साहित्य

#भस्मीभूतस्य_देहस्य_पुनरागमनं_कुतः…मुझे आज तक समझ नहीं आया कि कौन किसमें प्राण डालता है???

मनस्वी अपर्णा
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#भस्मीभूतस्य_देहस्य_पुनरागमनं_कुतः_
हमारे आस पास रोज़ ऐसी कई घटनाएं घटती हैं जो हमारी किसी न किसी भावना को elicite करती है लेकिन सबको समान रूप से नहीं ….जो basic फ़र्क होता है वह होता है भावनात्मक तल का वह कितना सक्रिय है यह इस बात को तय करेगा कि आपकी प्रतिक्रिया कैसी आएगी….एक अरसा हुआ है मेरा ज्यादतर वक़्त मेरे साथ ही गुजरता है इस दौरान मैं कुल जमा तीन चार काम ही करती हूं, अवलोकन, मनन, विचार और लेखन…. मौक़ा मिला तो मेरी समझ के अनुरूप व्यक्ति से चर्चा…संगीत और कभी कभार कुछ पढ़ भी लेती हूं लेकिन मेरा ज्यादातर समय बीतता है अवलोकन और मनन में।

इसी तारतम्य में कल गाड़ी चलाते समय बगल में चल रहे नव विवाहित से नज़र आने वाले जोड़े पर ध्यान गया, सैकड़ों दो पहिया और चार पहिया वाहनों के बीच वो दोनों साइकिल पर जा रहे थे, दोनों खुश थे और दुनिया भर से बेपरवाह भी, उनके मन में बेहतर जिंदगी की बेशक कई इच्छाएं होंगी लेकिन फिर भी मुझे वो हालत ए हाज़िरा में भी खुश लगे मुझे लगा उनको थोड़ी सी जगह सड़क पर देनी चाहिए ताकि वो बिना किसी बाधा के अपनी मौज में अपने गंतव्य तक पहुंच सकें अब तक शायद किसी भी complex या compitition से दूर एक दूसरे में खोया उनका मन थोड़े वक्त तक और इस रस का आस्वदन कर ले और अगर इसके लिए मैं कोई छोटा मोटा ज़रिया बन सकूं तो क्या ही बात हो…ये और इन जैसे बहुत से निर्णय हैं जो मैं भावानात्मक अवलोकन से लेती हूं, रोज़ की ज़िंदगी में थोड़ा और मानवीय होने का मौका मैं चुकाना नहीं चाहती, इसलिए मेरी रोज़ की ज़िंदगी में ऐसे कई काम हैं जिनके पीछे के कारण सिर्फ और सिर्फ मैं जानती हूं।

मुझे ऐसा लगता है कि परिस्थितियों या व्यक्तियों का अवलोकन करने की हमारी क्षमता हमारा दर्जा तय करती हैं और हमें अपनी ही मनोस्थिति का भान करवाती हैं एक ही घटना को देखने और समझने के कई तरीके हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि कोई तरीका ही न हो यानि आप पर सामने घट रही घटनाओं का कोई असर ही नहीं पड़ रहा हो, लेकिन बावजूद इसके मैं समझती हूं कि प्रत्येक व्यक्ति का उसके सामने प्रस्तुत परिस्थिति के लिए आप्त नज़रिया बहुत मायने रखता है, व्यक्ति की approach उसके बौद्धिक और भावनात्मक तल को सुस्पष्ट करती है, और मेरी समझ तो बस इतना ही कहती है कि जितना ज़्यादा हमारे भीतर भाव ज़िंदा रहते हैं उतनी ही ज़्यादा मात्रा में हम मनुष्य होते जाते हैं, अन्यथा हमारे आस पास बहुत कुछ ऐसा है जो हमको सतत जड़ बनाने के लिए प्रयासरत है।

भारत की दर्शन परंपरा में चार्वाक दर्शन एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है यह और बात है कि हमारे पास इस परपंरा के बहुत से प्रमाण उपलब्ध नहीं है और जो हैं उनको भी शायद थोड़ा तोड़ मरोड़ कर समझा गया मेरी समझ यह कहती है कि चार्वाक जीवन के प्रति उदात्त दृष्टिकोण रखते होंगे और जीवन को दूसरी हर चीज़ से बहुत महत्वपूर्ण मानते होंगे तभी उनकी मंशा जीवन रस को अधिकतम निचोड़ लेने की दिखाई पड़ती है, और मुझे लगता है यह एक अच्छी approach है, जीवन जब तक है उसका जीवंत और भाव पूर्ण होना बहुत ज़रूरी है। पत्थर मंदिरों में सजाएं जाते रहे हैं और उनकी प्राण प्रतिष्ठा का दावा भी किया जाता रहा है, मुझे आज तक समझ नहीं आया कि कौन किसमें प्राण डालता है??? पर सामने मौजूद परम प्राणवान को अनदेखा करके, पत्थर को पूजना यह उसी का अनादर है जिसने प्रत्येक जीव में बिना किसी विराट आयोजन के प्राण प्रतिष्ठित किए हैं। ज़िंदगी रोज़ थोड़ा सा ज़िंदा होने का मौका देती है और मुझे लगता है उसे पहचान कर उसे अपना लेना हमारे होने को पूरा करता है।

मनस्वी अपर्णा