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भारत और दुनिया के देशों में ऐसे जोड़ों की संख्या बढ़ रही है जो अलग अलग धर्मों से आते हैं, ये लोग बच्चों के नाम कैसे तय करते हैं?

बीते सालों में भारत और दुनिया के बाकी देशों में भी ऐसे जोड़ों की संख्या बढ़ रही है जो अलग अलग धर्मों से आते हैं. ऐसे परिवारों के बच्चे की परवरिश में धर्म की क्या भूमिका होती है. ये लोग बच्चों के नाम कैसे तय करते हैं?

बच्चे की परवरिश के दौरान कपल किस तरह अपने धर्म, संस्कृति या किसी रिवाज को मानते हैं. वो कौन सी समस्या या दुविधाएं हैं जिनका सामना एक अंतर्धार्मिक जोड़ों को करना पड़ता है. इस विषय पर हमने कुछ ऐसे लोगों से बात की जिन्होंने दूसरे धर्म में आस्था रखने वाला जीवनसाथी चुना है.

अक्सर सबसे बड़ा सवाल होता है कि बच्चा किसका सरनेम लेगा. भारत समेत अधिकतर जगहों पर पितृसत्ता की वजह से बच्चा अपने पिता का ही सरनेम लेते हैं. मगर अब बदलाव आ रहा है और कई जगहों पर यह तस्वीर बदलती दिखाई दे रही है.

दिल्ली में रहने वाली 55 साल की आरती ईसाई और उनके 56 वर्षीय पति रजनीश सिंह एक हिंदू हैं. आरती पंजाब और रजनीश उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से हैं. शादी के दो साल बाद उनके बेटे कार्तिक का जन्म हुआ.

आरती ने बताया कि, शादी के बाद उन्होंने अपना सरनेम नहीं बदला और आज तक वही इस्तेमाल कर रही हैं. उनका बेटा अपने पिता का सरनेम इस्तेमाल कर रहा है. उन्होंने बताया कि उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि उन्होंने खुद भी अपने पिता का ही सरनेम रखा है.

कासरगोड की रहने वाली 33 साल की हरिथा जॉन और मिनिकॉय के रहने वाले शमीम कुन्नूमाथीगे ने भी अंतरधार्मिक विवाह किया है. हरिथा ईसाई है, जबकि शमीम मुस्लिम समुदाय से हैं. दोनों पेशे से पत्रकार हैं. इनकी चार साल की बेटी का नाम जारा है. हरिथा ने बताया कि उनकी बेटी के नाम में पिता का नाम जोड़ा गया है. इसके पीछे उन्होंने कारण बताया कि केरल में ईसाई लोग भी अपने नाम के पीछे पिता या फिर दादा का नाम लगाते हैं.

जर्मनी में फैमिली नेम को लेकर बाक़ायदा एक कानून है, जो इंटरफेथ या इंटरकल्चरल शादी करने वालों को इस मामले में निर्णय लेने का अधिकार देता है. जर्मन डॉक्टर हाईडेमारी पाण्डेय ने भारतीय डॉक्टर इंदुप्रकाश से शादी की. पाण्डेय ने भारतीय और जर्मन लोगों के बीच होने वाली इंटर-कल्चरल शादियों पर पीएचडी की है.

उन्होंने बताया कि जर्मनी में लम्बे समय तक बच्चे को फैमिली या पिता का नाम ही मिलता रहा था. इस विषय पर चर्चा छिड़ने और जागरुकता के बाद जर्मनी में एक कानून बनाया गया है. जिसके तहत एक जर्मन नागरिक का नाम जर्मन कानून से तय होता है. उसका अंतिम नाम पहले से ही विदेशी जन्म प्रमाण पत्र पर दिखाया गया हो तो भी जर्मन नागरिकता मिलने पर यह कानून लागू होता है. इसलिए, बच्चे को जर्मन पासपोर्ट जारी किए जाने से पहले नाम की घोषणा जरूरी हो सकती है.

जर्मन कानून के अनुसार, आप पति या पत्नी का जन्म के समय का या फिर वर्तमान नाम चुन सकते हैं. यदि उनका नाम संयुक्त परिवार का नाम नहीं बनता है, तो जर्मन कपल अपने लिए एक दो सरनेम का कॉम्बिनेशन भी चुन सकते हैं.

‘किसी भी तरह की विवाद की स्थिति नहीं’
पाण्डेय ने कहा कि इस तरह के कपल में तब मुश्किलें आती हैं, जब वे अधिक धार्मिक या रूढ़िवादी होते हैं. यह हर जोड़े पर निर्भर करता है कि क्या दोनों धार्मिक हैं, या दोनों में से कोई एक धार्मिक है या फिर शादी के दौरान धर्मांतरण किया गया था या नहीं. हालांकि, उनके मामले में ऐसा कुछ नहीं रहा. उन्हें कभी इस तरह की दुविधाओं का सामना नहीं करना पड़ा. कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट ईसाई के बीच हुई शादी में भी कई बार इस तरह के सवाल उठते हैं.

हरिथा ने बताया कि वह अपने परिवार के साथ नहीं रहती हैं. यही वजह है कि परवरिश को लेकर उनके ऊपर किसी भी प्रकार का पारिवारिक दबाव नहीं है. ये लोग धार्मिक मान्यताओं को ज्यादा महत्व नहीं देते हैं. इसे लेकर इनके बीच किसी भी तरह की विवाद की स्थिति नहीं बनी है. हालांकि, उन्होंने बताया कि उनके बहन ने एक हिन्दू से शादी की है, जो उन पर हिन्दू मान्यताओं से चलने के लिए काफी दबाव डालता है और बच्चे की परवरिश भी उसी ढंग से चाहता है.

आरती बताती हैं कि वो और उनके पति बच्चे के जन्म के बाद धार्मिक प्रक्रियाओं में कभी उतना नहीं शामिल हुए. हालांकि, अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला कराने के लिए उन्होंने इस पर विचार किया कि क्या वह अपने बेटे का धर्म ईसाई रखें, क्योंकि इससे कुछ स्कूलों में आसानी से दाखिला मिल जाता है.

एडमिशन के लिए उन्होंने धर्म के बारे में सोचा मगर इसके लिए उन्हें चर्च से मिले प्रमाण पत्र दिखाने पड़ते और उन्हें बेटे की बपतिस्मा करानी पड़ती. ईसाई धर्म में, बपतिस्मा एक धार्मिक कृत्य है, जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को चर्च की सदस्यता दी जाती है.

हिन्दू बताने के लिए किसी दस्तावेज की जरूरत नहीं होती, तो उन्होंने अपने बेटे का नाम कार्तिक सिंह रख दिया.

धर्म की कट्टरता पर विश्वास नहीं
पाण्डेय का मानना है कि ऐसे परिवेश में पला बच्चा ज्यादा सहिष्णु होता है. वह बचपन से ही अलग अलग धर्मों और मान्यताओं को लेकर ज्यादा जागरूक होता है. वह अलग अलग धर्मों की इज्जत करता है. कई सामाजिक सवालों के जवाब खुद उनके मां बाप होते हैं.

आरती ने बताया कि जब कार्तिक तीसरी क्लास में था, तो वह घर आकर पूछता है कि वह क्या है. ऐसे में, उन्होंने जवाब दिया कि वो जिस धर्म को मानना चाहता है, उसे माने. जिसके बाद कार्तिक ने कहा कि वो मुस्लिम बनना चाहता है क्योंकि उसका दोस्त मुस्लिम था. उन्होंने धर्म को मोटे तौर पर किसी भी तरह एक परेशानी नहीं बनने दिया. हालांकि, उन्होंने कहा कि काफी समय तक बच्चा उलझन में भी रहता है. खुलकर बात करने और समझाने से इसमें मदद मिलती है.

उन्होंने आगे बताया कि उनके घर में हिन्दू मान्यता के मुताबिक एक हवन होता, जिसमें उनके बेटे ने कभी भाग नहीं लिया और ना ही उन लोगों ने इसके लिए किसी तरह दबाव डाला. उनका परिवार धर्म की कट्टरता पर विश्वास नहीं करता और उनके बेटे की गर्लफ्रेंड मुस्लिम समुदाय से है.

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पूजा यादव