थी ज्ञान के उस केंद्र के ध्वंस का जिसे भारत भर के न जाने कितने ही ब्राह्मणों ने अपने तप और अनुष्ठान से सींचा था।

वो व्यथा थी उस अर्थ तंत्र के तोड़े जाने की जो उस मन्दिर के कारण वहां बना हुआ था। वो व्यथा थी उस स्थल के ध्वंस की जो भारत की सांस्कृतिक एकबद्धत्ता का प्रमाण था। वो व्यथा थी कृतज्ञता ज्ञापन के उस प्रतीक के ध्वंस का जिसे हमारे पूर्वजों ने सृष्टि के संचालक और प्रकृति के रक्षक सूर्य नारायण की आराधना के लिए बनाया हुआ था। वी एस नायपॉल ने भारत को एक “आहत सभ्यता” नाम दिया था तो उसकी वजह यही थी कि बर्बर आक्रांताओं के हमलों ने भारत की सभ्यता को ही लहूलुहान कर दिया था।
जय सनातन संस्कृति 🚩🚩


Shambhunath Shukla
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कोई 40 साल पहले जब मैं दिल्ली आया तब एक सहयोगी ने मेहरचंद खन्ना मार्केट के समीप लोदी कॉलोनी के एक विशाल फ़्लैट में रहने की व्यवस्था की। एक और साथी भी उसी में रहते थे। ग्राउंड फ्लोर का फ़्लैट, जिसमें तीन विशाल कमरे थे। बाहर सहन। तीन छड़ों के लिए वह पर्याप्त था। हम लोग 26 या 21 नम्बर की बस से पटियाला हाउस उतर जाते। फिर फुटपाथ पर टहलते हुए एक्सप्रेस बिल्डिंग आते। रास्ते में सागर अपार्टमेंट, स्कूल ऑफ फाइन आर्ट, बेल्जियम हाउस को देखते हुए। हमें सागर अपार्टमेंट के पास एक बँगला बहुत लुभाता और वह था, पाकिस्तान के राजदूत का निवास। मालूम हो कि बीच के कुछ वर्षों के लिए पाकिस्तान कॉमनवेल्थ से अलग हो गया था इसलिए हाई कमीशन को एम्बेसी में बदल दिया गया। इस बँगले में चौकसी तो थी पर कोई बहुत अधिक नहीं। अगस्त के महीने में उस बँगले में लगे जामुन ख़ूब झड़ते, वे सब फुटपाथ से हम बटोर लाते और दफ़्तर में धोये जाते फिर सब लोग खाते।

बातों-बातों में इंडियन एक्सप्रेस के साथी ने बताया कि वह बँगला पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली का था। वे पहले करनाल के नवाब थे और वहाँ से जमना के इस तरफ़ मुजफ्फर नगर की रियासत उनके पास थी। यह भी पता चला कि लियाक़त अली ने यह बँगला अपनी पत्नी शीला पंत के लिए ख़रीदा था। किसी ने यह भी बताया कि शीला पंत शिवानी की बहन थीं यानी मृणाल पांडे की मौसी। ऐसी अनेक बातें बताई गईं। मेरी इच्छा उस बँगले को अंदर से देखने की हुई किंतु किसी राजदूत के बँगले में हम यूँ ही तो नहीं घुस सकते। एक वर्ष तक यही रूट रहा फिर लोदी कॉलोनी का सबलेट वाला फ़्लैट छूट गया और साथी भी इधर-उधर हो गये।

लेकिन जब भी उधर जाता तो उस बँगले के समक्ष ठिठकता और शीला पंत के बारे में सोचता तो लगता कि वह अतीव सुंदरी स्त्री रही होगी जिस पर नवाब साहब मोहित हो गये। और वह पहाड़ी बाला निश्चय ही काफ़ी साहसी रही होगी, जिसने ब्राह्मण धर्म त्याग कर इस्लाम अपना लिया। पर मुझे कोई सोर्स नहीं मिला जो बता सके कि कौन थी वह सुंदरी। लेकिन जनवरी में बुक फ़ेयर में इतिहासकार मित्र श्री राजगोपाल वर्मा मिले और उन्होंने अपनी नई प्रकाशित पुस्तक “पहली औरत” भेंट की। इसे पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही गया। यह पहली औरत और कोई नहीं शीला पंत थीं। जिनकी जीवनी को वर्मा जी ने ख़ूब सहेजा है। पुस्तक में पूरे ऐतिहासिक तथ्य हैं। शीला पंत के पुरखे थे तो ब्राह्मण धर्म से ही लेकिन उनके दादा पंडित तारा दत्त पंत ब्राह्मण धर्म छोड़ कर ख्रिस्तान धर्म में दीक्षित हुए। उनके बेटे डैनियल देवीदत्त पंत की संतान थीं शीला आइरीन पंत। शीला आइरीन पंत शिवानी की सगी बहन तो नहीं थी किंतु चार पीढ़ी पहले का पुरखा एक ही था। बाद में एक शाखा ब्राह्मण हुई और एक ख्रिस्तान।

शीला अंग्रेज़ी में निष्णात और अन्य भारतीय ईसाइयों की तरह परिधान में अंग्रेज़ीदाँ पर संस्कारों से वही कुमाऊनी ब्राह्मण। इसके बावजूद लखनऊ विवि के एक समारोह में नवाब लियाक़त अली ने उसे आकृष्ट किया दोनों एक-दूसरे के आकर्षण में ऐसे बिंधे कि कालान्तर में दोनों परस्पर परिणय सूत्र में बँध गये। देश बँटा तो लियाक़त अली अपनी सारी जायदाद छोड़ कर पाकिस्तान चले गये और प्रधानमंत्री बने। उनकी बेगम शीला आइरीन पंत उर्फ़ राना बेगम भी पाकिस्तान चली गईं। लेकिन दुर्भाग्य कि कुछ वर्षों बाद प्रधानमंत्री की हत्या हो गई। इसके बाद अपने बेटों के साथ उन्होंने बहुत कष्ट उठाये। पाकिस्तान की सरकार ने उनके पति के हत्यारे को सजा नहीं दी। उलटे उस परिवार को पेंशन दी। राना बेगम इस अन्याय को झेलते हुए भी पाकिस्तान में महिला सशक्तीकरण में जुटी रहीं। उन्होंने अपनी दृढ़ता से पाकिस्तान में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाया। वे लोकतंत्रवादी थीं इसीलिए वे सैन्य शासकों के ख़िलाफ़ थीं। बाद में वे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की पार्टी में शामिल हुईं। उन्होंने जनरल जिया के मार्शल लॉ का विरोध किया। इस तरह वे तानाशाही से लड़ते हुए 1990 में स्वर्ग सिधारीं। इस महिला की जीवनी लिखने में वर्मा जी को तथ्य तथा लय में तारतम्य बिठाने के लिए कल्पना लोक का जो सहारा लेना पड़ा उसकी वज़ह से पुस्तक में लावण्य आ गया है, जो अद्भुत है।

सेतु प्रकाशन नोएडा से छपी इस पुस्तक का मूल्य है 349 रुपए। लेकिन 270 पेज की इस पुस्तक को लिखने में जितना श्रम किया गया उस हिसाब से पुस्तक अनमोल है।