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भारत ग्रेट निकोबार द्वीप को विलुप्त होने की वजह भी बन सकता है : रिपोर्ट

भारत ग्रेट निकोबार द्वीप को हांगकांग की तरह विकसित करना चाहता है. विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इससे पर्यावरण को भारी नुकसान हो सकता है और द्वीप के मूल निवासियों के विलुप्त होने की वजह भी बन सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ग्रेट निकोबार द्वीप में नौ अरब डॉलर के निवेश की योजना बना रही है. जिससे इस द्वीप को विशाल सैन्य और व्यापार केंद्र के रूप में बदला जा सके. लेकिन इन योजनाओं ने पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और नागरिक संस्थाओं की चिंता बढ़ा दी है. इनका मानना है कि इस महापरियोजना से द्वीप की अनूठी पारिस्थितिकी बर्बाद हो सकती है.

पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं के अलावा, कई जानकारों को इससे द्वीप के मूल निवासियों के प्रभावित होने का डर है. जैसे कि हजारों सालों से ग्रेट निकोबार द्वीप पर रहने वाला शोम्पेन नाम का शिकारी समुदाय, जिसका बाहरी दुनिया से बेहद कम संपर्क रहा है.

चीनी आक्रामकता का जवाब
भारतीय अधिकारियों का कहना है कि हिंद महासागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता के चलते ग्रेट निकोबार को विकसित करने की योजनाओं को बल मिला है. इस द्वीप की रणनीतिक स्थिति इसे सुरक्षा और व्यापार के लिए बेहद जरूरी बना देती है.

यह द्वीप भारतभूमि से करीब 1,800 किलोमीटर दूर पूर्व में स्थित है. यह इंडोनेशिया के सुमात्रा के पास है और म्यांमार, थाईलैंड व मलेशिया से कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर है. हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस द्वीप में फिलहाल आठ हजार लोग रहते हैं.

भारत सरकार ने यहां कई बड़ी परियोजनाओं के निर्माण की परिकल्पना की है. इनमें एक अंतरराष्ट्रीय कंटेनर टर्मिनल, एक हवाई अड्डा- जिसे नागरिक और सैन्य दोनों उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा सके, एक गैस, डीजल व सौर ऊर्जा पर आधारित पावर प्लांट और एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप शामिल है. इन विकास कार्यों से द्वीप पर रहने वालों की संख्या भी लाखों में पहुंच जाएगी.

अधिकारियों का कहना है, “यह बंदरगाह द्वीप की गैलाथिया खाड़ी पर प्रभुत्व जमा लेगा. साथ ही दुनिया के सबसे व्यस्त शिपिंग रास्तों में से एक – मलक्का जलडमरूमध्य के करीब होने के चलते खूब प्रगति करेगा.”

सरकार की योजनाएं तेज गति से आगे बढ़ रही हैं. सरकार पिछले तीन सालों से विभिन्न अनुमोदनों, मंजूरियों और छूटों को हासिल कर रही हैं. कुछ लोग इस महापरियोजना की तारीफ करते हुए कहते हैं कि भारत ग्रेट निकोबार पर अपना “हांगकांग” बना रहा है.

भारत के पत्तन, पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने इस बारे में मीडिया से बात की. उन्होंने कहा, “द्वीप के विकास को आगे बढ़ाने के बारे में सरकार को कोई संदेह नहीं था. यह सच है कि विभिन्न हितधारकों ने पर्यावरण संबंधी चिंताएं उठाई हैं. लेकिन उनपर स्पष्ट रूप से बात की जा चुकी है.”

लाखों पेड़ों के कटने का खतरा
आलोचकों का कहना है कि इन योजनाओं के चलते ग्रेट निकोबार के प्राचीन वर्षा वनों को स्थायी नुकसान झेलना पड़ेगा. भारत सरकार के मुताबिक, इस द्वीप पर मौजूद उष्णकटिबंधीय वर्षा वन दुनिया के सबसे संरक्षित वर्षा वनों में से एक हैं. लेकिन इस द्वीप को रक्षा और व्यापार केंद्र में बदलने के लिए करीब साढ़े आठ लाख पेड़ काटने होंगे.

पर्यावरणविदों का कहना है कि गैलाथिया खाड़ी में बड़ा बंदरगाह बनने से लेदरबैक समुद्री कछुओं की अंडे देने वाली जगहें नष्ट हो जाएंगी. इनके अलावा, डॉल्फिन और दूसरी प्रजातियों को भी नुकसान होगा. खारे पानी के मगरमच्छों, केकड़ा खाने वाले बंदरों और प्रवासी पक्षियों को भी द्वीप के विकास की कीमत चुकानी होगी.

भारत में पर्यावरण से जुड़े मामलों पर नजर रखने वाली संस्था ईआईए ने चेतावनी दी है कि बंदरगाह के निर्माण के दौरान खाड़ी के तट पर मौजूद मूंगा चट्टानें नष्ट हो सकती हैं. ईआईए ने एक मसौदा रिपोर्ट में कहा है कि टाउनशिप, एयरपोर्ट और थर्मल पावर प्लांट घने जंगल वाले इलाकों में बनाए जाने हैं, जिससे जैव विविधता पर काफी प्रभाव पड़ेगा.

एक्टिविस्ट चेतावनी दे रहे हैं कि बड़े पैमाने पर जनसांख्यिकी बदलाव और घटते प्राकृतिक संसाधनों के चलते स्वदेशी समुदाय खतरे में पड़ जाएंगे और संभव है कि वे खत्म भी हो जाएं.

विलुप्त हो जाएगा शोम्पेन समुदाय?
स्वदेशी और जनजातीय लोगों के अधिकारों के लिए अभियान चलाने वाले लंदन स्थित मानवाधिकार संगठन ‘सर्वाइवल इंटरनेशनल’ का कहना है कि शोम्पेन समुदाय पर पूरी तरह से विलुप्त होने का खतरा है. शोम्पेन एक स्थानीय जनजाति है जिसमें करीब 300 लोग हैं.

सर्वाइवल इंटरनेशनल की निदेशक कैरोलीन पियर्स ने इस बारे में डीडब्ल्यू से बातचीत की. उन्होंने कहा, “अगर सरकार इस द्वीप को भारत का हांगकांग बनाने में सफल हो गई तो इस बात की कल्पना करना असंभव है कि शोम्पेन समुदाय इस विनाशकारी परिवर्तन से बच पाएगा. भविष्य के निवासियों को यह पता होना चाहिए कि इन परियोजनाओं को यहां प्राचीन काल से रह रहे शोम्पेन लोगों की कब्र पर बनाया गया था.”

सर्वाइवल इंटरनेशनल का कहना है कि दूसरे शिकारियों की तरह शोम्पेन समुदाय को भी जंगल के बारे में गहरी जानकारी है और वे द्वीप पर मौजूद वनस्पतियों का कई तरीकों से इस्तेमाल करते हैं.

भूकंप के खतरे वाले इलाके में जाएंगे लोग
इस महीने की शुरुआत में दुनियाभर के दर्जनों स्कॉलरों ने भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक खुला पत्र लिखा था. इसमें उन्होंने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए राष्ट्रपति से निर्माण कार्यों को रुकवाने का आग्रह किया था.

पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में नरसंहार विषय के विशेषज्ञ भी शामिल थे. उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, “करीब साढ़े छह लाख बाहरी लोगों के द्वीप पर बसने की संभावना है. यह भी कह सकते हैं कि जनसंख्या में आठ हजार फीसदी का इजाफा होगा. इसका मतलब है कि शोम्पेन लोग खत्म हो जाएंगे.”

ब्रिटेन के साउथहैंपटन विश्वविद्यालय में फैलो मार्क लेवेने कहते हैं कि शोम्पेन नए ढांचे के भीतर अपनी शर्तों पर जीवित नहीं रह पाएंगे. वे आगे जोड़ते हैं, “शोम्पेन सिर्फ शारीरिक रूप से परेशान नहीं होंगे, बल्कि मानसिक तौर पर भी बर्बाद हो जाएंगे. ये उनकी जान ले लेगा.”

इससे सिर्फ स्थानीय जनजातियों पर ही संकट नहीं आएगा. यहां बड़ी संख्या में लोगों के आने का मतलब होगा कि लाखों लोग बेहद खतरनाक भूकंपीय क्षेत्र में होंगे. 2004 में ग्रेट निकोबार के इलाके में रिक्टर स्केल पर 9.3 तीव्रता का भूकंप आया था. इसके चलते इतिहास की सबसे घातक सुनामी शुरू हुई थी.

एक अन्य भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ में स्थानीय समूहों के साथ काम करने वाले भूपेश तिवारी कहते हैं, “यह परियोजना पूरी तरह से मनमानी है. करोड़ों डॉलर की इस परियोजना की भारी कीमत चुकानी होगी. इससे पर्यावरण और जनजातीय लोगों के अधिकार खत्म हो जाएंगे.”

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मुरली कृष्णन