धर्म

बुज़ुर्गों का सम्मान करने पर पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कुछ मशविरे!

पार्सटुडे – हज़रत इमाम सज्जाद ने फ़रमाया: बुज़ुर्गों का सम्मान करो क्योंकि वे बूढ़े हैं, उसके साथ शांति, नर्मी और आहिस्ता व्यवहार करो और उसका मान-सम्मान भी बढ़ाओ।

इस्लाम के नैतिक पंथ में, आदर और सम्मान के लिए मौजूद अन्य मूल्यों और मानदंडों के साथ, बुढ़ापे और वयस्क होने को मानव गरिमा को संरक्षित रखने के महत्वपूर्ण मानदंडों और उदाहरणों में से एक माना जाता है।

दुनिया में बुज़ुर्गों की संख्या में लगातार हो रही वृद्धि ने उम्र बढ़ने और बुज़ुर्गों के साथ संपर्क के मुद्दे को मानव समाज के महत्वपूर्ण मुद्दों में बना दिया है इसलिए इन सामाजिक पूंजीओं का सामना करने और उनसे संपर्क करने के बारे में धार्मिक शिक्षाओं को खंगालने की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक महसूस की जा रही है।

बुढ़ापे का शिकार होती पश्चिमी संस्कृति

पश्चिमी समाज में बुज़ुर्गों के लिए महत्व और सम्मान के स्तर में समृद्ध और इस्लामी संस्कृति की तुलना में एक महत्वपूर्ण अंतर पाया जाता है।

पश्चिम में बुज़ुर्गों के लिए कई घरों का अस्तित्व इन समाजों में बुज़ुर्गों की बहुत ही अस्थिर और अपमानित स्थिति की ओर इशारा करता है।

खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान समय में व्यापक रूप से कम्युनिकेशन्स के उदय और विभिन्न संस्कृतियों के एक-दूसरे से टकराव की वजह, पश्चिमी समाजों का अनुसरण करते हुए इस्लामी समाजों में यह नज़रिया फैल गया और ओल्डएज होम की संख्या लगातार बढ़ने लगी।

इस हक़ीक़त के बावजूद है कि इस्लामी संस्कृति में पाए जाने वाले कड़े आदेशों के अनुसार, परिवार के बच्चे अपने माता-पिता की बड़े पैमाने देखभाल के ज़िम्मेदार हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में बुज़ुर्गों का मक़ाम

पैगम्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन, बुज़ुर्गों का समर्थन करने को, धार्मिक और नैतिक मूल्य मानते हैं और बुजुर्गों का सम्मान करने पर बल देते हैं।

उनके अनुसार, बुज़ुर्गों के साथ अच्छा व्यवहार करने से उनका मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होता है जिससे उनका आत्म-सम्मान बढ़ता है।

मुसलमानों के इमाम हज़रत इमाम सज्जाद फ़रमाते हैं:

बुज़ुर्गों का सम्मान करो क्योंकि वे बूढ़े हैं, उसके साथ शांति, नर्मी और आहिस्ता व्यवहार करो और उसका मान-सम्मान भी बढ़ाओ।


इमाम सज्जाद बुज़ुर्गों का सम्मान करें क्योंकि वे बूढ़े हैं
अहलेबैत के नज़रिए से, लोगों की बढ़ती उम्र, ईश्वरीय दया के और अधिक उतरने का कारण बनती है।

हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ इस संबंध में कहते हैं: जब कोई मोमिन पचास साल की उम्र तक पहुंचता है, तो ईश्वर उसके हिसाब किताब को हल्का कर देता है, और जब वह 60 साल की आयु तक पहुंच जाता है तो ईश्वर उसे क्षमा याचना की कृपा प्रदान करता है, जब वह 70 वर्ष का हो जाता है तो ईश्वर और आसमान पर रहने वाले उसे पसंद करते हैं और जब वह 80 वर्ष का हो जाता है तो ईश्वर उसे उसके अच्छे कर्मों को लिखने और उसके बुरे कर्मों को धोने की इजाज़त देता है और जब वह 90 वर्ष का होता तो अल्लाह उसके अतीत और भविष्य के पापों को क्षमा करे देता है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के हवाले से एक अन्य रिवायत में आया है:

बुज़ुर्गों का सम्मान करें क्योंकि बुज़ुर्गों का सम्मान करना अल्लाह का सम्मान है और जो उनका सम्मान नहीं करता वह हम में से नहीं है।

इसी तरह की एक रिवायत में, हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ ने भी बुज़ुर्गों का आदर और सम्मान करने का ज़िक्र किया है और कहा: एक सफ़ेद दाढ़ी वाले मोमिन का सम्मान करना अल्लाह का सम्मान करना है और जो कोई मोमिन का सम्मान करता है उसने अनिवार्य रूप से अल्लाह का सम्मान किया है और जो कोई सफ़ेद दाढ़ी वाले मोमिन का अपमान करता है, अल्लाह उसके पास एक इंसान को भेजता है ताकि वह उसके मरने से पहले उसे अपमानित करे।

बुज़ुर्गों को सलाम करने में पहल करना

हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ कहते हैं: “छोटे को बड़े को सलाम करना चाहिए। इसके अलावा, वह बुज़ुर्गों के सामने न बोलने को सम्मान देने का एक और उदाहरण मानते हैं और कहते हैं: एक दिन दो आदमी, बूढ़े और जवान, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पास आए और जवान आदमी बूढ़े आदमी के सामने बोलने लगा तो पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा: सबसे पहले, बुज़ुर्ग ।

नमाज़ में बुज़ुर्गों की हालत पर ध्यान देना

पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रतामे हैं:

जब भी तुममें से कोई लोगों को नमाज़ पढ़ाए तो उसे चाहए कि नमाज़ को छोटा कर दे कि नमाज़ में युवा, बूढ़े, दुर्बल और बीमार होते हैं।

बुज़ुर्गों से आगे न निकलें

जब वे पैग़म्बरे इस्लाम के पास पानी लेकर आये तो उन्होंने कहाः पहले बड़ों और बुज़ुर्गों से शुरुआत करो।

स्रोत:

क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के नज़दीक बूढ़ों का स्थान। इकना समाचार एजेंसी (बदीअ ज़ादेगान, एलाहे सादात 1402 हिजरी शम्सी))

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